Monday, February 08, 2010

दिल में बैठा एक डर

सुबह अमूमन देर से उठता हूं, दफ़्तर का समय भी कुछ उसी समय होता है.. मगर आज जल्दी नींद खुल गई.. सुबह के दैनिक क्रिया से निवृत होकर अपना मेल बाक्स चेक कर ही रहा था कि उधर से मेरे मित्र का फोन आया.. बेहद हड़बड़ी में था.. हेलो बोले बिना बोला "जल्दी से मेरे लिये पटना का एक फ्लाईट बुक करा दो".. उसका इतना कहना था और मैं समझ गया कि मसला क्या है.. मगर फिर भी प्रतिक्रिया में मेरे मुंह से अचानक निकल गया, "पटना!! क्यों क्या हुआ?" उधर से बस इतनी आवाज आई "पापा!!" और फफकर रोने लगा.. दो-तीन सेकेण्ड बाद फोन काट दिया.. मिनट भर किंकर्तव्यविमूढ़ जैसी स्थिति में रहने के बाद मैंने नेट पर टिकट चेक किया और नेट पर टिकट मिलने में देर लगने कि स्थिति जान अपने दूसरे मित्र को फोन किया, कि तुम टिकट बुक कराओ और मैं उसे लेने घर से निकलता हूं..

दो मिनट के भीतर मैं घर से बाहर अपने बाईक पर था.. बाईक चलाना मेरे शौक में शामिल होते हुये भी चलाने में दिल नहीं लग रहा था और इसी कारण से मैंने अपने घर से अशोक पिलर तक की दूरी नापने में अभी तक का सबसे अधिक समय लगा.. बहुत संभल कर और धीरे-धीरे चला रहा था.. रास्ते में दो-चार आंसू भी ढलक गये..

बाद में जब अपने मित्र को फ्लाईट पर चढ़ा कर वापस घर आया तब जाकर यह अहसास हुआ कि दुःख से अधिक मन में कहीं डर बैठा था.. कभी ना कभी मेरे साथ भी यही होने वाला है जैसा डर.. अपने आस पास खुद से बड़े उम्र के लोगों में ऐसी स्थिति पहले भी देखी है, यहां तक कि अपने पापा-मम्मी के साथ भी.. मगर अपने बेहद अभिन्न मित्र के साथ भी ऐसा ही होने पर मन बेहद टूटा सा महसूस हो रहा है..

बार-बार सोच रहा हूं, "क्या इसी के लिये हमें घर से बाहर निकलना पड़ता है? जिसे लोग जीवन कि उन्नति समझते हैं वो ऐसे कीमत पर भी मिले तो भी क्या हम सफल होते हैं?" अभी मेरे मन में श्मशान वैराग्य जैसा कुछ भी नहीं है.. थोड़े से आक्रोश के साथ थोड़ी सी लज्जा भी है मन में इस जीवन के प्रति.. अपनो के लिये कुछ ना कर पाने कि छटपटाहट भी है साथ में..

लज्जित हूं अपने मन में आयी एक बात को लेकर.. मन में एक बात आयी थी कि कुछ और बेहतर स्थिति में आने पर पापा-मम्मी को लेकर अपने पास आ जाऊंगा.. फिर मुझे इसमें अपना स्वार्थ दिखने लगा.. जिस जगह उन्होंने अपना पूरा जीवन गुजार दिया, उसे छोड़ कर आने में क्या उन्हें कष्ट नहीं होगा? और मैं सब छोड़ कर वापस जाने कि स्थिति में हूं नहीं..

अजीब सा कश-म-कश चल रहा है मन में.. जीवन कि विडंबनायें भी अजीब होती हैं..

चलते-चलते : वैसे यह अजीब शब्द भी कुछ अजीब नहीं होते हैं!! कुछ समझ में ना आये तो वह अजीब.. कुछ लीक से हटकर घटे तो वह अजीब.. नई चीज अगर समझ में ना आये तो वह अजीब.. यूं तो इस संसार में हर कोई किसी ना किसी मायने में अजीब ही होते हैं..

अभी एक दो दिन पहले कि ही बात है.. हम चार मित्र बैठकर यूं ही बातें कर रहे थे.. मेरे मित्र ने बातों ही बातों में कहा कि उसके गांव के लोगों का मानना है कि अगर इस गांव में किसी एक कि मौत होती है तो एक के बाद एक लगातार चार और लोगों कि भी मृत्यु होती ही है और अभी तक दो लोगों कि मृत्यु हो चुकी है.. हमने मजाक ही मजाक में कहा कि हम सभी मिलकर तुझे ही मार देते हैं.. आज जब उसे विदा करने को फिर से हम चारों मित्र एयरपोर्ट पर थे तब वही बात उठी, और हमारा कहना था कि अब अगर ऐसे हालात हों तो इस अंधविश्वास पर हमारे मित्र का विश्वास और भी बढ़ जायेगा, और एक तरह से यह भी और दो का इंतजार करने लगेगा.. जब हम ये बातें कर रहे थे तब हमारा मित्र कहीं और गया हुआ था..

