तीन घंटे का सफर जो मैसूर से कुर्ग तक जाता था, उसे हमने लगभग पांच घंटे में पूरा किया.. आराम से रूकते-चलते.. काश जिंदगी भी ऐसे ही आराम से रूकते-चलते कटती होती! यहाँ तो हर मोड़ पर एक दौड़ का आयोजन सा लगता है.. घर से निकलो तो ट्रैफिक की दौड़.. पार्किंग में पहले पार्क करने की दौड़.. दफ्तर पहुँचने पर यही दौड़ अपनी उत्कर्ष पर पहुँच जाती है, जिसके सामने भावनाएं भी बचा पाना दिन-ब-दिन मुश्किल सा लगने लगा है.. देखते हैं कब तक संभाले रख पाता हूँ खुद को इन गलियों से.. वैसे भी जिंदगी तीन के बदले पांच का मौका किसी को नहीं देती.. जो करना है उसी तीन में करो, हो सके तो उससे भी पहले करके किसी और का हक मारो या किसी और की मदद करो, यह आदमी-आदमी पर निर्भर है..
जहाँ हमें जाना था, वह जगह कुर्ग शहर से लगभग पन्द्रह किलोमीटर दूर थी.. पहाडियों के ऊपर कहीं बसी हुई.. जहाँ तक आम आदमियों का जाना संभव नहीं.. पूरी पहाड़ी ही उस "Home Stay" के मालिकों का था.. बस ने हमें जहाँ छोड़ा था वहां से लगभग तीन-साढे तीन किलोमीटर तक "Home Stay" वालों द्वारा चलाये जाने वाले वाहनों से ही जाना संभव था, या फिर पैदल.. पैदल जाना नए लोगों के लिए मुनासिब नहीं था, क्योंकि रास्ते में फिसलन बहुत थी.. मुझे जैसे दो-तीन लोग जो पैदल जाना चाह रहे थे उन्हें इसी वजह से मना कर दिया गया..
---
जब हम वहाँ पहुंचे तब तक दोपहर के एक बजने को थे, हलकी बरसात शुरू हो चुकी थी, और मैं बस में आधे घंटे कि नींद पूरी करने के कारण तरोताजा महसूस कर रहा था.. बाहर तीन जीप और एक कमांडर लगी हुई थी जो हमारी ही अगुवाई के लिए आयी थी.. बहुत दिनों बाद ऐसी जीप देखने को मिली, बचपन में पापा जी को ऐसी जीप मिला करती थी जो बाद में जिप्सी या सुमो या एम्बेसडर में बदल गई.. वह जीप भी उन्हें नॉस्टैल्जिक करने को बहुत होगी जिन्होंने कभी वैसी गाड़ियों में सफर किया होगा..
"कुछ साल पहले तक चेंगप्पा परिवार(Honey-Valley Home Stay) ही सभी आगंतुकों का स्वागत खुद करते थे, पर अब उन्होंने काम बढ़ने से कुछ आदमी रख लिए हैं.. मेरी इस बात कि पुष्टि आप इस लेख से कर सकते हैं जो आज से लगभग ढाई साल पहले लिखी गई थी.."
मैं टीम के Organizing Committee में सीधे तौर पर ना होते हुए भी उनकी मदद कर रहा था.. सीधे तौर पर से Organizing Committee से ना जुड़ने के विभिन्न कारणों को जानने के लिए मेरे एक मित्र द्वारा लिखा यह ब्लॉग पोस्ट आपको जरूर पढ़ना चाहिए(ओह, अभी देखा तो उसने वह पोस्ट हटा दिया है.. उसकी भी अपनी कुछ मजबूरियां रही होगी).. अब चूंकि मैं Organizing Committee में ना होते हुए भी उसका एक हिस्सा था तो फर्ज बनता था कि पहले दूसरे लोगों को भेज दिया जाए..
सबसे पहले महिलाओं कि बारी आयी, फिर दूसरों की.. सबसे अंत में बस की पूरी छान-बीन करने के बाद हम(मैं, संतोष और काईला) प्लानिंग कर रहे थे कि साढ़े तीन किलोमीटर कि लगभग सीधी चढाई पैदल ही पार किया जाए.. बाहर हल्की बरसात हो रही थी, लगभग सभी लोग जा चुके थे.. बड़े ग्रुप में नियत स्थान पर सबसे अंत में पहुँचने का सबसे बड़ा घाटा यह होता है कि आपको सबसे अंत में बचा हुआ ऐसा कमरा मिलता है जिसे सभी देख कर छोड़ चुके होते हैं..
