Friday, November 27, 2009

दर्द की कोई उम्र नहीं होती


दर्द की कोई उम्र नहीं होती, वो ना तो एक साल की होती है और ना ही सौ साल की.. चाहे वह 26/11 हो, मुंबई बम ब्लास्ट हो, 2002 गुजरात हो, सिख दंगे हो या कुछ भी.. वह हमेशा उतनी ही सिद्दत से महसूस की जाती है जैसे पहली बार..

ठीक एक साल पहले, जैसी भागम भाग यहां चेन्नई की सड़को पर थी वैसी ही आज भी है.. लगभग वैसी ही गाड़ियों का जमावड़ा, वैसी ही भीड़, वैसा ही ट्रैफिक.. कुछ भी तो नहीं बदला है.. बदला है तो बस एक सवाल.. किसी परिचित के मिलने पर लोग पूछते थे कि मुंबई में क्या हो रहा है? आज भी कुछ लोग मिले, उनका सवाल भी वही था.. बस शहर अलग थे.. मुंबई का स्थान कानपुर ने ले लिया था.. सभी पूछ रहे थे कानपुर टेस्ट का क्या हुआ? मगर इस प्रश्न में चिंता नहीं झलक रही थी, सभी खुश थे कि चलो भारत अच्छे से जीतने के कगार पर पहूंच गया है.. क्रिकेट की चिंता सभी को थी, मगर एक अदद सवाल देश के नाम पर नहीं था..

आज किसी ने एक बार भी मुंबई का नाम नहीं लिया, ऑफिस के कामों के अलावा अगर किसी बात की चर्चा हुई तो वो बस क्रिकेट ही था.. मैंने ही बात आगे बढ़ाते हुये कहा कि आज 26/11 है? तो उसके जवाब में अधिकतर लोगों का रवैया बेहद उदासीन था.. किसी ने भी मेरी बात पर सहमती जताने के अलावा अपनी कोई बात नहीं रखी.. मुझे याद है आज से एक साल पहले की बात.. 26/11 से पहले एक एक करके भारत के लगभग हर बड़े शहर में बम धमाके हो चुके थे, बस एक ही महानगर अछूता था, चेन्नई.. मेरे मन में कहीं ना कहीं ये बात बैठी हुई थी कि आज नहीं तो कल चेन्नई की बारी भी आने वाली है.. खैर यह बातें फिर कभी..

अगर 26/11 कि बात करें तो हमारे इस रवैये पर दो बातें कही जा सकती है.. आप जिसे चाहे आशावादी या निराशावादी कह-सुन सकते हैं..
1. हम बीती ताही बिसारिये कि तर्ज पर पिछले साल के मुंबई को छोड़कर आगे निकल चुके हैं..
2. हम अब इतने असंवेदनशील हो चुके हैं कि इन सब बातों का हम पर कोई असर नहीं होता है..

कुछ भी हो, मुझे तो अब यही लगने लगा है कि देश का गुस्सा जिसे मिडिया ने भी खूब हवा दी थी, किसी पेसाब के झाग की तरह ही था.. जो कभी का बैठ चुका है..

चलते-चलते : कल मैंने अपने और्कुट का कैप्शन कुछ ये लगाया था "न्यूज चैनल को टीआरपी, न्यूज पेपर को सर्कुलेशन और राजनितिज्ञों को चंद मुद्दों मिले, मगर हमें 26/11 से कोई सीख भी ना मिली.."

Thursday, November 26, 2009

ये बूढ़ी पहाड़ियां अक्सर उदास सी क्यों लगती हैं?


जब कभी किसी हिल स्टेशन पर घूमने जाता हूं तो वहां की पहाड़ियां अक्सर मुझे बहुत उदास सी लगती हैं.. लगता है जैसे कुछ कहना चाहती हों.. अपना दर्द किसी से बांचना चाहती हों, मगर उन्हें सुनने वाला वहां कोई ना हो.. लम्बे-लम्बे देवदार के अधिकांश अधसूखे, अधमुर्झाये और जो पेड़ साबूत बचें हो उन्हे बचाने की गुहार की मुद्रा में ये पहाड़ियां मुझे लगती हैं..

जब हमने चेन्नई से अपनी यात्रा शुरू की तब हमने भी उस नियम को निभाया जिसे "इंडियन टाईमिंग" के नाम से जाना जाता है.. सुबह 7.15 पर कार्यालय के सामने मिलने की बात तय करके सभी आराम से आये, और 7.30 में यात्रा शुरू होने के बजाय 8.10 में यात्रा शुरू हुई.. 7.45 के लगभग फनिन्द्र का एक एस.एम.एस. आया की वह किन्ही निजी कारणों से नहीं आ पायेंगे.. कुछ मन तो उदास हुआ मगर उदास होने से क्या होता है, जब जाना ही है तो खूब मजे करके लौटना है, यही सोच कर उसे खुद पर हावी नहीं होने दिया.. रास्ता चेन्नई-बैंगलोर हाईवे से होकर जाता है जो वेल्लोर से कुछ आगे जाकर हाईवे छोड़ येलगिरी की ओर निकल पड़ता है.. वेल्लोर से गुजरते हुये वो पहाड़ी(जहां की तस्वीर अपने ब्लौगर प्रोफाईल में लगा रखी है) और अपना कालेज भी नजर आया और रास्ते में सलमान खान के वांटेड सिनेमा का तमिल संस्करण, जिसके हीरो विजय हैं, भी देखा.. एक-एक सीन हिंदी वाले सिनेमा जैसा ही था..

