Thursday, July 15, 2010

"एक शहर जो हर शहर में बसता है" और बिहार

2003 में पहली बार घर से बाहर पाँव रखा और दिल्ली कि और निकल पड़ा.. मुनिरका में अपना आसरा बनाया.. हर शहर में एक ही शहर बसता है.. मैंने पाया कि हर शहर में एक ही जैसे मोहल्ले, विद्यार्थियों और बैचलर के रहने के लिए एक ही जैसे गाँव जो अब शहर में तब्दील हो गए हैं, एक ही जैसे शौपिंग मॉल, एक ही जैसे नए और पुराने शहरों का मिश्रण पाया जाता है.. फिर चाहे वो दिल्ली हो, मुंबई हो, चेन्नई हो या कोलकाता.. भाषाएँ बदलती हैं, लोग बदलते हैं, रंग बदलते हैं.. मगर शहर का मिजाज नहीं बदलता.. एक शहर के उन पुराने शहरों में जाने पर वैसी ही खुरपेंच गलियां, वही गंदगी और कमोबेश वही अपराध भी देखने को मिलते हैं.. आप चाहे किसी भी शहर को चुन लें..

दिल्ली जाने पर मुनिरका ने सहारा दिया और चेन्नई आने पर ट्रिप्लीकेन ने.. दोनों ही जगहों का मिजाज एक सा ही.. अंतर सिर्फ इतना मिला कि दिल्ली में बिहारी होने कि पहचान थी और यहाँ उत्तर भारतीय होने की.. घृणा का स्तर भी लगभग एक सा ही.. दिल्ली में एक फायदा मिल सकता था, जो मैंने कभी नहीं लिया.. वह यह की मैं आसानी से अपने बिहारी होने कि पहचान छुपा सकता था.. बोलने में वैसे भी बिहारीपन कम ही झलकता था और बात करने के तरीके में जरा सा बदलाव लाने पर कोई पहचान भी नहीं पाता कि मैं बिहार का हूँ, फिर चाहे खुद को यूपी या एमपी का बता देता.. मगर मन में ख्याल आता कि अगर मेरे जैसे लोग ही खुद को बिहार का मानने से इनकार कर देंगे तो लोग जाने कब मेरी जन्मभूमि का सम्मान करना सीख पायेंगे.. हाँ, चेन्नई में यह पहचान छुपाने का कोई उपाय नहीं था कि मैं खुद को उत्तर भारतीय मानने से इनकार कर दूँ..

उधर मुनिरका में सबसे पहले एक बरसाती टाइप के घर में कुछ दिन रहा, बाद में नीचे एक कमरा खाली होने पर उसमे चला गया.. जहाँ दो या तीन मंजिला से अधिक ऊंचा मकान बनाने का परमिशन नहीं मिल सकता है वहां लोग खुलेआम पांच-छः मंजिल बना कर जिंदगी आराम से निठल्ले होकर काट रहे हैं.. किराया इतना अधिक आ रहा है कि कुछ करने की जरूरत ही नहीं है.. उसी किराए के पैसे से शराब पी-पी कर अपने मकान मालिक को लगभग मरणासन्न स्थिति में भी देख चुका हूँ..

मकान मालिक का एक बेटा था, शायद 10-12 साल का रहा होगा उस समय.. पास के साइबर कैफे में हमने उसे कई बार पोर्न देखते पाया भी था.. लोग उसे कुछ भी गाली दे दें, उसे रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता था.. मगर कोई उसे बिहारी ना बोले.. उसके लिए बिहारी होना दुनिया की सबसे बड़ी गाली थी, और उसके लिए जान परान देने को भी तैयार रहता था.. खुद उसके जबान पर भैन**-माँ** चढा रहता था, मगर कभी गलती से हमें भी उसने बिहारी नहीं कहा..

वह स्थिति मुझे कुछ-कुछ वैसा ही महसूस कराती थी जैसे आज हमें चमार, डोम, दुसाद इत्यादि बोलने का अधिकार नहीं है अथवा हम नहीं बोलते हैं.. कहीं सामने वाले के अहम को ठेस ना लग जाए.. अथवा हम किसी आपराधिक श्रेणी में ना आ जाएँ..

