Tuesday, August 25, 2009

कमीने इफेक्ट, "वैसे मैं भी फ को फ बोलता हूं"


जिधर देखो उधर ही एक ना एक पोस्ट या आर्टिकल "कमीने" सिनेमा का पड़ा हुआ है आजकल.. जैसे यह आज के फैशन का एक हिस्सा बन गया है.. देख भले ली हो मगर यदी कुछ लिखा नहीं तो छीछालेदर होना ब्लौगजगत में आवश्यक है.. और हम तो ऐसा चाहते हैं नहीं, सो चलते चलते हम भी इस धर्म को निबाह ही जाते हैं..

यहां कई गुणीजन विशाल भारद्वाज को गरिया चुके हैं, कुछ आहत हैं, तो वहीं कुछ लोग इसे शानदार कमर्सियल सिनेमा बता कर विशाल भारद्वाज को कुछ नया करने की बधाई दे चुके हैं.. गरियाने वाले अधिकतर लोग इस सिनेमा कि तुलना ओमकारा और मक़बूल से कर रहे हैं, वहीं कुछ लोग इसके अंत में हुई अजिबोगरीब हिंसा को टेरंटिनो के सिनेमा की नकल बता रहे हैं.. वहीं कुछ लोग इसके बहाने टेरंटिनो की क्लासिक किलिंग को भी दाद दे रहे हैं.. अब जबकी लगभग सभी कुछ लिखा ही जा चुका है तो मैं क्या लिखूं? ठीक है, मैं आपलोगों को परदे के बाहर का सिनेमा दिखाता हूं..

21 अगस्त, शुक्रवार रात 9 बजकर 10 मिनट.. दोस्तों का फोन आया कि कहां हो तुम, हम सिनेमा हॉल के बाहर खड़े तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.. "आखिर इंतजार करें भी क्यों ना? टिकट मेरे ही पास जो था.. :)" मैं चेन्नई के सत्यम सिनेमा के बाईक पार्किंग में बाईक पार्क करते हुये कहा कि बस आ रहा हूं दो मिनट में..

चेन्नई में दो-तीन जगह ही ऐसी है जहां खूबसूरत लड़कियां देखने को मिलती हैं, उसमें से सत्यम मल्टीप्लेक्स भी एक है.. उस पर भी स्वाईन फ्लू(देखा, मैंने फ को फ बोला ना? :)) का हमला बोला जा चुका था.. बहुत सारे लोग मुंह पर कुछ ना कुछ बांधकर घूम रहे थे.. ऐसे में लड़कियों के लिये तो और भी आसानी थी, उनके पास दुपट्टा या स्कार्फ तो हमेशा ही होता है.. आगे इस पर और कुछ ना लिखा जा सकेगा मुझसे.. सुबुक.. :(

अंदर जाते समय चेकिंग हुई, वो चेकिंग भी कुछ ऐसी कि अगर कोई कुछ ले जाना चाहे तो आराम से ले जा सकता है.. जिस स्क्रीन में कमीने चल रही थी उसके अंदर जाकर पता चला की हमारे पांच टिकटों में से दो टिकट एक तरफ थी तो वहीं बाकी तीन टिकट उसी रो के बिलकुल अंत में.. अब सबसे किनारे वाला सीट हो तो देखने में दिक्कत आनी स्वभाविक है.. सो मैंने वह सीट पकड़ी जहां से सबसे अच्छे से सिनेमा दिख सकती है.. हमारे मित्र आफ़्रोज़ मुझसे कहते रह गये कि यहां मैं बैठूंगा, मगर मैंने उन्हें यह कह कर पटाया की मान लो मेरे बगल में कोई लड़की आकर बैठती है तो आज तुम्हें एक भाभी मिल जायेगी.. उस समय तो वह मान गया, मगर जब मेरे बगल में एक लड़का आकर बैठ गया तो उसने फिर जिद पकर ली.. तब मुझे धारा 377 की सहायता लेनी पड़ी.. ;)

खैर सिनेमा शुरू हुई और वह सीन भी आया जब शाहिद कपूर को कोकिन एक गिटार में मिलता है.. जैसे ही उसने कोकिन निकाला वैसे ही पीछे से एक लड़के की आवाज आई, "अरे ये तो सत्तू है.." उसके बगल में से किसी लड़की की आवाज आई, "नहीं यार! कोकिन है.." फिर दो-तीन लड़के-लड़कियों की आवाज आने लगी.. "ये सत्तू है.." "नहीं ये कोकिन है.." मैंने आगे से आवाज लगाई, "हां बेटा! सत्तू है तो लिट्टी बना कर खा ले ना?" मेरे बगल में बैठे आफ़्रोज़ ने मुझे केहुनी मारी और धीरे से फुसफुसा कर मुझे बोलने से मना किया.. फिर पीछे से आवाज आई, "बनाऊंगा, जरूर बनाऊंगा.. मगर तुझे नहीं बुलाऊंगा.." और फिर वे लोग और हम लोग, सभी हंसने लगे.. तब तक सिनेमा फिर से अपनी गती पकर चुका था और सभी उस गति के साथ लय ताल मिलाने लगे थे..