रास्ते में दो-तीन जगह रूकना भी हुआ और जिस कारण से धीमे-धीमे सूरज भी भी सर पर चढ़कर नीचे उतरने को चल पड़ा.. अंततः सूरज के नीचे भागने से पहले ही हम अपने गंतव्य पर पहूंच गये.. वहां पहूंचते ही, लोग "Where is Mike?" के नारे बुलंद करने लगे.. और मैं सोच रहा था की हम लोग किसी तरह का लाऊडस्पीकर लेकर तो आये नहीं हैं तो ये लोग "Mike" क्यों ढ़ूंढ़ रहे हैं? खैर थोड़ी ही देर मे यह उलझन भी सुलझ गई.. पता चला की "Mike" नाम का व्यक्ति इस रिसोर्ट की देखभाल करता है.. :)

आम तौर पर मैं किसी भी पहाड़ी वाले जगह पर जाते समय, घाटियों से गुजरते हुये ढ़ेर सारे चित्र अपने कैमेरा से लेता हूं, मगर इस बार जाते समय मैंने नहीं लिया.. चलती गाड़ी से वैसे भी कुछ अच्छा आता नहीं है, ऊपर से हर घाटी मुझे एक जैसी ही लगती है(शोले का एक डायलॉग याद आ रहा था, "मुझे तो हर पुलिस वाले की शक्लें एक सी ही लगती है")..

अगर येलगिरी की बात की जाये तो मुझे यह पर्यटन स्थल जैसा नहीं लगा.. अभी तक पर्यटन स्थल जैसी भीड़-भाड़ नहीं है यहां.. ना ही पर्यटन स्थल जैसी सुविधायें हैं, मगर यही कुछ कारण है जिसके कारण मुझे यह जगह बेहद पसंद आया.. वैसे भी जैसे लगभग शहर एक जैसा ही होता है, एक जैसे मॉल, एक जैसी ना समझ में आने वाली सड़कें.. ठीक वैसे ही सारे हिल स्टेशन भी एक से ही लगते हैं मुझे.. कम से कम यहां जीवन का स्वभाविक प्रवाह तो है.. एक जगह है ट्रेकिंग के लिये, जिसके लिये जगह-जगह एक बोर्ड टंगा हुआ है कि क्या करें और क्या ना करें? पता नहीं कितने लोग उन संदेशों का पालन करते हैं? घाटी में घुसते ही ढ़ेर सारे पालीथिन इधर-उधर फेंके हुये देख कर मुझे तो नहीं लगता कि सभी उस तरह के निर्देशों को मानते ही होंगे.. पास में एक छोटी सी झील भी है जहां लोग बोटिंग का मजा लेते हैं.. इसके अलावा अगर आप यहां आना चाहते हैं तो तभी आयें जब आपके पास ढ़ेर सारा समय हो और आप एकांत की तलाश में हों.. नहीं तो यह जगह बेकार है आपके लिये..

खाना खाकर कुछ लोग क्रिकेट खेलने में व्यस्त हो गये, तो कुछ लोग फुलबॉल.. और मेरे जैसे चंद लोग तालियां बजाने और फोटो लेने में व्यस्त हो गये.. शाम ढ़लते ही आग जला दिया गया, जिसमें लोग हाथ सेंक सके.. तो वहीं कुछ दूरी पर पीने-पिलाने का भी दौर चल निकला.. एक बात मैंने हर जगह कॉमन देखी है, पीने के बाद लोग ना जाने कैसे एक दूसरे के भाई बन जाते हैं और अपनी भाषा को छोड़कर अंग्रेजों की शरण में चले जाते हैं.. "तू तो मेरा भाई जैसा है.." या फिर "यू आर लाईक माय एल्डर ब्रदर.." जैसे जुमले भी उछलने लगे.. वहीं लड़किया और महिलायें अंताक्षरी जैसे खेलों में लग गई.. और मैं पीने वाले लोगों के बीच बैठ कर उनकी बहकी-बहकी बातों का मजा लेने लगा.. :) बगल में गाने बज रहे थे, और मेरे कुछ मित्र नाच भी रहे थे.. मैं भी थोड़ी देर उनमें शरीक हो गया.. थोड़े ठुमके लगा कर फिर से उन लोगों को ढ़ूंढ़कर बाते करने लगा जो पीकर अलग ही रंग में आ चुके थे..


अगले दिन सुबह उठकर सभी लोग झील की ओर निकल लिये.. कुछ बाहर झील के किनारे बैठकर आनंद उठाये और कुछ लोग नौकायन के मजे लेकर.. फिर वापस आकर खाना खाकर कुछ खेल खेले गये और फिर वहां से रवाना होने का समय आ गया..

