घर से कई किताबें लाया हूँ जिनमे अधिकतर फणीश्वरनाथ रेणु जी कि हैं.. उनकी कहानियों का एक संकलन आज ही पढ़ कर खत्म किया हूँ, 'अच्छे आदमी'.. पूरी किताब खत्म करने के बाद फुरसत में बैठा चेन्नई सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन पर अपने मित्र के ट्रेन के आने का इंतजार कर रहा था, तो उस किताब कि बाकी चीजों पर भी गौर करना शुरू किया.. उसके पहले पन्ने पर पापाजी कुछ लिख रखे थे, जिसमे उस किताब के ख़रीदे जाने के समय वह कहाँ पदस्थापित थे और वह उनके द्वारा ख़रीदे जाने वाली कौन से नंबर का उपन्यास है.. "चकबंदी, बाजपट्टी".. उस समय पापाजी वही पदस्थापित थे.. इससे मैंने अंदाजा लगाया कि यह किताब सन १९८२ से १९८६ के बीच कभी खरीदी गई होगी.. मगर किताब के ऊपरी भाग को देखने से कहीं से भी यह किताब उतनी पुरानी नहीं लगती है, हाँ अंदर झाँकने पर पृष्ठ कुछ भूरे रंग के हो चले हैं और पुरानी किताबों जैसी सौंधी सौंधी सी खुशबू भी आती है.. एक जिम्मेदारी का एहसास होता है कि जिस तरह उन्होंने इसे संभाल कर अभी तक इन किताबों को रखा है, मुझे भी ऐसा ही व्यवहार इन किताबों के साथ करना चाहिए..
कुछ याद भी आया, जो पापाजी का किताबों के प्रति दीवानापन दिखाता है.. मैं बचपन से लेकर अभी तक खरीदी हुई लगभग हर चम्पक, नंदन, बालहंस, सुमन-सौरभ और कामिक्सों को भी ऐसे ही संभाल कर रखा हुआ हूँ जैसे पापाजी इन उपन्यासों को.. किसी भी कहानी कि किताब का एक पन्ना भी कोई ना मोड़े और अगर किसी को उसे मोड कर पढ़ना है तो कम से कम मेरी कहानी कि किताबों को तो मत ही छुवें.. उसे मोड़ कर पढ़ने का अधिकार मैंने पापाजी को भी नहीं दे रखा है..
कुछ पुरानी यादों में गोते भी मारा, वैसे भी कोई और काम था नहीं.. बगल में एक दो-ढाई साल की बच्ची के साथ आँख मिचौली भी बैठे-बैठे ही खेला.. पीले रंग की फ्रॉक पहन कर इतराती फिर रही थी, दीन-दुनिया से बेखबर.. उस किताब के ख़रीदे जाने के समय मैं अधिक से अधिक तीन से पांच साल का रहा होऊंगा..
बिहार एक बेहद रूढ़िवाद से जकडा हुआ प्रदेश है जहाँ जाति और समाज के कुचक्रों से बचकर निकलना बहुत मुश्किल है.. ऐसे माहौल में भी पापाजी का हम बच्चों से सदा मित्रवत व्यवहार रहा.. उन्होंने अपना बचपन संघर्षों में ही बिताया है और B.A.S. में आने से पहले उन्हें कई सीढियाँ नापनी पड़ी थी.. अपने भीतर के आत्मविश्वास को भी जगाना पड़ा था.. और जब आत्मविश्वास इस स्तर तक पहुंचा की वह I.A.S. के बारे में सोचें भी, उस परीक्षा में बैठने की उनकी उमर गुजर चुकी थी.. उन्होंने कभी भी अपनी बात, अपने सपने हम पर नहीं थोपे.. मगर फिर भी हमें यह भली भांति पता है की उनका एक सपना था की उनका कोई बेटा I.A.S. बने..
बचपन से ही पढाई-लिखाई के मामले में पापाजी का मुझ पर एक ऐसा अटूट भरोसा था जिसे मैं अक्सर तोड़ता फिरता था.. यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक मैं कंप्यूटर सीखना शुरू नहीं किया था.. जब भरोसा ऐसा था तब मुझसे भी बिना कहे, लगभग मूक संवाद जैसा ही कुछ, उन्हें यह उम्मीद भी थी की यह बेटा भी I.A.S. बने.. उनकी इस उम्मीद पर सबसे पहले मैंने पानी फेरा, यह कहकर की मैं कंप्यूटर फील्ड नहीं छोड़ने वाला हूँ.. और बाद में भैया ने भी यह स्पष्ट कर दिया की अगर मुझे I.A.S. ही बनना था तो मुझे M.Tech. तक की पढाई करने की क्या जरूरत थी? और बाद में भैया ने आधे स्तर पर ही सही पापाजी का आधा सपना पूरा कर दिया I.E.S. ज्वाइन करने के बाद..