इंटरवल के समय मैं पॉपकार्न वाले काऊंटर के बगल में लगे पोस्टरों को देख रहा था.. तभी पीछे से किसी लड़की की आवाज आई, "एक्सक्यूज मी!!" मैंने बिना उसे देखे उसे जाने का रास्ता देते हुये मुस्कुराते हुये कहा, "सॉरी! आई कान्ट एक्सक्यूज.." फिर उसका चेहरा देखा तो अजीब तरह से मुझे देखते हुये वो काऊंटर के लाईन में लग गई और मैं फिर से पोस्टर को देखने लगा.. तभी फिर पीछे से किसी लड़के की आवाज आई, "एक्सक्यूज मी!!" मैंने उसे भी बिना देखे उसे जाने का रास्ता देते हुये मुस्कुराते हुये कहा, "सॉरी! आई कान्ट एक्सक्यूज.." वो लड़का हंसते हुये आगे बढ़ा और काऊंटर के लाईन मे लगते हुये बोला, "नाइस आन्सर.. आगे से मैं भी यही कहा करूंगा.." अबकी वह लड़की उसे अजीब तरीके से देखने लगी.. पक्के से सोच रही होगी कि सभी लड़के शायद ऐसे ही खिसके होते हैं.. ;)

सिनेमा खत्म हो चुकी थी.. मैं आफ़्रोज़ को अपने बाईक पर बिठाया और घर तक का रास्ता लगभग 10-12 किलोमीटर की दूरी 10-15 मिनट में पूरी की और जिसमें अधिकतम रफ़्तार 90 किलोमीटर प्रति घंटे कि थी.. रास्ते में मैं सोच रहा था कि मैं भी तो 'फ' को 'फ' ही बोलता हूं, तो इस बात को लेकर इतने चर्चे क्यों हैं.. बोलकर दिखाऊं क्या?

ठीक है, ठीक है.. बोल कर दिखाता हूं.. "मेरा नाम प्रफान्त प्रियदर्फी है.." ;)


चलते-चलते -
पहले ही इस सिनेमा की इतनी तारीफ मैंने सुन रखी थी कि मैं बस मस्ती करने के मूड में सिनेमा देखने गया था ना की कोई गूढ़ अर्थ ढ़ूंढ़ने.. ना ही ओमकारा या मक़बूल से इसकी तुलना करने में समय गंवाया.. बस मस्त होकर सिनेमा देखी और खूब इंज्वाय करके वापस आ गया.. अपना तो पैसा वसूल..

20 comments:

  1. वाह फ्राशांत भाई..आपकी फूरी फोस्ट फद (पढ़ ) ली....कमाल का लोजिक है ..

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  2. फ फ फ फिरन नहीं फिली न

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  3. कभी कभी सोचता हूँ इसी वर्णाक्षर ने ही लोगों का क्या बिगाडा है -जिसे देखो वही फ को फ बोलने लगता है -फच !

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  4. सही है गुरु "आई कान्ट एक्सक्यूज "....

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  5. चलो...एक्सक्यूज़्ड!! नाऊ ओके?

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  6. एफे एफे कैफे कैफे हो गए...

    कमीने की बात करो तो विशाल भटक गए इस बार... बाकी पोस्ट की बात करे तो बिलकुल रापचिक है..

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  7. पोफ्ट अच्छी लगी
    हमारे एक पडोसी हैं जो अपना नाम फतीफ (सतीश, सुई को फुई, सोनी को फोनी उच्चारण करते हैं

    प्रणाम फ्वीकार करें

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  8. हूँ.....फिल्म देख कर बात करती हूँ ..मस्ती के मूड में लग रहे हैं आप :-) आपको खुस देखकर खुसी हुई

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  9. mazaa aayaa.. par afsos tumhe koi nahi mila..:)

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  10. बहुत बढिया। अजय जी की बातों से पूरी सहमति।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  11. हमको तो इस बात की खुशी हो रही है कि प्रशान्त सत्यम सिनेमा जाते हैं जहां कि खूबसूरत कन्यायें भी आती हैं और प्रशान्त उनके दर्शन कर लेते हैं और पोस्ट भी लिख देते हैं!

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  12. फैसा वसूल हो गया,ये अच्छी बात है नहीं तो कुछ लोग तो फचड़ में पड़कर बौद्धिकता झाड़ने में लगे हैं िस फिल्म को लेकर। फूरी इमानगारी से लिखी है फोस्ट आपने।

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  13. @ फुरसतिया जी - इस रविवार को भी जाने का प्लान बन रहा है "क्विक गन मुर्गन" के लिये.. देखिये टिकट मिलता है या नहीं.. :)

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  14. एक दम झकास लिखा भाई तुमने तो...मुझे भी अंतिम फिल्म जो दोस्तों के साथ दिखी थी वो याद आ गयी.. तुम्हारा पोस्ट पढ़ कर..! वो कमेंट्स जो आगे और पीछे बैठे लोग करते है.. असली मज़ा तो उसी में आता है..अगर सिनेमा हॉल में फिल्म देखने जाते है तो..
    खैर..ये फिल्म "कमीने" मैंने भी अभी तक नहीं देखी है...आज ही हॉल में तो नहीं पर रूम पर जरुर देखूंगा..!!उर्जा से भरपुर पोस्ट..!!! मज़ा आ गया..!!!!!!

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  17. wah bhaiyya..maza aa gaya post padh ke

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  18. AAPKI POST PADH KAR JYAADA MAJA AAYA ....... BJAYE PICTURE DEKH KAR ..

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  19. हाहा! मैं इस बात को मानने वालो में से हूँ की कहानी में अक्सर दम नहीं होता, लेकिन कहानी सुनाने का अंदाज़ उसे बेमिसाल बनता है... अब जैसे की आपकी पोस्ट! कमीने मुझे पसंद नहीं आई, लेकिन आपकी पोस्ट पढ़ चेहरे पर मुस्कान अवश्य आई है!

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