चलते-चलते - कल मैं अपना मोबाईल घर में ही भूल गया.. पूरे दिन भर कई बार मुझे ये भ्रम होने लगा था की मोबाईल के अलावा भी कुछ है जो मैं भूल रहा हूं.. मगर कुछ था नहीं.. ये मोबाईल की आदत भी बहुत बुरी हो चली है.. खैर कल का दिन इसी बहाने कम से कम शांती से तो बीता.. :)

Monday, November 23, 2009

क्या शीर्षक दूं, समझ में नहीं आ रहा है

अभी कल ही दो दिनों के ट्रिप से लौटा हूं.. येलगिरी नामक जगह पर गया था जो तमिलनाडु का एक हिल स्टेशन है.. अभी फिलहाल इन चार चित्रों को देखें, लिखने का मन किया तो वहां के भी किस्से सुनाऊंगा..








ये पिल्ला अपनी मां और भाई-बहनों को जाता देख रहा है..

Friday, November 20, 2009

भगवान का होना ना होना मेरे लिये मायने नहीं रखता है(एक आत्मस्वीकारोक्ति)

मैंने आज तक इस विषय पर कभी कोई पोस्ट नहीं लिखा है और शायद आगे भी नहीं लिखूं.. मैं भगवान को नहीं मानता हूं और उन्हें मानने या ना मानने को लेकर किसी से कोई तर्क-वितर्क नहीं करता हूं.. जब मैं भगवान को नहीं मानता हूं तो खुदा या ईसा को मानने का सवाल ही पैदा नहीं होता है.. फिर भी मुझे अपने हिंदू होने पर गर्व है.. क्योंकि यही वह धर्म है जो इस बात की भी खुली छूट देता है कि आप उसके अस्तित्व को भी नकार सकते हैं जिसे लेकर यह धर्म बनाया गया है..

मैं कर्म प्रधानता पर विश्वास रखने वालों में से हूं और समय के साथ थोड़ा भाग्यवादी भी होता जा रहा हूं.. मगर फिर भी अच्छे भाग्य के लिये भगवान की प्रार्थना करना मुझे मेरे स्वाभिमान को ठेस पहूंचाने जैसा लगता है.. अगर जीवन की किसी परेशानी से मैं भगवान की शरण में जाऊं तो मुझे यह लगेगा की मैं अंदर से हद दर्जे तक का स्वार्थी भी हूं, जो कभी तो भगवान को नहीं मानता था मगर जैसे ही मुसीबत आन पड़ी वैसे ही पूजा-पाठ में तल्लीन हो गया..

मेरे लिये किसी की इबादत करने से अधिक महत्वपूर्ण है उन जरूरतमंदो की फिक्र करना जिन्हें सच में मदद चाहिये.. किसी भिखारी को पैसे देने से अच्छा मैं समझता हूं उसे खाने को कुछ खरीद देना(जो भिखारी अक्सर नहीं लेते हैं, उन्हें तो पैसा चाहिये).. किसी बूढ़ी अम्मा को सड़क पार करवाना, चाहे उसके बदले मुझे ऑफिस में 5 मिनट और देर हो जाये(आज भी एक अम्मा याद आती है जिन्हें सड़क पार करवाने के एवज में ललाट पर एक प्यार भरा किस और ढ़ेर सा आशीर्वाद मिला था).. किसी छोटे अनजान बच्चे को किसी दुकान से पचास पैसे वाली कैंडी खरीद कर देना मेरे लिये भगवान को पूजने से अधिक महत्वपूर्ण है..

चलते-चलते : आज सुबह-सुबह एक महाशय मुझसे भिड़ गये कि भगवान को मानो.. मेरा कहना था कि मैं तो आपको नहीं कह रहा हूं की आप भगवान को ना माने और ना ही कोई बहस कर रहा हूं? फिर आप जबरी मेरे पीछे क्यों लग गये हैं कि भगवान को मानो? मानने वाले के अपने तर्क हैं और ना मानने वाले के अपने.. दोनों ही समानांतर रेखा की भांती कभी नहीं मिल सकते हैं.. खैर इस चक्कर में आप लोगों को यह झेलना पर गया.. :)

Thursday, November 19, 2009

नौस्टैल्जिक होने के बहाने कुछ गुमे से दिन

यूं तो नौस्टैल्जिक होने के कई बहाने हम-आप ढ़ूंढ़ सकते हैं, तो एक बहाना संगीत का भी सही.. आज सुबह से ही 'माचिस' फिल्म का गीत "चप्पा-चप्पा चरखा चले" का एक लाईन जबान पर चढ़ा हुआ है..


"गोरी-चटखोरी जो कटोरी से खिलाती थी,
जुम्मे के जुम्मे जो सुरमें लगाती थी..
हो कच्ची मुंडेर के तले.....
चप्पा-चप्पा चरखा चले.."


