खैर, उन्होंने भी उत्तर देने कि औपचारिकता निभाते हुये तुरत कहा कि बेटे का काऊंसेलिंग है, उसी के लिये आ रहा हूं.. अगला प्रश्न भी तैयार था, "किस कॉलेज में?"
"कोई वी.आई.टी. करके कॉलेज है."
अब मुझे तो पता नहीं कि बांछें कहां होती है, मगर जहां भी होती है वो वहीं पर खिल गई.. आखिर खिलती भी क्यों ना? आखिर मेरे ही कॉलेज में वो अपने बेटे को प्रवेश दिलाने ले जा रहे थे.. अब जल्दी से मैंने उनका प्लान पूछा और उनका सारा प्लान जानने के बाद वो बांछे जैसे खिली थी वैसे ही मुरझा भी गई.. क्योंकि उनका सारा प्लान सप्ताह के कार्य दिवस के बीच ही था.. मतलब मुझे दिन भर फुरसत नहीं और अगर रात में भी जल्दी निकलना हो तो अपने बॉस को कई तरह के तर्क देना..
खैर अनूप जी(अरे वही फुरसतिया) अपने बेटे के साथ 2 जून को चेन्नई आये और अगले ही दिन वेल्लोर के लिये निकल लिये.. दिन भर वहां व्यस्त रहने के बाद शाम में वापस आये, उनके बेटे को वहां प्रवेश भी मिल गया और मेरे मुताबिक वी.आई.टी. के कुछ अच्छे ब्रांचों में से एक ब्रांच भी मिल गया..
अब 4 जून भी आ गया, जिस दिन उन्हें जाना था, और 4 कि शाम जल्दी ऑफिस से निकलने के चक्कर में 3 को देर रात तक काम भी करना पड़ा.. "देखिये फुरसतिया जी, केतना कष्ट उठवायें हैं आप हमको.. :)" अब 4 को दिन भर वह क्या किये यह आप उनसे ही जाकर पूछिये.. हम तो उसके आगे का हाल सुनाते हैं..
संयोग से मेरे गुरू जी(अरे वही, बॉस) को हैदराबाद जाना था सो वो जल्दी निकल लिये.. अब मेरे लिये शाम 7.30 मे ऑफिस से निकलना थोड़ा आसान हो गया.. हम निकलने से पहले पूछे, "कहां हैं आप और कहां मिलना है?"
"हां पीडी, तुम एक काम करो.. बॉम्बे हलवा सेंटर पर आ जाओ.." जैसे वो फोन पर बोलते हैं, बिलकुल उसी स्टाईल में लिखे हैं.. ;)
उन्होंने कहने को तो कह दिया कि बॉम्बे हलवा सेंटर पर आ जाओ, मगर हमें यह भी तो पता होना चाहिये कि यह है कहां? वैसे फुरसतिया जी इतना कांफिडेंट होकर बोके थे कि हमें लगा बहुत फेमस जगह होगी, जिसके बारे में फुरसतिया जी को पता है मगर मुझे चेन्नई में रहते हुये भी नहीं पता.. उनके बताने के तरीके से तो ऐसा लग रहा था कि वह हलवा सेंटर मेरे घर के नुक्कड़ पर ही है, और मैं ऐसे ही आ जाऊंगा.. :D अब हमने अपने कुछ उन दोस्तों से उसका पता पूछा जो चेन्नई में ही पैदा हुये हैं और यहीं मरने कि तमन्ना भी रखते हैं.. मगर नतिजा सिफ़र.. किसी को कुछ भी नहीं पता..
सो फिर से मैंने फोन लगाया, और पूछा कि यह है कहां? उन्होंने अपने मित्र से पूछ कर बताया कि ईगा थियेटर के पास है.. चलो कम से कम ईगा थियेटर को चेन्नई में रहने वाला लगभग हर उत्तर भारतीय जानता है, कारण यह चेन्नई के उन चंद सिनेमा हॉल में से है जहां हिंदी सिनेमा लगता है..