आज मेरे जितने भी मित्र बिहार से हैं वो गर्व से खुद को बिहारी कहलाना पसंद करते हैं.. कारण मुझे सिर्फ इतना समझ में आता है कि वे सफल हैं.. किसी भी तरह की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं.. कुछ हफ्ते पहले NDTV पर रवीश की रिपोर्ट में देखा कि कैसे पंजाब के कुछ हिस्से में चमार जाति के लोग खुद को चमार ही कहलाना पसंद करने लगे हैं.. क्योंकि अब वे सक्षम हैं, अमीर हैं और हीन भावना से ग्रस्त भी नहीं हैं..

चलते-चलते : यहाँ के मेरे कई मित्र अक्सर मुझसे पूछते हैं कि बिहार से इतनी अधिक मात्रा में IAS और IIT के लिए या फिर किसी भी अन्य सरकारी नौकरी में कैसे निकलते हैं, जबकि बिहार में साक्षरता दर भी बेहद कम है? अपनी समझ से उन्हें मैं इतना ही बता पाता हूँ कि बिहार में चूंकि कोई बड़ी इंडस्ट्री नहीं है, और इसी वजह से बच्चों को लोग बचपन से ही घुट्टी पिलाते हैं कि बेटा तुम्हे जब सरकारी नौकरी ही करनी है तो IAS ही क्यों ना बनो.. लोग अपने बच्चों को Engineer या Doctor बनाने से कम पर कुछ भी स्वीकार नहीं करना चाहते हैं.. चाहे इस दौड़ में उनके अपने बच्चों के सपने टूट कर चकनाचूर ही क्यों ना हो जाए.. एक लाल बत्ती तो हर घर के आगे होना ही चाहिए..

11 comments:

  1. पता है भाई, जब मैं बैंगलोर आया था न पहली बार २००२ में.. तो एक जान पहचान वाले के यहाँ रुका था...जब उनके मुंह से ये सुना की वो अपने बिहारी होने की बात अक्सर छुपाते हैं लोगों से तो सुन कर थोड़ा दुःख भी लगा था...
    मेरे भी जितने अच्छे दोस्त हैं, वो सब कभी भी बिहार से होने की बात नहीं छिपाई...हाँ एक लड़का भी था अंकित, वो बाकी सब टीचर्स और बाकी सब जगह कहता फिरता था की वो हरयाणा या दिल्ली का है, लेकिन बिहार का कहने से उसे पता नहीं क्या लगता....लेकिन उस लड़के को भी सबने इस बात के लिए चार साल इतना सताया की वो याद रखेगा...

    :)

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  2. बड़ी विवादित बहस छेड़ दी आपने। सक्षमता ही सम्मान का प्रतीक है।

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  3. सक्षम होने का अर्थ इस जमाने में अंटी में पैसा होना है। आप खूब कमा लें फिर आप अपने आप को कुछ भी कहें क्या फर्क पड़ता है। वैसे बिहार का इतिहास गौरवमयी रहा है। लेकिन अच्छी बात ये है कि बिहारी उसे पीठ पर नहीं ढोते वे अपने लिए नई दुनिया का सपना देखते हैं।
    बिहार में अमीर गरीब की खाई बहुत चौड़ी है। यही कारण है कि वहाँ से आईएएस भी बहुत निकलते हैं तो मजदूर कुली भी बहुत।
    कुछ भौगोलिक परिस्थितियाँ भी हैं जो कि बिहार के औद्योगिकीकरण को बाधित करती हैं।

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  4. न जाने कबसे ये सब देखा है.. कह सकते है कि आम आदमी चे की तरह विरोध नही करता लेकिन अपने ही समाज मे वो वैसे ही लडता है..

    यूपी मे हम लोग ओरिजिनली पूर्वान्चल से है लेकिन मै पला बढा लखीमपुर मे ही.. वहा कई बार मेरे ही दोस्त पूरबियो को कुछ न कुछ बोलते थे और साथ रहते हुये भी एक अजीब माइनोरिटी फ़ीलिग आती थी.. राउरकेला पढने गया तो वहा उडिया वर्सेस हिन्दी था.. वहा भी वही फ़ीलिग। फ़िर बाम्बे और यहा यूपी का होना.. फ़िर वही फ़ीलिग..