अब पता नहीं, लोग इस गाने को किस नजर से देखते हैं और किस तरह से नौस्टैल्जिक होते हैं.. मुझे तो ये गीत पटना की गलियों तक खींच लाता है.. उन पुराने बूढ़े से होते गलियों का भटकाव याद आने लगता है, जहां आवारगी के दिनों में कदमों से दूरियों को भुलाया करते थे..

जब पुरानी गलियों में भटकने के किस्से सुना ही रहा हूं तो गलियों वाला माचिस का गीत कैसे भला कोई भूल सकता ? "छोड़ आये हम, वो गलियां.." शायद यही आज के इस युवा वर्ग का यथार्थ भी बनता जा रहा है.. जाने कौन कितनी ही गलियों के विछोह का मारा-मारा अपनी जमीन से बेदखल दूसरे प्रदेशों में फिर रहा है? भले ही उस गीत में गुलजार साहब ने कुछ और तरह के विस्थापन के दर्द को दिखाने का प्रयास किया हो..

मेरे लिये नौस्टैल्जिक होने वाले कुछ अन्य गीतों में रात की आवारगी दर्शाता हुआ तेजाब का गीत "सो गया ये जहां, सो गया आसमान.." भी शामिल है.. जिसे सुनते हुये उन पुरानी यादों में चला जाता हूं जब पटना में रात के समय दोस्तों के साथ आवारागर्दी किया करता था(पटना में रात बिरात घूमना उस समय और भी बड़ी समस्या थी, गुजरात दंगों का दौर था और अक्सर अफवाहों के कुछ तूफान गुजरा करते थे) और उस पर भी तुर्रा यह की मेरी आवारगी उन्हीं इलाकों में होती थी जिसे अखबार वाले मुस्लिम बहुल इलाका कहा करते हैं(पटना सिटी)..



जब रात और दोस्तों की बात करता हूं तो एक गीत, जिसमें रात तो कहीं नहीं है, मगर फिर भी बहुत याद आता है.. 'आतिफ़' का गाया हुआ "हम किस गली जा रहे हैं".. यह गीत मुझे उन यादों में खिंचता है जब कालेज के अंतिम पड़ाव से गुजर रहा था और चेन्नई में रहकर अपना प्रोजेक्ट पूरा कर रहा था.. किसी काम से वापस कालेज जाने पर रात के समय कभी कालेज के बाहर वाले ढ़ाबे से खाना खा कर लौटते समय रास्तों पर दोस्तों के साथ कुछ गीत गला फाड़ कर गाया जाता था उसमें यह गीत प्रमुख हुआ करता था.. आस पास के राहगीर या रहने वाले लोग हमें उन निगाहों से देखते थे जैसे पागलों या अपराधियों को देखा जाता है.. हो भी क्यों ना, रात के 12-1 बजे कोई ऐसा करे तो भला और किसी से क्या उम्मीद करें? "वैसे रात की आवारगी वाले गानों में से एक हालिया प्रदर्शित गीत मुझे पसंद तो बहुत है मगर मुझे नौस्टैल्जिक नहीं कर पाता है, शायद अभी नया है इसलिये.. कुछ साल बाद शायद इसे भी किन्ही कारणों से याद करूं.."

अपने कुछ पसंदिदा गीतों की ओर बढ़ने पर पाता हूं कि कुछ गीत मुझे दीदी की बहुत याद दिलाता है.. उन गीतों में एक भी वैसे गीत शामिल नहीं हैं जो रक्षाबंधन पर चित्रहार या रंगोली में बजा करते थे.. ये उन गीतों में से आते हैं जो दीदी को परेशान करने के इरादे से गाया गया था.. रात में दीदी किचन में रोटियां पकाने जाती थी और मैं गर्धवराग में नुसरत के चंद गीत चिल्ला-चिल्ला कर किचन में गाने पहूंच जाता था.. जिनमें से ये दो कव्वाली खास हुआ करती थी, -

"ये जो हल्का-हल्का सूरूर है,
ये जो तेरी नजर का कुसूर है,
जो शराब पीना सिखा दिया.."


और

"यादे नबी का गुलशन महका-महका लगता है..
महफ़िल में मौजूद हैं आका, ऐसा लगता है.."


वैसे अगर भाई-बहनों के ऊपर बने गीतों की बात की जाये तो मुझे 'काजल' सिनेमा का गीत "मेरे भैया, मेरे चंदा, मेरे अनमोल रतन. तेरे बदले, मैं जमाने की कोई चीज ना लूं" वाला गीत सबसे अधिक भाता है..