मैं सोचने लगा, अब वहां कैसे जाऊं? अगर सार्टकट से जाता हूं तो ट्रैफिक बहुत मिलेगा.. सो थोड़ा लौंग कट ही मारा जाये.. ट्रैफिक थोड़ा कम मिलेगा.. अब मैंने पूरा माऊंट रोड(चेन्नई का लाईफ लाईन कह सकते हैं जैसे दिल्ली में रिंग रोड) घूम कर पूनामल्ली हाई रोड पकड़ा और ईगा थियेटर पहूंचकर फिर से फोन लगाया.. अब पता चला कि हम जिस ओर से आ रहे हैं उसी तरफ ईगा थियेटर से 2-3 किलोमीटर आगे है.. हमने यू टर्न मारा और सीधा बॉम्बे हलवा हाऊस(असली नाम बॉम्बे हलवा सेंटर नहीं, बॉम्बे हलवा हाऊस है) जाकर ही माने..
वहां फुरसतिया जी भी मिल गये.. उनको प्रणाम करने लगे तो उन्होंने गले लगा लिया.. :) अब तक उन्हें बहुत देर हो चुकी थी, सो बॉम्बे हलवा हाऊस के अंदर ना जाकर सीधा चेन्नई सेंट्रल(अजी वही रेलवे स्टेशन) जाने का प्रोग्राम बन गया.. मैं बाईक से आगे-आगे, फुरसतिया जी अपने बेटे के साथ ऑटो पर पीछे-पीछे.. इतने में अचानक मूसलाधार वर्षा.. मुझे संभलने का बस इतना ही समय मिला कि मैं अपनी सारी जरूरी कागजात अपने बैग में रखे प्लास्टिक कि थैली में डाल सकूं.. बस मैंने सारा सामान उसके अंदर डाला और भींगते हुये पहूंचा स्टेशन..
चेन्नई सेंट्रल पर मुझे सबसे ज्यादा जो बात परेशान करती है वह ये कि बाईक कैसे पार्क करूं? थोड़ी सी जगह, उसी में सभी अपनी अपनी मोटरसाईकल लेकर जुटे रहते हैं.. मेरे साथ और बड़ी परेशानी यह होती है कि 150 किलो कि बड़ी गाड़ी उस छोटे से जगह में कैसे घुसाऊ? खैर जब तक मैं पार्क करता तब तक अनूप जी भी वहां पहूंच गये और मेरे लिये प्लेटफार्म टिकट भी ले लिये..
अब जाकर थोड़ा चैन से उनसे बाते हुई, और वहीं पर उनके बेटे से भी मिला.. बच्चा जिन कपड़ों में था, उन कपड़ों में जिस मात्रा में अधिकतम स्टाईल मारा जा सकता था, उतना स्टाईल में था.. :D वैसे मुझे इसमें कोई ऐतराज नहीं है.. बच्चा था बहुत ही शालीन(कम से कम अपने पापा के सामने..) :D सौमित्र नाम है अनूप जी के बेटे का..
हमलोग वहीं ईडली खाये.. फुरसतिया जी ने मुझे कानपुरिया मिठाई भी खिलाई.. उन्होंने पूरा डब्बा मेरे सामने खोल कर रख दिया और मैंने जैसे ही एक मिठाई ली वैसे ही उसे अंदर रखने लगे.. मगर हम भी ठहरे मैथिल आदमी(अब इतना भी नहीं समझे? अरे, मिथिलांचल के रहने वाले), तुरत उनसे डब्बा ले लिये.. अब किसी को साल भर के बाद मोतीचूर के लड्डू मिले तो भला वह क्यों और किसके लिये छोड़ेगा? :D
हमने अपने ब्लौग दुनिया में बहुत डायरियां पढ़ी है.. दुर्योधन की डायरी जो शिव भैया लिखते हैं, वो तो इतिहास बना ही रहा है.. खुद हमने भी एक लड़की कि डायरी लिख डाली थी.. जब इतनी डायरी लिखी-पढ़ी जा चुकी है तो फुरसतिया जी ने सोचा होगा कि पीडी को "एक नौकरानी कि डायरी" भी पढ़ा ही देते हैं.. उन्होंने मुझे दो किताबें भी भेंट की -
"एक नौकरानी कि डायरी"
"नेकी कर अखबार में डाल"
इसमें से "नेकी कर अखबार में डाल" के लेखक तो हमारे ब्लौग दुनिया में भी धमाल दिखाते ही रहते हैं.. अजी वही आलोक पुराणिक जी.. पिछले साल इनसे भी मिलने का सौभाग्य पंगेबाज जी और मैथिली जी के सौजन्य से मुझे प्राप्त हो चुका है..
