पहले ब्लॉग या फेसबुक पर आभासी मित्रों के साथ अच्छा समय गुजर जाता था, धीरे-धीरे उनसे भी वार्तालाप में कमी आ गई है.. कल को यह अचानक से बन्द ही हो जाए तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.. फेसबुक पर कम से कम अभिषेक तो हमेशा मिल ही जाता है.. पिछले महीने भर से सोच रहा हूँ कि लवली से बात करूँ, मगर नहीं कर पा रहा हूँ.. कई दफे उसका नंबर सेलेक्ट करके कैंसिल कर दे रहा हूँ.. हालत कुछ यहाँ तक पहुँच चुकी है कि कुछ जरूरी जगहों पर फोन करनी है, जिसके बिना काम नहीं चल सकता है.. मगर एक-एक दिन करके टालते हुए अब पन्द्रह दिन होने जा रहे हैं उसके.. उन जरूरी चीजों में सबसे पहला नंबर है 'बैंक'..
कुछ किताबें, बस!! एक खत्म हुई, दूसरी शुरू.. दूसरी खत्म हुई तो तीसरी शुरू.. अपने पास रखी सभी किताबें खत्म हुई तो, बाहर से कुछ नई ले ली.. बस!!
दोपहर में अमूमन खाना खा कर घर पर फोन लगाता हूँ.. बिना बात किये हाँ, हूँ कह कर कर फोन रख देता हूँ.. मानो यह जताना चाह रहा था कि देखिये पापाजी, मैं ठीक हूँ.. खाना भी खा लिया हूँ.. आप चिंता ना करें.. अंदर ही अंदर कुछ घुट सा रहा है.. क्या? मुझे भी नहीं पता.. स्नेहा को फोन करता हूँ.. उधर भी फिर वही हाँ, हूँ करके फोन काट देता हूँ.. और वापस अपने खोल में घुस जाता हूँ, जहाँ से मुझ तक किसी का पहुंचना नामुमकिन हो जाए.. किसी चक्रव्यूह कि तरह जिसे भेदना हर किसी के बस की बात ना हो..
किसी से कोई बात करने का मन भी नहीं करता है दिन भर.. कभी कभी लगने लगता है कि कहीं हर दिन घर पर बात करना भी ड्यूटी का ही तो हिस्सा नहीं है? मगर इसका जवाब रात को एक या दो बजे के लगभग मिलता है जब माँ से खूब बात करने का मन करता है.. उस वक्त लगता है कि नहीं, ये ड्यूटी का हिस्सा नहीं है.. उन्हें बताने का मन करता है कि उनसे कितना प्यार करता हूँ या उन्हें कितना मिस करता हूँ.. अक्सर जब वो सामने होती है या फोन पर बात करते समय "क्या कर रहे हो" या "कैसे हो" या "खाना खाये या नहीं" जैसी औपचारिक बातों से बात शुरू होती है, और बात खत्म भी हो जाती है.. मगर रात का समय!!! मुझे पता होता है कि इस समय वो सो रही होंगी, तो भी उन्हें जगाया जा सकता है.. मगर ये भी पता होता है कि फिर वो भी मेरी ही तरह सारी रात सो नहीं पाएंगी.. सबसे छोटे बेटे कि चिंता से..
थोड़ी देर अंदर ही अंदर कसमसाता रहता हूँ.. चलो किसी दोस्त से ही बात कर लूं, जैसी बात मन में आती है.. अब इतनी रात गए कौन जगा हो सकता है? मनोज, ये एक ऐसा सख्श है जिसे मैं कभी भी किसी भी समय फोन कर सकता हूँ.. मगर उसे भी तो सुबह दफ्तर की चाकरी बजानी होती है.. ऐसे वक्त में पंकज को ही अक्सर फोन लगाता हूँ.. थैंक्स पंकज, अक्सर मुझे इतनी रात गए बर्दास्त करने के लिए.. अक्सर मेरी अवसादग्रस्त बाते सुनने के लिए, और ढाढस भी बंधाने के लिए.. स्तुति से भी अक्सर उसी समय बात होती है अगर वह दफ्तर में ना होकर घर में हुई तो.. उसके अमेरिका में होने का ये फायदा तो जरूर मिल रहा है..