एक सिनेमा जो बहुचर्चित रहा, मगर किसी और कारण से उस चर्चित सिनेमा के गीत कम ही लोग जानते हैं.. जो उन गानों को आज जानते हैं उनमें भी बड़ी संख्या वैसे लोगों की है जिन्होंने इसे किसी रियैल्टी शो में सुना है और रिलीज के समय होने वाले विवाद के कारण इसके शानदार गाने कहीं गुम से हो गये थे.. मैं "बैंडिट क्वीन" की बात कर रहा हूं.. इसके गीतों में ना तो कहीं तयशुदा लंबाई है और ना ही कोई मीटर, मगर फिर भी अपने आप में यह किसी अनमोल नगीने से कम नहीं है.. इसके गानों को जब कभी भी सुनता हूं, एक अलग तरह कि ही भावनायें उमड़ती है.. सुनकर बेहद उदास भी होता हूं, मगर फिर भी बार-बार सुनता हूं.. एक अजीब सी कशिस महसूस होती है.. उस पायरेटेड वर्सन वाले प्यार की भी याद आती है जिसका लाईसेंस लेने से पहले ही वह एक्सपायर हो चुका था.. आप भी इसके एक गाने पर जरा गौर फरमायें -

सावन आया रिमझिम सांवरे
आये बादल कारे कारे मतवारे
प्‍यारे प्‍यारे मोरे अंगना झूम के
घिर घिर आई ऊदी ऊदी देखो मस्‍त घटाएं
फुरफर आज उड़ाएं आंचल मोरा सर्द हवाएं
डारी डारी पे भंवरा घूम के आये कलियों के मुखड़े चूम के
जिया मोरा जलाए हाय प्‍यारी प्‍यारी रूत सांवली..

मेरे सैंयां तो हैं परदेस मैं क्‍या करूं सावन को
सूना लगे सजन बिन देस.
मैं ढूंढूं साजन को..

देखूं राहें, चढ़के अटरिया
जाने कब जाएं सांवरिया
जब से गए मोरी ली ना खबरिया
छूटा पनघट फूटी डगरिया
सूना लागे सजन बिन देस,
मैं ढूंढूं साजन को..

क्‍यूं पहनूं मैं पग में पायल
मन तो है मुझ बिरहन का घायल
नींद से खाली मोरी अंखियां बोझल
रोते रोते बह गया काजल .
सूना लागे सजन बिन देस मैं ढूंढूं साजन को


इसका एक और गीत जो मुझे बेतरह पसंद है, वह है "सांवरे, तेरे बिना जिया जाये ना.." इस गाने की शुरूवात नुसरत के सरगम से होती है.. आजकल लोग राहत के सरगम को सुनकर मदहोशी में डूबते हैं, मगर जिन्होंने भी नुसरत के सरगम को सुना है वे जानते हैं कि नुसरत के आगे वे कितने फीके हैं.. आखिर हो भी क्यों ना, नुसरत उनके उस्ताद भी जो रह चुके हैं.. इस गीत में पीछे से आती हुई लड़की की आवाज कुछ ऐसा सुकून देता है जैसे अगरबत्ती की भीनी सी खुश्बू.. साथ ही उस आवाज में एक बिछोह का दर्द अंदर से परेशान सा कर जाता है.. इसके बोल कुछ दिये जा रहा हूं -

"सांवरे, तेरे बिना जिया जाये ना!
जलूं तेरे प्यार में,
करूं इंतजार..
किसी से कहा जाये ना!!

ढ़ूंढ़े मेरी प्रीत रे,
तू है कहां मीत रे,
असुवन गीत रे,
काहे संगीत रे.."


आज की महफिल यहीं खत्म करता हूं.. फिर कभी अपने पसंद के गीतों के साथ आता हूं.. आज का विषय यादों को लेकर था, अगली बार कुछ और होगा.. :)

Saturday, November 14, 2009

अलग शहर के अलग रंग बरसात के

बाहर झमाझम बरखा बरस रही है.. तीन-चार दिन सुस्ताने के बाद फिर से मानो आसमान बरस पड़ा हो.. यह बारिश जब कभी देखता हूं, उसमें एक पागलपन सा मुझे नजर आता है.. ढ़ेर सारी खुशियों को मैं उनमें देखता हूं.. ढ़ेर सारी उदासी भी नजर आती है.. कई तरह के भावनाओं को समेंटे हुये एक अलग सा ही ख्याल आता है.. कुछ पुरानी बातें याद आती है.. नौस्टैल्जिक सा हो उठता हूं..

पटना की सड़कों पर मूसलाधार वर्षा में वो पुराना बूढ़ा स्कूटर लेकर निकलना, जिससे थोड़ा भींग भी सकूं..लगभग घुटने भर पानी में स्कूटर के स्केलेटर को पूरा घूमा कर धीरे-धीरे क्लच छोड़ कर आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ना, जिससे स्कूटर बंद ना हो जाये.. कुछ दूर भीगते हुये उस लड़की का रिक्सा ढ़ूंढ़ना और उस रिक्सा के मिल जाने पर पूरे स्टाईल से वहां से निकल लेना, पानी के छीटें उड़ाते हुये.. जैसे उस रिक्से से मुझे कोई मतलब ही ना हो.. घर पहूंच कर सबसे पहले मम्मी से डांट खाना और फिर दरवाजे से ही सारे भींगे कपड़े लेकर अंदर आने को कहना.. एक दो बार तो गमछा लपेट कर अंदर घुसा हूं.. आज शाम तक अगर यूं ही बरसात होती रही तो फिर से भींगते हुये घर जाऊंगा.. गाड़ी के बंद होने का डर लिये बिना, साईलेंसर बहुत ऊंचा जो है.. अकेले घर पहूंच कर भींगे बदन ही ताला खोल कर अंदर जाकर कपड़े बदलूंगा.. जहां कोई डांटने वाला नहीं होगा.. फिर कोई ख्याल रखने वाला भी नहीं.. जितने भी बूंदें घर के अंदर होंगी, उसे पोछ कर साफ करना भी मेरा ही काम होगा..



