अजय जी को धन्यवाद सहित..
यूं तो तमिलनाडु जुलाई सन 2004 में आया था.. मन में कई बातें लेकर जैसे वहां तमिल वालों के बीच रहने में दिक्कत होगी, भाषाओं के बीच के अंतर्द्वंद को झेलना होगा.. मगर यहां आकर ऐसा कुछ नहीं लगा क्योंकि सभी मित्र उत्तर भारत के ही थे.. इसका एक तरफ फायदा हुआ तो वहीं दूसरी ओर घाटा भी हुआ.. यहां की संस्कॄति को भी ठीक से समझ नहीं पाया..
सिनेमा के मामले में भी कुछ हद तक यही हाल रहा.. दक्षिण में होते हुए भी यहां के सिनेमा कल्चर से कोसों दूर रहा.. बस गीत संगीत सुनता था, वो भी इसलिये क्योंकि होस्टल में रहते हुए कभी-कभार यहां के गीत किसी कमरे से पूरी आवाज में सुनाई दे जाता था.. शुरूआत में कुछ तमिल गाने भी खूब सुने,जिनमें अधिकतर तमिल से हिंदी में डब किये हुए गीतों के ओरिजिनल साउंड ट्रैक होते थे या फिर धूम-धड़ाके वाले गीत.. अब चूंकि तमिल समझ में आती तो थी नहीं सो संगीत पर ही सब कुछ टिका हुआ था.. ये कुछ ऐसा ही है जैसे अधिकतर छोटे शहरों में रहने वाले भारतीय वेंगाब्वाज को सुनना पसंद करते हैं, मैं भी अपवाद नहीं हूं इनमें.. यहां आकर ये भी जाना कि हिमेश रेशमिया यहां के लोगों का सबसे प्रिय संगीतकार है, कुछ-कुछ उसकी वजह भी वही धूम धड़ाका है..
फिर जनवरी 2007 में चेन्नई आ गया अपने अंतिम सेमेस्टर के प्रोजेक्ट के लिये.. मेरे साथ मेरा मित्र शिवेन्द्र भी था.. यहां आकर भी यहां हम नहीं होते थे.. क्योंकि लगभग हर साप्ताहांत पर हम वापस वेल्लोर, अपने कॉलेज को निकल लेते थे और पूरे सप्ताह भर घर से ऑफिस और ऑफिस से घर मे ही निकल जाता था.. छः महीने फिर से ऐसे ही निकल गये, मगर इस बार के छः महीने में कुछ तमिल मित्र बनाने का मौका मिला.. वे लोग भी अपना अंतिम सेमेस्टर का प्रोजेक्ट पूरा करने के लिये यहां आये थे.. उनसे कुछ तमिल सिनेमा की जानकारी भी मिली.. मगर कुछ ऐसा नहीं जिसका उल्लेख किया जा सके..
दोबारा चेन्नई आना हुआ 2007 जून में, जब नौकरी ज्वाइन करने के लिये बुलाया गया.. संयोग कुछ ऐसा कि जिस दिन मुझे ज्वाइन करना था उसी दिन रजनीकांत का "शिवाजी द बॉस" रिलीज हो रही थी.. सुबह-सुबह जल्दी जाना था सो कुछ पता नहीं चला, मगर जहां हमारा स्वागत समारोह रखा गया था वहीं एक मित्र ने बताया कि वो इस सिनेमा को किसी भी हालत में जल्दी देखना चाहता था मगर अगले एक महीने तक की सभी टिकटें बुक हो चुकी है.. सो वो रात के 1 से 4 का शो देखकर सुबह सात बजे यहां पहुंच रहा है.. वो तारीख कभी नहीं भूल सकता हूं, आखिर पहली नौकरी का पहला दिन जो था.. :) वो 15 जून था.. उस दिन शाम में घर लौटते समय देखा कि घर के पास बहुत भीड़ थी, लोग लम्बी-लम्बी कतारों में खड़े थे.. थोड़ी देर बाद समझ में आया कि मेरे घर के ही पास में एक सिनेमा हॉल है और वहां शिवाजी द बॉस देखने के लिये इतनी भीड़ है.. मैंने सोचा कि ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ते रहेगी ये भीड़, मगर नहीं बिलकुल उतनी ही भीड़ अगले दो महीने से भी ज्यादा दिनों तक रही.. तब जाकर समझ में आया कि रजनीकांत क्या चीज है तमिलनाडु के लिये..