सोने से पहले घर पर पापा के नंबर पर एक SMS छोड़ देता हूँ, "Love you & miss you both. Good Night." both लिखने के पीछे कि मनोदशा कुछ समझ में नहीं आती है.. उसे लिखने से पहले एक-दो मिनट सोचता हूँ, फिर वही लिखता हूँ और भेज देता हूँ.. सुबह दस बजे के करीब फोन कि घंटी से नींद खुलती है, और माँ पूछती है कि निशाचर हो क्या? सुबह के चार-पांच बजे तक जगे हुए थे? मैं बस टाल जाता हूँ.. माँ कुछ देर इन्तजार करती है, शायद कुछ कहेगा.. कुछ देर कि चुप्पी के बाद दफ्तर का बहाना करके फोन रख देता हूँ.. मैं फिर से किसी से बात ना करने वाले मनःस्थिति में हूँ.. दिन भर बीतने के बाद फिर से बैंक में फोन नहीं कर पाता हूँ..
दो बजिया बैराग्य के पुराने भाग पढ़ने के लिए लिंक.
कुर्ग यात्रा अगले भाग में.
बड़ी जल्दी-जल्दी किताबे खत्म हो रही हैं? कुछ लेते क्यों नहीं ? :)
ReplyDeleteदेखते हैं मेरे से कैसे बात नहीं करते...आज ही रात फोनियाते हैं :).....परसों तुम्हारा कॉल मिस हो गया था.
ReplyDeleteओर वैसे बहुत कुछ सिमिलर है :P
क्या कहूँ? कुछ कहकर पोस्ट को हल्का नहीं करना चाहता.. यहीं बैठा हूँ तुम्हारे साईड में.. तुम कहते रहो :-)
ReplyDeleteशायद कोई यह सुझाव भी दे कि "अब शादी करने का बखत हो गया है"
ReplyDelete:-)
वैसे लिखना मैं कुछ और चाहता हूँ लेकिन अभी फिलहाल वही सही
ReplyDelete:-)
होता है पीडी बाबू होता है...हम दुनो दोस्त मिलकर इसको एक नया नाम दिए हैं और आजमाए भी हैं..लेकिन जरूरी भी है..हम टी अपने ओही बीमारी से ग्रसित हैं... और अगर एक बजे रात को प्रसव बेदना सुरु हो गया टी कभी कभी डिलीवरी में भोर हो जाता है..जैसे आज का पोस्ट के लिए कल का रात!!कभी हमसे बतिया लिया करो..एक बजे तक तो हमहूँ अभेलेबुल हैं..
ReplyDeleteकुर्ग वृतांत पढ़ लेने के बाद सोचा था कि ये नयी पोस्ट नहीं पढ़ूंगा...लेकिन यूं ही सरसरी नजर डालने के लिये रुका तो फिर रुका न गया। लगा अपनी ही किसी डायरी का अनर्गल अलाप पढ़ रहा हूँ।
ReplyDeleteक्या कहूं...get a grip...life is like that...grow up...ऐसे ही कुछ अंग्रेजी जुमले याद आये। :-)
अभी भी जगे हो क्या? जगे ही होगे, निशाचर!
पढ़कर अच्छा लग रहा है।
ReplyDeleteहोता है जी
ReplyDeleteऐसा भी होता है !
chalo bandhu, ham bhi nishachar hain, ab se raat me phone pe gappein ladaya karenge aapse....
ReplyDeleteशादी कब करवा रहे है घर वाले?
ReplyDeleteवैसे ये एकाकीपन भी बहुत मस्त होता है.. एन्जॉय करो.. रात की शान्ति.. ठंडी हवा.. (चेन्नई का पता नहीं).. पंखे की आवाज.. और जगजीत सिंह या गुलाम अली की गजले.. कुछ किताब हो.. गर्म चाय या कोफी... कुर्सी पे बैठे.. पाँव सामने स्टूल पर या पलंग पर.. मजा आ जाता है. कई साल हो गए ऐसी रात.. देखे...
आज बहुत दिनों बाद शायद मैं भी बहुत उदास हूँ....ये मौसम का असर है या फिर मैं ही बहुत उदास हूँ शायद इसकी वजह पिछले एक डेढ़ हफ्ते में घटी घटनाये भी हैं.....मेरी बीमारी , मम्मी का चोटिल होना और पड़ोस के एक हम उम्र लड़के की एकाक बेवजह मौत भी शायद इन वजहों में शामिल है...
ReplyDeleteपढ़ रहे हैं, समझ रहे हैं।
ReplyDeleteअपने को अभिव्यक्त करने में दिन पर दिन परिपक्व होते जा रहे हो। :)
वापस आया.. सामान्यत तुम जबाब देते हो.. इस बार गोल कर गए :)
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