बरसात देख एक शहर याद हो आता है.. जहां एक लड़की के हाथों में हाथ डाले घूमा करता था.. बरसात होने पर कहीं छुपने की जगह उस पहाड़ी वाले शहर में मुश्किल से ही मिलती थी.. फिर आजिज आकर छुपने की जगह ढ़ूंढ़ना छोड़ खूब भींगते थे हम.. अपनी हथेलियों से उस पर गिरने वाली बूंदों को रोकने का नाकाम प्रयास करते हुये.. कुछ अपना सा लगने लगा था वह शहर.. वो जूस का दुकान, चाट-पकौड़ियों का ठेला लगाने वाले भैया, जो हमें देखते ही दो ठोंगा बढ़ा देते थे.. जानते थे कि कुछ देर बहस करने और लड़ने-झगड़ने के बाद हम क्या खायेंगे.. बरसात में शायद अब भी उन हथेलियों की गर्माहट महसूस होगी, या शायद नहीं होगी..

चलते-चलते - खुद से, "ज्यादा सेंटी होने की जरूरत नहीं है भाई.." ;-)

Thursday, November 12, 2009

बेवक्त आने वाले कुछ ख्यालात

कभी-कभी कुछ सवाल दिमाग में ऐसे उपजते हैं कि यदि उसे उसी समय पूछ लो तो गदर मचना तय हो जाये.. हर समय उल्टी बातें ही दिमाग में आती है.. अगर हम खुश हैं तो इस तरह के सवाल ज्यादा आते हैं..

कुछ दिन पहले एक लंबे-चौड़े मिटिंग के बाद हमारे सुपर बॉस आये.. आते ही कुछ फंडे पिला कर बजा डाला, "यू कैन आस्क अनी काईंड ऑफ क्यूश्चन.." मैंने कई दिनों से मेंटोस तो खाया नहीं है, मगर फिर भी दिमाग की बत्ती भन्न से जल उठी.. सवाल पूछने का मन किया, "हम क्लोरमिंट क्यों खाते हैं?" सवाल तो मन ही मन पूछ लिया मगर सामने नहीं पूछा.. नहीं तो मेरे साथ पूरी टीम का बेड़ा गर्क होना निश्चित था.. ;)

एक बार एक ट्रेनिंग, जो किसी प्रोजेक्ट के प्रोसेस से संबंधित था और उसमें बताया जा रहा था कि प्रोजेक्ट प्लानिंग अतिआवश्यक है और हमें एक-एक घंटे का प्लानिंग करके चलना चाहिये.. उस ट्रेनिंग के तुरंत बाद ट्रेनर ने पूछा, "अनी क्यूश्चन?" मन में आया कि पूछ ही लूं कि बिना पहले से बताये अचानक से यह ट्रेनिंग सात लोगों को दिये जाने से देने से क्या पूरी टीम को सात घंटो का नुकसान नहीं हुआ जो लगभग एक 'मैन वर्किंग डे' के बराबर है? यह ट्रेनिंग पहले से प्लान क्यों नहीं किया गया? मगर पूछा नहीं.. :)

मैं अभी जिस टीम में काम करता हूं, उसमें बस पांच सदस्य हैं(प्रोजेक्ट लीड को जोड़कर).. लीड अलग बैठते हैं और बाकी चार लोग एक ही क्यूबिकल(एक क्यूबिकल में चार जगह होते हैं) में बैठते हैं.. अब हमें क्लाइंट के तरफ से एक छोटा सा फोम का बना हुआ टाईगर(अजी वही बाघ) गिफ्ट किया गया है, हमारे उत्कृष्ट काम के लिये.. अब इसे रखा कहां जाये यह प्रश्न उठा.. मेरा सोचना था कि इसके गले में रस्सी बांध कर पूरे टीम के बीचो-बीच लटका दिया जाये.. "हैंग टील डेथ..:D" मगर फिर से कुछ कहा नहीं..

"जब नया-नया कालेज छोड़कर जिंदगी की आपाधापी में कूदा था तब कहीं गूगल का वेकेन्सी देखा था.. उसके क्राइटेरिआ जब पढ़ा तो पाया कि बस एक ही क्राइटेरिआ फुलफील कर रहा हूं.. उसमें था कि 'सेंस ऑफ ह्यूमर' अच्छा होना चाहिये.." ;)

वैसे जानवरों के भी सेंस ऑफ ह्यूमर कुछ कम नहीं होते हैं.. कल रात ही देखा, मेरे पड़ोस के कुछ लोग अपने घर के बाहर रात 11 बजे के आसपास बैठे ठंढ़ी हवा खा रहे थे.. तभी गली का एक कुत्ता आया और उनसे प्यार जताने लगा.. वे लोग उसे भगाने के लिये जैसे ही उठे, वह कुत्ता अपना एक पैर उठा कर लघुशंका दूर कर वहां से पतली गली पकड़ लिया.. :D