चेन्नई में रहते हुए कुछ दिन होने के बाद मुझे पता चला कि मेरे घर के पास ही एक फिल्म स्टूडियो भी है, जिसका नाम ए.वी.एम. स्टूडियो है.. अब जबकि चेन्नई में ही हूं तो एक बार मुझे शिवाजी द बॉस भी देखने का मौका मिला और तब जाकर पता चला कि ये सिनेमा भी ए.वी.एम. स्टूडियो में ही बना है.. कुछ तमिल मित्रों से छानबीन की तो ये भी पता चला कि दूर-दराज के देहाती इलाकों से आने वाले लोगो चेन्नई आते हैं वो एक बार जरूर ए.वी.एम. स्टूडियो देखने की चाहत रखते हैं..
यहां दक्षिण भारत आकर मैंने जो सबसे पहला सिनेमा देखा उसका नाम था "अनियन", जिसे बहुत बाद में हिंदी में भी डब करके लाया गया था "अपरिचित" के नाम से.. उस समय के मुताबिक मुझे वह एक अच्छी एक्शन फिल्म लगी थी.. मगर वही बाद में जब हिंदी में आया तब वही सिनेमा मैं हिंदी में एक बार भी पूरा नहीं देख पाया था.. दूसरी तमिल फिल्म जो मैंने देखी थी उसकी छाप मेरे मन पर अभी तक है.. उसका नाम था "गिली".. किसी भी फार्मूला सिनेमा में जो कुछ भी हो सकता है, वह सभी कुछ उसमें था.. एक अच्छी और मशालेदार कहानी.. शानदार एक्शन, जिसके अंत में तमिल स्टाइल का एक्शन भी देखने को मिला(अरे वही, एक घूसा लगने पर हवा में चार-पांच बार गोते खाना.. :)) शानदार गाने(उत्तर भारतियों को गिली के गाने अच्छे लगने के पीछे इसका तेज म्यूजिक है और साथ ही एक और कारण होता है वह है उदित नारायण की आवाज..) यहां तक कि अभी भी कोई मुझे कोई तमिल गाना गाने को कहता है तो इसी सिनेमा का एक गीत "अप्पड़ी पोड़े, पोड़े" ही मुंह से निकलता है.. मुझसे मेरे कई तमिल मित्र यह भी शिकायत कर चुके हैं कि तुम सभी उत्तर भारतीयों से कोई भी तमिल गीत गाने को कहो तो यही गीत गाते हो.. :) "गिली" की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि इसमें तेजी बहुत अधिक थी और डायरेक्शन पर बहुत अच्छे से काम किया गया था..
यहां लोगों कि दीवानगी सिनेमा के प्रति कुछ ऐसी है जैसे वे भगवान का ही एक रूप हों.. जैसा वो परदे पर अपने भगवान को ही देख रहें हों.. ऐसी दीवानगी हमें उत्तर भारत में शायद ही देखने को मिले..
aap sahi kah rahe hain ,maine bhi yah anubhav kiya hai.............
ReplyDeleteBahut badiya :)
ReplyDeleteयहाँ बंगलोर आके मैंने भी कन्नड़ गाने सुने, साउथ की फिल्में दूरदर्शन पर दिखाई जाती थी, सन्डे दोपहर को...वो देखती थी बचपन में.
ReplyDeleteगाना यहाँ एक ताजा सुना है...बाकी तो समझ नहीं आया झिनके मरीना छोड़ कर...पर tune बड़ी catchy है...पता नहीं मतलब क्या होता है इसका :D
जब भी काम के सिलसिले में कन्याकुमारी जाता हूँ होटल के टीवी में ज्यादातर तमिल चैनल ही आते ्है.. और मजेदार होता है डांस देखना.. ५०-१०० की फौज सामुहिक नाच रही होती है.. मस्त अंदाज में..
ReplyDeleteरजनी कान्त जी के प्रति लोगों की दीवानगी को मैंने भी बहुत करीब से देखा है...कभी मौका मिला तो सुनाऊँगा, बहुत रोचक किस्सा है...
ReplyDeleteनीरज