मन में ठान लिया था कि अब नहीं सोचूंगा, बहुत सोच लिये और सोच-सोच कर दुखी भी हो लिये.. अब खुश रहना चाहता हूं.. वैसे भी जीवन ने यही पाठ पढ़ाया है कि जिसके लिये हम सोचते हैं और दुखी होते हैं उसके लिये हमारे प्रति उन सोच, प्यार, आदर, सम्मान का कोई मोल नहीं होता है.. और जिसे हम बस यूं ही लेकर चलते हैं तो बाद में पाते हैं कि खजाना उधर ही छुपा हुआ है.. अधिकांश अनुभव तो ऐसे ही हैं अपने..
जिंदगी फिर एक नई करवट लेने का प्रयत्न कर रही है.. पता नहीं इस बार ऊंट किस करवट बैठेगा? बचपन से इस बात को घुट्टी में घोंट के पिला दिया गया है कि परिवर्तन ही संसार का अकाट्य सत्य है, और ये मन है कि जब तब इस बात को मानने से इंकार करने लगा तब जिंदगी ने भी वापस वही पाठ पढ़ाया.. पता नहीं दूसरे किस प्रकार के होते हैं, मैं तो किसी भी परिवर्तन से बहुत घबराता हूं.. चाहे बात रिश्तों में हुये परिवर्तन की हो या फिर किसी साफ्टवेयर का नया अपग्रेड वर्सन ही उपयोग में लाना हो.. हां, नई तकनीक को आसानी से स्वीकार करना व्यसायिक मजबूरियों ने सीखा दिया है, सो अब यहाँ सब आसान लगने लगा है.. नहीं तो वह भी आसानी से बदलना नहीं चाहता था मैं.. देखता हूँ कि जिंदगी कब सिखाती है परिवर्तन को आसानी से स्वीकार करना?
हां, मैं स्पष्ट रूप से स्वीकार करता हूं कि मुझे परिवर्तन अधिक नहीं सुहाता..
अभी घर जाने की कवायद चल रही है.. दफ़्तर में छुट्टियां लेने से लेकर कुछ खरीददारी करने तक.. हर बार घर जाने से पहले सोचता हूं कि मां से खूब बातें करूंगा.. जो बातें फोन पर नहीं कर पाता हूं, या फिर जिसे फोन पर कहने में हिचक होती है, वो सब कह डालूँगा.. मगर ये हो नहीं हो पाता है.. किसी ना किसी प्रकार कि व्यस्तता घेर लेती है.. फिर भी अगर समय निकलता है और मम्मी के गोद में सर रख कर चैन से लेटा होता हूं तब पाता हूं कि सामने वह बात कहना और भी मुश्किल है.. फोन अधिक आसान कर देता है कुछ भी कहना.. कई बाते ये सोच कर भी नहीं कहता हूँ कि शायद कह दूं तो वे यह सोच कर परेशान होंगे कि बेटा उदास है या फिर परेशान है..
छः साल बाद होली पर घर में रहूंगा.. मुझसे अधिक उत्साहित घर के लोग हैं.. एक तरह से इंतजार किया जा रहा है मेरा वहां..
फिलहाल तो छाया गांगुली जी का गाया एक गीत सुन रहा हूं.. जिसके बोल हैं,
"जब फागुन रंग झमकते हों,
तब देख बहारें होरी की..
परियों के रंग दमकते हों,
जब शीशे जाम झलकते हों..
महबूब नशे में छकते हों..
तब देख बहारें होरी की.."
अगर मौका लगा तो अगले पोस्ट में इसे पोडकास्ट करता हूँ.. :)
चित्र गूगल से सर्च करके लिया गया है. जिस साईट से लिया गया है वहाँ कापीराईट का कोई T&C मुझे नहीं दिखा. अगर किसी को आपत्ति हो तो बताये, आपत्ति जायज होगी तो चित्र हटा लिया जायेगा.
tum holi par ghar jaa rahe ho.. or main is saal bhi nahi jaa rahaa..
ReplyDeletephitur samaj nahi aayaa... he kyaa?
हां, मैं स्पष्ट रूप से स्वीकार करता हूं कि मुझे परिवर्तन अधिक नहीं सुहाता..
ReplyDeleteबहुत स्पष्टवादी होना भी सही नहीं है।
और जो बातें आपने कहीं हैं मेरे मन से लेकर दिल तक के तार झनझना दिये हैं, जो घर से दूर रहते हैं, वो ही केवल इन भावनाओं को जान सकते हैं।
फ़ागुन पर घर जाने की बहुत बहुत बधाई आपको, जितने समय घर पर रहें परिवार के साथ रहें और प्यार बांटे।
और फ़ागुन की सारारारारा..... भांग घोटने के बाद बधाई...