14 comments:

  1. इस समय मन में एक गहरा सन्नाटा सा है...

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  2. पी डी ,मनुष्य की भावनाओं का भी एक उम्र सापेक्ष विकास होता है -आप की सोच बड़ी जेनुइन है मगर आपके वश में बहुत कुछ नहीं है .आपकी यह सोच ही आपको सिंसियर बनाती है .
    बस समय के प्रवाह के साथ आगे बढ़ते जाईये -आप निमित्त मात्र हैं बस !

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  3. अब क्‍या कहें? यही है विकास। न जाने कहाँ भाग रहे हैं हम? अपने तो पीछे छूट गए। जब लड़खड़ाकर पीछे छूटा हुआ कोई अपना गिर जाता है तब फिर भागते हैं।

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  4. प्रशांत!
    आप का जैसा नाम है वैसे शांत हो नहीं। अंदर बहुत उथल-पुथल है। इस दुनिया में घटनाएँ घटती रहती हैं। खुशी के अवसर भी आते हैं और दुख के भी। मनुष्य को दोनों को ही निभाना पड़ता है। अवसाद आवश्यक है। मैं भी आज शाम से बेहद अवसाद में था। घर पहुँच कर अवसाद कुछ कम हुआ है। लेकिन अभी गया नहीं। पर यह चला जाएगा। कल की सुबह फिर एक नयी सुबह होगी।

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  5. हर रात की सुबह होती है. और सुबह की रात होती है. इस चक्कर में उलझे हैं.

    रामराम.

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  6. बहुत संवेदनशील रचना। ऐसी स्थिति से गुज़र चुका हूँ। अपने गांव-घर छोड़कर परदेस में ज़्यादा दिनों तक रहने को राज़ी नहीं हुए। और हम उनके अंतिम समय में उनके साथ न रह पाये।

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  7. बहुत संवेदनशील रचना। ऐसी स्थिति से गुज़र चुका हूँ। अपने गांव-घर छोड़कर परदेस में ज़्यादा दिनों तक रहने को राज़ी नहीं हुए। और हम उनके अंतिम समय में उनके साथ न रह पाये।

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  8. प्रशांत भाई, ज्यादा न सोचिये.. मृत्यु विषयक मेरी एक पोस्ट "न त्वम शोचुतिमर्हसि" पर ज्ञान जी ने जो टिप्पणी की थी, वही आज आपको देना चाहूँगा..

    मा शुचः

    रोटी और पैसों के अतिरिक्त भी तरक्की और महात्वाकांक्षा जैसी कुछ कमीनी जरूरतें हैं, जिन्हें जीते जी निभाना पड़ता है.. मन लाख चाहे, लेकिन हर समय माँ के आँचल में तो नहीं रहा जा सकता न..

    अस्तु, स्थितिप्रज्ञ की भाँति अपने कर्मयोग की साधना करते रहिये...

    मित्र के लिये हार्दिक संवेदना.. जानता हूँ, कि यह संवेदना किसी काम नहीं आ सकती, लेकिन सामाजिक औपचारिकता के लिये ही सही..

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  9. यही जीवन है..इतना विचलित नहीं होते..जब जब जो जो होता है, तब तब वो वो होता है. मालूम है न तुम्हें, मैं तो माँ के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाया था..क्या जीवन रुका?

    कभी नहीं..बस!! जो लिखा है सो हो कर रहेगा फिर आज क्यूँ परेशान होते हो, बालक!

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  10. कार्तिकेय की टिपण्णी के बाद कुछ कहने को नहीं है .पी डी.....

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  11. ऐसी घटना से मन में अस्थायी वैराग्य आना स्वाभाविक ही है.

    यह शायद मध्यमवर्ग की विडम्बना है. घर खडा रखने के लिए घर से दूर जाना ही पड़ता है - इतना दूर कि रोज़ आया जाया भी न सके. आप तो फिर भी देश में हैं, वीसा आदि का झंझट नहीं है. बाहर रहने वालों की तो और भी आफत है.

    एक के बाद चार और लोगों के जाने की बात ज्योतिष में पंचक योग से जुड़ी है जिसका ताल्लुक समय से है स्थान से नहीं.

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  12. samir sir se puri tarah sehmat hoon.

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