    जब राज ठाकरे कान्ड चल रहा था मुझे मेरी बनारस वाली बुआ ने फ़ोन करके बोला कि कोई अगर मुझसे पूछे कि कहा से हू तो मै दिल्ली बोल दू... :) मैने तो कभी नही माना.. उल्टा रिक्शे/आटो मे जब भी बैठता हू.. पूछ लेता हू कहा से हो.. कई बार हिचक के साथ सब बोल देते है कि यूपी से नही तो बिहार से.. बस फ़िर थोडी देर बाते हो जाती है..

    द्विवेदी जी ने जो बिहार वाली बात कही, उसी को मेरी बात भी समझो.. :)

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  5. न! बहस नहीं।
    बिहारी होना - घृणा का आधार है अगर दूसरों के लिए - तो स्वयं के लिए गर्व का भी।
    यह 'हेट' मनोविज्ञान वहीं मुखरित होता है जहाँ ख़ुद के लिए ख़तरा महसूस करने लगते हैं लोग।
    यही ख़तरा हिन्दुस्तानी के लिए भी है - बाहर के बहुत से यूरोपीय देशों में। यही सरदार या सिख के लिए भी है। यही अद्भुत व्यवहार छत्तिसगढ़ी -बिलासपुरिया मज़दूर के लिए भी है और यही हेट-फ़ैक्टर महाराष्ट्र में भी जागा है। तो यह गर्व की बात है, मेरी नज़र में तो।
    जैसे एक ईमानदार किंतु कर्मठ अफ़सर,सहकर्मी अफ़सर और उच्चाधिकारी वर्ग के भी लोगों की ईर्ष्या, भय और धीरे-धीरे अस्पृश्यता और साज़िशों का शिकार बनता है, वही है यहाँ भी। अस्मिता से समझौता नहीं - अपनी क्वालिटी गिरने नहीं देना।
    और सहज रहना, न अपने कहीं का होने पर हीन-भावना, न अभिमान!
    सहज-योग!

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  6. ये सब दिल की बाते हैं जो आर्थिक स्थिति से प्रभावित होती रहती हैं .... वैसे सब भारतीय हो जाएँ तो कितना अच्छा हो ...

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  7. बहुत-बहुत बधाई!
    आपकी चर्चा तो यहाँ भी है-
    http://mayankkhatima.blogspot.com/2010/07/2010.html

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  8. आपके अनुभवों के बारे में जान कर और आपके विचार जान कर अच्छा लगा.

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  9. परसांत बाबू, आपका बात का जबाब देने का जरूरत नहीं है… काहे कि हम पहिले हीं एगो पोस्ट लिख चुके हैं ई बिसय पर “मन का टीस”… बस ओही को हमरा कमेंट बुझिए...
    http://chalaabihari.blogspot.com/2010/05/blog-post.html
    हमसे एगो बहिन कहीं कि आप हिंदी में लिखिए... हम बोले कि ई भासा त हमरा आत्मा है, हमरे ऊपर कर्जा है, जिसका हम लिखकर किस्त सधा रहे हैं...

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  10. पी.डी. दिल्ली में मैं जहाँ रहती हूँ, वो जगह भी मुनीरका जैसी है- मुखर्जी नगर आई.ए.एस. हब कह सकते हैं इसे... बहुत सी अच्छी कोचिंग हैं यहाँ पर और मेरे मोहल्ले गाँधी विहार में बहुत यू.पी.-बिहारी रहते हैं... पर बात यहाँ भी वही है... बिहारी होना एक गाली है... मैं इस पर एक पोस्ट लिखकर ड्राफ्ट में रख चुकी हूँ... बहुत दिन हुए, पब्लिश नहीं किया...लेकिन सबसे अच्छी बात- यहाँ बिहारी सब्जी वाले भी हैं और आई.ए.एस्. की तैयारी करेने वाले भी,,,पर कोई अपनी पहचान छुपाता नहीं.बल्कि लोकल्स को चिढाने के लिए जोर-जोर से बिहारी भाषा (भोजपुरी-हिन्दी) बोलते हैं. यहाँ मामला फिफ्टी-फिफ्टी है... सारे मकान-मालिक लोकल और किरायेदार आउट साइडर ... कुछ भी पंगा होने पर सारे किरायेदार एक हो जाते हैं... मजेदार लगता है ये सब.

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