Sunday, July 04, 2010

तबे एकला चलो रे।

यह लड़ाई किससे है? कैसा है यह अंतर्द्वंद? लग रहा है जैसे हारी हुई बाजी को सजा रहा हूँ फिर से हारने के लिए । अंतर्द्वंद में कोई भी मैच टाई नहीं होता है, खुद ही हारता भी हूँ और खुद ही जीतता भी! अक्सर हम जीती हुई बाजी को याद करने के बजाये हारी हुई बाजी को याद करते हैं और उसकी कसक मन के किन्ही परतों के नीचे दबी हुई सी होती है । वह हमारे मन को कुरेदती है । कई दफे उससे कुछ रिसने का आभास भी होता है जो अंदर तक तकलीफ पहुंचाती है । खुद को ही तर्कों से हरा कर या जीता कर कुछ भी हाशिल होता नहीं दिखता है । किसी लक्ष्य के पीछे भागना(अगर वह हो तो) एक तरह कि मृग-मरीचिका जैसी लगने लगती है.. जिससे कुछ भी हाथ नहीं आता ।
यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।

एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!
यदि केऊ कथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि सबाई थाके मुख फिराय, सबाई करे भय-
तबे परान खुले
ओ, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे!

यदि सबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि गहन पथे जाबार काले केऊ फिरे न जाय-
तबे पथेर काँटा
ओ, तुई रक्तमाला चरन तले एकला दलो रे!

यदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा-
यदि झड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे-
तबे वज्रानले
आपुन बुकेर पांजर जालियेनिये एकला जलो रे!

बाद में जोड़ा गया :
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जब वे तुम्हारी पुकार ना सुनें,
एकला चलो रे!

जब कोई तुमसे कुछ ना कहे, अरे अभागे,
जब सब तुमसे मुंह फेर लें सब भयभीत हों --
तब अपने अन्दर झांको
अरे अपने मुंह से अपनी बात एकला बोलो रे.

जब सब दूर चले जाएँ, अरे अभागे,
जब कंटीले पथ पर कोई तुम्हारा साथ ना दे --
तब अपने पथ पर
काँटों को अकेले ही पद-दलित करो रे.

जब कोई प्रकाश न करे, अरे अभागे,
जब रात काली और तूफानी हो --
तब अपने ह्रदय की पीड़ा के आवेश में
अकेले जलो रे.
एकला चलो! एकला चलो! एकला चलो रे!


11 comments:

  1. धन्यवाद अछ्छी प्रस्तुती


    ->सुप्रसिद्ध साहित्यकार और ब्लागर गिरीश पंकज जी के साक्षात्कार का आखिरी भाग पढने के लिऐ यहाँ क्लिक करेँ ->>>>

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  2. एकला चलो रे! .....


    आभार इस प्रस्तुति का.

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  3. गिरते हैं शहसवार ही
    वो क्या उठेंगे जो कभी चले ही नहीं.
    सहमत.

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  4. यह लड़ाई किससे है? कैसा है यह अंतर्द्वंद? लग रहा है जैसे हारी हुई बाजी को सजा रहा हूँ...

    एकला चलो रे!

    Kabhi kabhi aisa hi lagta hai...shayad hum kamjor ho jate hain unn moments mein...ya fir apnon se dukhi...

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  5. विचार अच्छे लगे दोस्त.. एकला चलो रे पहली बार पढ़ा..

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  6. एकला चलो रे... पहली बार पढ़ा बहुत आभार ..

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  7. ऐकला चोलो रे पूरा कभी नहीं पढा था।
    इसे पढवाने के लिए आभार!
    जीवन एक पाठशाला है जिसमें व्यक्ति अनुभवों से शिक्षा ग्रहण करता है।

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  8. हम भी यही सोचते हैं, "तबे एकला चलो रे" अगर इसका अर्थ हो तो वो भी जरुर दें, गीत बहुत बार सुना है अच्छा भी लगता है पर प्रवाह में बह जाते हैं, अर्थ समझने की कोशिश नहीं की, क्योंकि मन कहीं बह जाता है।

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  9. मैंने इसका हिंदी में किया गया अनुवाद अभी इसी पोस्ट में अपडेट किया है..

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  10. समस्या तब होती है जब जीतने की क्षमता न हो और हारने का मन । उहापोह बनी रहती है, त्रिशंकु जैसी स्थिति बन जाती है । मैं इन स्थितियों में पूर्णरूप से हार मानने के बाद जो खंडहर शेष रहते हैं, उनसे मकान बनाना पुनः प्रारम्भ करता हूँ ।

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  11. अच्छा विचार है, मगर अकेला होना अपने आप में तब तक है जब तक हम क्षुद्र मानवीय सीमाओं में अपने को निम्नतर अनुभूतियों से बाँधे हुए हैं।
    एक बार यह कारा टूटे तो यह शून्य ही अनन्त है।
    विराट होती है नज़र, तब नज़र आता है कि मैं भी मैं, तुम भी मैं; यह भी मैं - वह भी मैं।
    "ज्योतिरेव ज्योतिषाम् ज्योतिरेकं"
    मैं ही ख़ुदा, मैं ही बन्दा
    मैं ही रावण - मैं ही राम
    मैं अकेला न कभी था, न हूँ न रहूँगा।
    जब मुझे लगेगा कि मैं अकेला हूँ - तो
    "एकोऽहं बहुस्यामि"
    और तब संसार सजेगा -लीलाएँ होंगी।
    बहुत आभार प्रेरक और विचारोत्तेजक पोस्ट के लिए।

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