Sunday, November 08, 2009

कार्यालय में बनते रिश्ते

हमने एक छोटा सा ही सही जिसमें मात्र तीन सदस्य हुआ करते थे, मगर एक ग्रुप बनाया हुआ था.. जिसका नाम रखा था एस.जी. ग्रुप.. जिसका फुल फार्म हमारे लिये सिंप्ली गॉसिप हुआ करता था.. मगर वही कोई और यदि उसके बारे में पूछे तो उसे सामान्य ज्ञान बताया जाता था.. ये ऑफिस में दोस्ती का दायरा पहली बार बढ़ने पर हुआ था.. जिसमें व्यवसायिकता कहीं से भी सामिल नहीं थी.. कारण हमारा प्रोजेक्ट भी अलग-अलग था.. मैं और फनिन्द्र एक प्रोजेक्ट में थे और बानुमती दूसरे प्रोजेक्ट में, मगर लगभग दो-तीन महिने हमारा क्यूबिकल साथ में ही था..

जब नया-नया नौकरी में आया था तब से लेकर अभी तक ऑफिस में मेरा सबसे नजदीकी मित्र शिवेन्द्र ही था और हो भी क्यों ना, हम जाने कितने ही साल से साथ-साथ थे.. संयोग कुछ ऐसा कि नौकरी एक ही कंपनी में लगी, और शुरूवाती प्रोजेक्ट भी एक ही मिला.. अब ऐसे में सबसे ज्यादा उसी से बात होती थी.. आसपास के लोगों के बारे में भी बाते होती थी, जिसमें सबसे ज्यादा हमारा ध्यान बानुमती ही खिंचती थी.. उन्हें कोई भी देखे तो सोचेगा की बहुत ही आधुनिक किस्म की लड़की होगी, मगर जब धीरे-धीरे उन्हें जानने लगा तो पाया कि भले ही सारे फ्लोर का ध्यान वो अपनी हरकतों से खींचती हो, मगर पूरे फ्लोर पर उनके दोस्ती का दायरा बहुत ही सिमटा हुआ है.. कारण बहुत बारीक से जांचने पर पता चला, बस वही पितृसत्ता समाज.. जिसमें अगर कोई लड़की किसी से भी हंसती बोलती रहे और साथ ही बेहतरीन तरीके से अपना दायित्व भी निभाती रहे तो पुरूषों के बीच मजाक का पात्र बनने में देरी नहीं लगती.. अब चूंकी मेरी और फनिन्द्र(फनिन्द्र पहले उनके ही टीम में थे और पहले से ही उनकी दोस्ती बहुत अच्छी थी) की सोच ऐसी नहीं थी सो हम जल्द ही अच्छे दोस्त भी बन गये..

हमारे बीच एक और बात सामान्य थी जो चेन्नई में मिलना बहुत मुश्किल है.. हम तीनों को ही हिंदी आती है.. इस कारण हमारी बात हमेशा हिंदी में ही होती है.. मैं तो हिंदी भाषी क्षेत्र से ही आता हूं.. फनिन्द्र तेलगु हैं मगर बहुत दिनों तक खाड़ी देश में काम किये हैं, सो उर्दू के साथ-साथ हिंदी अच्छी बोल लेते हैं वो भी बिना किसी क्षेत्रीय उच्चारण के साथ.. वहीं बानुमती तमिल होते हुये भी बचपन बैंगलोर में बिताई हैं, और हिंदी दूसरी भाषा के तौर पर विद्यालय में पढ़ी हैं.. सो हिंदी अच्छा बोल लेती हैं..

मेरी टीम में तीन-तीन सतीश हुआ करते थे.. सतीश पी., सतीश बी. और सतीश एम. इनमें सबसे पहले मैं सतीश एम. से मिला था.. ट्रेनिंग के बाद एक टीम ज्वाईन करने के पहले ही दिन.. मेरे किसी एसाईंगमेंट को चेक करने आये थे और उसमें कई खामियां गिना कर उसे बनाने का नया एप्रोच भी बता गये थे.. लगभग सारे तमिलों के बीच वही थे जो अक्सर बिना किसी बाते के भी बातें करने आते थे और शुरूवाती दिनों में उनसे कई बाते सीखने को भी मिला था..

अक्सर मुझे सिगरेट पीते देखने पर वे मुझे टोका करते थे कि मत फूको सिगरेट.. पता नहीं इतना अधिकार वे अचानक से मुझ पर क्यों समझने लगे थे.. क्योंकि प्रोफेशनल लाईफ में कोई ऑफिस के बाहर कुछ भी क्यों ना करे, कोई किसी तरह का प्रश्न नहीं पूछता है, चाहे वह आपके सुपर बॉस ही क्यों ना हों.... त्रिची के रहने वाले सतीश, तकनिकी रूप से बहुत सक्षम हैं, और आज भी उनसे कई बार कुछ नई चीज सीखने को मिलता ही रहता है.. आमतौर पर मैंने यह पाया है कि तमिल के लोग बिलकुल नये व्यक्ति से जल्दी मिलते-घुलते नहीं हैं.. बाद में भले ही वे आपके अच्छे मित्र हों जायें.. मगर इसके अपवाद के रूप में मैं इन्हें पाया..