जारी...
Coorg - एक अनोखी यात्रा
Coorg - खुद से बातें Part 2
बढ़िया चल रहा है वृतांत..सबसे आखिरी में पहुँचने का यह नुकसान तो है ही...फिर चाहे बारात में जाओ या घूमने.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
ReplyDeleteएकदम धारदार लेखनी.. वाह!!
"बहुत देर तक यूँ ही खिडकी से झांकता रहा, बाद में सभी के सोने के बाद दरवाजे पर खड़े होकर रात के अँधेरे में अपनी रंगीनियत खोकर काली हो चुकी झाडियों पर पड़ती रेल की बत्तियों कि रोशनियों को तेजी से अपना आकार बदलते देखता रहा.. कई दफे लोगों को भी ऐसे ही बदलते देख चुका हूँ।"
सीरीज जारी रहे.. आगे?
Prashant, I have brought my blog post back. "Lessons Learnt [Censored]"
ReplyDeleteबहुत सुन्दर यात्रा वर्णन ....
ReplyDeleteबहुत रोचक चल रहा है। बस अब कुर्ग घुमा ही दीजिए।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
पढ़ने में आनन्द आ रहा है। लिखे रहें।
ReplyDeleteथोड़ा तेज चलो हाँ फिसलना नहीं :)
ReplyDeleteपहिला एपिसोड पढला के बाद बुझाया था कि जल्दी से खतम काहे नहीं हो रहा है.. हम बोलबो किए थे कि हमको पेसेंस नहीं रहता है..लेकिन आज सच्चो बुझा रहा है कि सफर का मतलब कदम बढाना अऊर मंजिल पर पहुँच जाना नहींहोता है..असली सफर त बीच में है अऊर इस आनंद को जो नहीं जिया ऊ जिंदगी भर सफर (suffer) करते रह जाता है...
ReplyDeleteयात्रा के बीच का दृश्य का जिंदगी से तालमेल बहुत पसंद आ रहा है..अऊर अपने आप से सम्बाद का कोनो जवाब नहीं... पीडी बाबू हमरा तरफ से फुल मार्क्स!!
ई संतोस बाबू को बतानाकि हम इनका नमवा मलयाळ्म में लिखला पर भी पढ सकते हैं...
ReplyDeleteसंतोस बाबू हिंदी भी खूब बूझते हैं.. खुद ही पढ़ लेंगे.. :)
ReplyDeletekoorg aur santos baboo ;P
ReplyDeleteक्या बात है हमें अपनी यात्रा याद आ गयी छत्तीसगढ़ से हरिद्वार तक ३३ घंटे बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बढ़िया यात्रा वृतांत, जल्दी से पूरा सुना दीजिए
ReplyDeleteकूर्ग के होम स्टे वैली का नाम बहुत सुना है...अब आप से पता चलेगा की इसमें कितना दम है....बहुत रोचक वर्णन....
ReplyDeleteनीरज .
फिर आते है.. आगे पढने...
ReplyDeletehum bhi safar mein shamil hai...mukam tak jaldi pahuncha dijiye :)
ReplyDeleteअरे हम तो लास्ट में गए थे लेकिन 'किसी'ने हमारे लिए रूम रोक रखा था. गलती से अपने बगल में. और अच्छे रूम के आराम से ज्यादा टांग खिंचाई हुई थी :)
ReplyDeleteइस खूबसूरत सफ़र में थोड़ी दूर हम भी साथ चले...
ReplyDeleteवैसे तुमने तो कहा था कि ठहर कर पढ़ने कि जल्द ही आखिरी किश्त लगाओगे...लेकिन आज हमसे रहा नहीं गया। कुर्ग के कितने वीर नायकों को करीब से जानता जो हूं...
ReplyDeleteकमलेश्वर को पढ़ने का आनंद...अहा!
लेखनी का प्रवाह कुर्ग की सैर से कम नहीं है, यकीन जानो...