Tuesday, June 29, 2010

"परती : परिकथा" से लिया गया - भाग २

जहाँ छूटा था, वहां से आगे :

छोटी ने करवट लेकर कहा--माँ ! चुपचाप सो रहो । बीस कोस भी तो नहीं गयी होगी । पचास कोस पर तो मैं उसका झोंटा धरकर घसीटती ला सकती हूँ ।

बड़ी बोली--सौ कोस तक मेरा बेड़ी बान, कड़ी-छान गुन चलता है । भागने दो, कहाँ जायेगी भागकर ?

माँ बोली - अरे आज ही तो गुन-मंतर देखूंगी तुम दोनों का । तुम्हे पाता है, कोसी-पुतोहिया ने गौर में दीप जला दिया ? तुम्हारे जादू का असर उस पर अब नहीं होगा ।

--एय ? क्या-आ-आ ? दोनों बहनें गुणमन्ती-जोगमन्ती हडबडाकर उठीं । अब सुनिए कि कैसा भौचाल हुआ है । तीनो--माँ-बेटियां--अपनी-अपनी गुन की डिबिया लेकर निकलीं ।

छोटी ने अपनी डिबिया का ढक्कन खला--भरी दोपहरी में आठ-आठ अमावस्या की रातों का अंधकार छा गया ।

बड़ी ने अपनी अंगूठी के नगीने में बन्द आंधी-पानी को छोड़ा ।

--उधर कोसी मैया बेतहासा भागी जा रही हैं । रास्ते की नदियों को, धाराओं को, छोटे-बड़े नालों को, बालू से भरकर पार होती, फिर उलटकर बबूल, झरबेर, खैर, साँहुड़, पनियाला, तिनकटिया आदि कंटीले कुकाठों से घात-बाट बन्द करती छिनमताही भागी जा रही है । आँ-आँ-रे...ए...

थर-थर कांपे धरती मैया, रोये जी आकास:
घड़ी-घड़ी पर मूर्छा लागे, बेर-बेर पियास:
घाट ना सूझे, बाट ना सूझे, सोझे न अप्पन हाथ:.....


जारी...

भाग एक के लिए यहाँ

4 comments:

  1. इत्ते से के लिए नई पोस्ट.. आगे पीछे अडजस्ट कर लेते... :)

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  2. जारी रखो, वैसे कल तो किताब आ ही रही है अपनी :)

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