सतीश और बानु को लेकर कई बार अफवाहें भी सुनने को मिलती थी और अक्सर कई बार लोग मुझी से उनके बारे में पूछने आते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि मैं उन दोनों के ही करीब हूं सो मुझे जरूर पता होगा उनके बारे में.. जबकी मेरा उन दोनों से ही एक अलग तरह का रिश्ता था.. और मैं दोनों ही रिश्तों को समानांतर रूप से निभाता था, कभी उसे आपस में फेंटा नहीं.. कई बार ऐसा हुआ है कि मैं उन दोनों को ही छुट्टी के दिनों में कहीं बाहर देखता था.. मगर कभी उसमें घुसने की ना तो कोशिश करता था और ना ही कहीं बाहर उन्हें लेकर बाहर बातें करता था.. अभी परसो ही वे अपनी शादी का कार्ड सभी को दे रहे थे.. और ना जाने एक अलग सी खुशी हुई जिसे मैं इस पोस्ट में आप लोगों से बांट रहा हूं..

चलते-चलते - मैं उनका फोटो नहीं लगा रहा हूं क्योंकि मैंने इसके लिये उनसे आज्ञा नहीं ली है, और ना ही उनपर मैं इतना अधिकार समझता हूं कि उनसे बिना पूछे ही उनकी तस्वीर लगा दूं..

Wednesday, November 04, 2009

बदलाव के चिन्ह एक बार फिर

आजकल खूब हंसता हूं.. जहां गुस्सा आना चहिये होता है, वहां भी हंसने लगा हूं.. कभी खुद पर हंसता हूं तो कभी अपने भाग्य पर.. पहले कभी भी भाग्यवादी नहीं था, मगर अब लगता है जैसे धीरे धीरे भाग्यवादी होता जा रहा हूं.. कारण बस इतना ही है कि कहीं देखता हूं कि लोग मर मर कर काम कर रहे हैं मगर कुछ फायदा उन्हें नहीं मिल रहा है, और कहीं देखता हूं की बिना कुछ किये धराये बैठे बिठाये सब कुछ किसी की झोली में गिर रहा है.. (बस अभी अभी अपने ऑफिस के मित्र, गुरू और इमिडिएट बॉस, माने टीम लीड, से बात हुई और वह भी बोल रहे थे कि कल कुछ बातें हुई लीड के साथ और उन्हें उस पर गुस्सा आने के बदले हंसी आ रही थी..) :)

बदलाव जीवन का अटूट सत्य है.. आज से तीन-साढ़े तीन साल पहले मुझमे बदलाव बहुत-बहुत समय बाद आता था.. मगर आजकल उसी बदलाव को आने में सालभर भी नहीं लगता है, और देखते ही देखते पूरी सोच को ही एक नया घुमाव मिल जाता है.. आजकल ऐसा लग रहा है कि मैं फिर किसी भीषण बदलाव की ओर बढ़ रहा हूं.. पता नहीं यह अच्छा होगा या बुरा..

अगर कार्यालय की ही बात करूं तो, पहले जिन बातों पर अपनी असहमती का सुर हमेशा ऊंचा किये फिरता था, अब उन्हीं बातों को चुपचाप मुस्कुरा कर सुनता हूं.. कुछ कहता नहीं.. अब शायद समझ गया हूं कि मेरे कुछ-कहने सुनने से उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला है.. कभी-कभी लगता है कि इस तरह के विचार किसी लाचारी या विवशता के तहत आने शुरू हुये हैं या फिर मन ही मन एक तरह का विद्रोह इन सबके खिलाफ पनप रहा है? आने वाले समय में ही शायद इन सब प्रश्नों के उत्तर मिल सके..

खैर चाहे कुछ भी हो, मगर एक बात अब अक्सर मन में आती है.. जितनी अधिक मायूसी और परेशानी जिंदगी में आती है, उतनी ही बार एक बार फिर उठकर उन सबसे लड़ने का मन करता है.. अंदर से एक जिद्द सा पनपता है, कुछ अच्छा करने को.. जिंदगी पहले से कुछ और बेहतर बनाने को.. आजकल कुछ ऐसी ही धुन लिये जी रहा हूं.. बचपन में पापाजी अक्सर एक कविता सुनाया करते थे, "मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है.." इसे सार्थक कर दिखाने की जिद्द सी मन में है..

चलते-चलते : "आजकल ब्लौग लिखना बहुत कम हो गया है.. कई बार कुछ लिखने बैठता हूं तो इतने सारे विचार एक साथ मुझ पर हमला करते हैं कि उनके बीच मैं कोई तारतम्य ही नहीं बिठा पाता हूं.. तो वहीं कई बार हिंदी ब्लौग जगत के तिल का ताड़ बनाने वालों को पढ़ सुनकर भी मन आहत हो जाता है.."