मेरा तब भी और अब भी यही मानना है की हम तीनो भाई बहन में दीदी सबसे अधिक इंटेलेक्ट थी और है भी.. और दीदी के लिए I.A.S. निकालना 'पीस ऑफ अ केक' के ही सामान था.. मगर दीदी हमेशा अपने सपनो में ही गुमी सी रहने वाली लड़की थी.. जिसमे कुछ आसमान, कुछ तितलियाँ, कुछ चिड़ियों ने अपनी जगह बना रखी थी.. घर में हम तीनो भाई-बहन में अगर कोई कभी भी I.A.S. की परीक्षा में बैठा था तो वह दीदी थी.. मगर दीदी कभी भी उसे सीरियसली नहीं ली..
पापाजी की एक आदत है.. कभी-कभी वह अक्सर जान बूझकर कुछ ऐसी बात कह जाते हैं जिससे हम हद दर्जे तक इरिटेट हो जाएँ.. इधर हम इरिटेट हुए और उनके चहरे पर एक विजयी मुस्कान आ जाती है.. यह भी कुछ वैसा ही है जैसे हम अपने किसी सबसे अच्छे मित्र को जानबूझ कर इरिटेट करते फिरते हैं..
एक दफ़े उनसे बात करते-करते उन्होंने कहा की मेरे बच्चे बेवकूफ हैं जो काबिलियत होते हुए भी I.A.S. नहीं बने.. मैंने आगे जोड़ा, नहीं पापाजी.. आपके बड़े बच्चे बेवकूफ होंगे, मैं तो नालायक हूँ.. उनका कहना था की सिर्फ मुझे ही पता है की मेरा छोटा बेटा क्या है और उसमे क्या करने की क्षमता है.. मैं सोचने लग गया था.. "हर माँ-बाप को अपने बच्चे पर इस तरह का अन्धविश्वास क्यों होता है? या फिर यह एक ऐसा विश्वास है जो बच्चों में कुछ भी कर गुजरने की ताकत दे देता है?"
बहुत बकवास कर लिया आज.. बाकी फिर कभी.. :)
दो बजिया वैराग्य पार्ट वन
ऐसी बकवास तो रोज ही पढ़ने सुनने को दिल करता है...बेहतरीन वकवास...
ReplyDeleteआलोक साहिल
किताब का एक पन्ना भी कोई ना मोड़े और अगर किसी को उसे मोड कर पढ़ना है तो कम से कम मेरी किताबों को तो मत ही छुवें
ReplyDeleteयह तो हूबहू मेरा डायलॉग है!
वैसे थी तो यह बकवास ही
बेहतरीन बकवास
अगली बकवास का इंतज़ार
बी एस पाबला
कहानी जो कुछ कुछ अपनी सी लगे -बेटे के बारे में पिता से सटीक मूल्यांकन और किसी का नहीं होता ...यह दीगर है बेटा नालायक निकल जाय -अब उम्र क्या है पी डी?-आई एस तुमाहरे लिए लेफ्ट हैण्ड वर्क हो सकता है -बनारस से गुजरिये कभी तो बैठते हैं कुछ पल साथ !
ReplyDeleteशीर्षक से ही भावनाओं की गहराई का एह्सास होता है।
ReplyDeletekho saa gayaa tumhaare saath main bhi...
ReplyDeleteदिन पर दिन तुम्हारे लिखने का अंदाज बेहतर और बेहतर होता जा रहा है। बहुत रोचक, बहुत प्यारा और संवेदनशील! सुन्दर पोस्ट!
ReplyDeleteअनूप जी का प्रमाणपत्र सच्चा है। किसी को भी दिया जा सकता है।
ReplyDeleteवैसे पिता बेटे को नालायक कह भले ही दे लेकिन मानता नहीं है। किताबों के पन्ने पढ़ने के लिए होते हैं मोड़ने के लिए नहीं।
मैं होता तो मैं भी कुछ ऐसी ही बकवास करता..
ReplyDeleteअनूप जी से सहमत हूँ..
behterin yaden ,aur yadon ko samne rakhne ka andaz bhi ......shukriya is post ke liye......
ReplyDeleteआदिम रात्रि की महक पढियेगा ..इसमें से टाइटिल वाली कहानी बहुत पसंद आई थी मुझे ...रेनू मेरे प्रिय लेखकों में से हैं ..
ReplyDeleteजीवन तो विशिष्ट है,
ReplyDeleteसपना जीना क्लिष्ट है ।
not a bad story.
ReplyDeleteplz keep it up.