@ रंजन जी - अभी तक इधर ही हैं क्या?? और रही बात "फितूर" कि तो मेरे मित्र अक्सर मेरे इस टाइप के पोस्ट को मेरे दिमाग का फितूर कहते हैं.. सो उसे ही शीर्षक बना दिया.. :)
ReplyDelete@ विवेक जी - कल ही एक मित्र से बात हो रही थी.. मैंने अपने दूसरे मित्र(वो तमिलनाडु का ही रहने वाला है) के बारे में बताया कि वह नौस्टैल्जिया को महसूस नहीं कर पता है.. इस पर मेरी मित्र का कहना था कि जो घर से दूर रह कर कभी नौस्टैल्जिक हुए हों, वही नौस्टैल्जिया का सही मतलब समझ पाते हैं.. नहीं तो दूसरों के लिए ये भी एक बहुत आम शब्द हैं..
चलिये, अच्छा है होली पर घर हो आओगे तो मन बदलेगा, अच्छा लगेगा.
ReplyDeleteखूब मजे करो होली में..शुभकामनाएँ.
यह बात तो सही है....परिवर्तन से तो मुझे भी डर लगता है.... पर यह तो नियम है.... बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट....
ReplyDeleteक्या बात कह रहे हो? सेम हीयर!!
ReplyDeleteन जाने कबसे अपना सेल नही बदला है..अब नया लूगा, फ़िर हाथ सेट करने पडेगे...अपने आस पास की चीज़ो को भी इधर उधर नही करता हू क्यूकि फ़िर मुझे ही याद नही रहेगा... :)
कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर जाने मे हमेशा डर लगता है...
ये अच्छा है, घर जा रहे हो...घूम कर आओ...और काफ़ी सेन्टी इन्सान लगते हो..बाम्बे मे हो तो मिलते है...जगजीत सिह का एक कान्सर्ट सन्डे को है..अगर यहा हो तो चलते है :) घर की गुजिया की फोटो जरूर लगाना :)
achha hai bhai, holi mein aap ghar jaa rahe ho....
ReplyDeleteaur waise parivartan kuch mujhe bhi jyada achha nahi lagta ;)
आप को अच्छा लगे न लगे, परिवर्तन नियम है, वही गति है, वही समय भी, वही जीवन भी।
ReplyDeleteहर बार घर जाने से पहले सोचता हूं कि मां से खूब बातें करूंगा.. जो बातें फोन पर नहीं कर पाता हूं, या फिर जिसे फोन पर कहने में हिचक होती है, वो सब कह डालूँगा.. मगर ये हो नहीं हो पाता है..
ReplyDeleteप्यारे प्रशांत, तुम्हारे उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि तुम्हारे जीवन में कोई द्विपाद सुंदरी का आगमन हो चुका है. ताऊ की जिंदगी में मे भी जब ताई का अगमन हुआ था अब ऐसे ही मां से बाते करने की इच्छा होती थी.
बधाई हो, कुछ सलाह चाहिये तो ताऊ का कंधा हमेशा हजिर ही समझना, अपना ही कंधा है.:)
रामराम.
पीडी जी,
ReplyDeleteतुम छह साल मे होली पर घर जा रहे हो,
इधर मैं सोच रहा हूं कि होली पर घर से बाहर रहा जाये. कहीं बाहर, हिमालय की तरफ.
सोच-सोच कर तो दुख ही होता है जी
ReplyDeleteपरिवर्तन भी जरूरी है, जो परिवर्तन होता है, जिसके बिना गुजारा नहीं या जो परिवर्तन होकर ही रहेगा उसे थामने, रोकने की कोशिश करना बेकार है। अपने जज्बात कागज पर लिखते जाइये और मां के सामने रख दीजिये, सामने होने पर नही कह पाते हो तो। अब मां से क्या छुपा पाओगे।
प्रणाम स्वीकार करें
परिवर्तन अगर मनोनुकूल हो तो जरूर सुहाता है वरना बेमानी लगता है...
ReplyDeleteहोली में तुम्हारे इंतज़ार के साथ साथ तुम्हारे खाने की पसंद की लिस्ट भी तैयार हो रही होगी...जम कर एन्जॉय करो होली....शुभकामनाएं
बात तो सच्ची है मनुष्य का स्वभाव ही है परिवर्तन को स्वीकार न कर पाना पर यह उसके वश में नहीं की वो परिवर्तन रोक सके संसार में सब कुछ परिवर्तनशील है ......आप खुशनसीब है आपनो के पास जारहे है !! अच्छी पोस्ट ! होली की शुभकामनाए
ReplyDeletehttp://kavyamanjusha.blogspot.com/
बहुत गलत बात है जी कि आप छ: साल से होली पर घर नहीं गए हैं। इस बार जाओं तो दिल की बात माँ को बताकर आओ। माँ के पास सभी बातों का हल होता है। उसकी गोद जन्नत होती है। होली की शुभकामनाएं।
ReplyDeleteनहीं सोचने का निश्चय कर अच्छा सोचते हो :) होली में घर जा रहे हो बता केकाहे जला रहे हो...
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