हम्म...मैं इस हफ्ते थोड़ी व्यस्त क्या रही, इसी हफ्ते तुमने तीन पोस्ट लिख डाली. अभी तीनो एक साथ पढ़ी...पहले तो बधाई,तुमने इधर लिखा और उधर पोस्ट छप भी गयी...बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteऔर आपकी किताबों की तस्वीरें देख कर हम जले नहीं बल्कि बहुत अच्छा लगा,कि इस बेस्ट सेल्लर किताबें पढने की उम्र में भी आप इतनी साहित्यिक पुस्तकें पढ़ रहें हैं.
अब इस पोस्ट की बातें, बिहार के तो हर पिता का यही सपना होता है,तभी तो एक IAS टॉपर लड़की ने कहा था,बिहार में बच्चों को abc नहीं पढाई जातीupsc पढ़ाया जाता है.
पर अब पिताजी लोग भी इस सपने से बाहर निकल रहें हैं..और यह देख खुश हो रहें हैं कि बेटे दूसरी फील्ड में भी सफलता के झंडे गाद रहें हैं.
आप ऐसी ही बकवास जारी रखें...बस बीच बीच में लम्बा ब्रेक ना लें...
वाह भाई, तुम्हारी इस बकवास से तो तुम्हारे बारे में फिर कुछ नया पता चल गया मुझे...खो गया था मैं भी तुम्हारे इस बकवास में :)
ReplyDeleteमेरे पिताजी भी किताबों को इसी तरह सँभालकर रखते थे...(हैं लिखने वाली थी...अब कुछ नहीं लिख सकती.)
ReplyDeleteदोबारा ऐसी बकवास कब करेंगे ?? वो क्या हैं.... मुझे ऐसी बकवास पढना अच्छा लगता है...
ReplyDeleteऔर हाँ.... रेणु मेरे भी प्रिय लेखक हैं. पर मैं आपकी तरह उनकी कोई भी किताब संभाल कर रख नहीं पाया :(
Maine bhi kuchh kitaabein niptaayi hain abhi abhi kuchh kharidlar kuchh maangkar. Apni kitaabon ko to bas apne aap tak hi sambhaal ke rakh paata hoon... Phir Itana safar karti hain ki chithade ho jaate hain. Kai kitaabon ka pata hi nahin chalta kisake paas hain abhi.
ReplyDeleteBaaki to 2 baje ka asar hai. :) thele raho. iPod se comment kar raha hoon isiliye angreji mein likh raha hoon.
ये कब लिखे? जब काल किये थे? :)
ReplyDeleteयार मुझे नही पता था कि तुम बकवास भी इतनी अच्छी करते हो.. सेन्टियाना अच्छी बात है.. लिखने के लिये कुछ भाव मिल जाते है :)
बनी रहें किताबें और बने रहें उन्हें प्रेम करने वाले !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया !!!!
bhai PD ek lambe samay ke baad tumhare blog par aaya aur vakai dil khush ho gaya.
ReplyDeleteye bakwas to padha iski pichhli kisht bhi padhaa.
bhai aise hi aur bahut achchha lekhan aapke haath me aaye, yahi shubhkamnayein hain...
vaise in dono post ne kafi kuchh yaad dilaya
aapka lekhan bahut hi bakwaas ....
ReplyDeleteaisi bakwaas kyun padhoon main...lekin phir bhi pata nahi kyun aapki agli bakwaas ka intzaar rahega......
bihar mein paida huye har bacche se ye ummid hoti hai ki wo IAS nikaale. jane kyon aise man mein gahre baithi hai ye baat. mere yahan pahle mujhse logon ko ummid thi ki main IAS karungi, ab mere bhaai se hai.
ReplyDeletedukh hota hai is baat par kabhi kabhi ki main ek sapna poora nahin kar saki.
kitabon ko lekar had darje ki possesive main bhi hoon. ekdam jis halat mein hai usse thoda bhi alag kar do, marne maarne par utaaru ho jaate hain.
अगर इसे ही बकवास कहते हो, तो करते रहो. इन्तजार करते रहेंगे.
ReplyDeleteकिताबों और पत्रिकाओं को सम्भालकर रखना बेहद ज़रूरी है । अब इस आदत के चलते अपना कमरा भी किताबों से भर गया है । जाने कितनी पत्रिकाओं की फाइल है ।
ReplyDeleteओरहान पामुक लिखते इसलिये हैं कि उन्हे स्याही की खुशबू अच्छी लगती है । मैं पुरानी किताबें इसलिये पढ़ता हूँ कि मुझे उनकी वह गन्ध अच्छी लगती है जिसका ज़िक्र आपने किया है ।
इस अनुभूति को बाँटने के लिये धन्यवाद ।