4 कि शाम में जब मैं अनूप जी से मिलने को निकलने ही वाला था उसी समय शिव जी का फोन भी आया, वह यह जानने को उत्सुक थे कि फुरसतिया जी से मिले या नहीं? हम उन्हें बताये कि बस उन्हीं से मिलने के लिये निकल ही रहे हैं..
यह फोटो अंधेरे का शिकार हो गई है.. :(
बस थोड़ी देर में कुछ मिनटों कि देरी से ट्रेन भी वहां से रवाना हो गई.. कुल मिला कर अनूप जी से पहली बार मिलना बहुत ही सुखद रहा.. कुल मिलाकर मैं बस इतना ही कह सकता हूं कि जैसा उनका लेखन है और जिस प्रकार से वह फोन पर बतियाते हैं, उससे कुछ भी अलग नहीं है.. वैसे ही खुशमिजाज, वैसा ही उनका सेंस ऑफ ह्यूमर.. कुल मिला कर बहुत ही बढ़िया अनुभव रहा उनसे मिलने का.. :)
दो दिन देर से छापा इसे.. कारण - हमने सोचा कि फुरसतिया जी के बारे में कुछ भी लिखने से पहले पूरा फुरसत निकालो, और वह फुरसत आज ही मिली है.. :)
खुशकिस्मत रहे आप जो मिल लिए उनसे...हमारी वाली मुम्बई आने की तो उनको कभी फुर्सत मिली नहीं...जबकि कानपुर मुंबई है ही कितनी सी दूर...(गाडी में बैठने के बाद), उनके लेखन से लगता है की मजे के आदमी हैं...आप भी खूब मजे लेकर लिखें हैं ये पोस्ट...मोती चूर के लड्डुओं की मिठास है इस में...
ReplyDeleteनीरज
बहुत रोचक अंदाज में लिखा है PD मजा आया पढ़ कर...
ReplyDeleteअच्छा लगा पढ़के। चलिये एक और महाशय इंजीनियरिंग की भीड़ में शामिल हो रहे है। वेल्लोर में मैने भी काऊंसेलिंग की थी,पर फ़िर ऐडमिशन नही लिया। उस समय काश आपसे पहचान होती।
ReplyDeleteबहुत रोचक अंदाज़।
ReplyDeleteफुरसतिया से मिलने के लिए भी फुरसत चाहिए बबुआ :-)
पैर चेक किया या नहीं:-)
chalo achha hua ........fursatiya ji k kaaran aaj mujhe ye to pata chala ki agar chennai yatra k dauran zara bhi fursat mil jaaye to kin sahebaan se milna hai
ReplyDeleteaapko badhai is lekh k liye...............
behtarin post...padh kar laga jaise hum bhi aap logon ke saath maujood hon.
ReplyDeleteमहेश भट्ट बनते जा रहे हो..
ReplyDeletesahi hai aapka milna samaroh to bahut rochak raha
ReplyDeleteaur likha bhi aapne rochak
बेहतरीन पोस्ट, आपने अंत तक बाधे रखा।
ReplyDeleteअनूप जी से दो बार मिल चुका हूँ किन्तु सही है कि उनकी फोन पर उनकी आवाज आज भी मेरे अत: करण में गूँज रही है।
वकई अद्भुत है वो सौमित्र से भी मिलाने के लिये धन्यवाद
आपका लिखने का अंदाज बहुते रोचक हैं.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा.
जय हो.....यानी की अब आप दो लोगो के गार्डियन हो गए .इत्ती कम उम्र में ...पहले शायद द्रिवेदी जी के सुपुत्र है....खैर अँधेरी वाली फोटो अगली बार दिन में दिखाना .....ये फुरसतिया जी डब्बा अन्दर वापस काहे डाल राहे थे भाई....ये पूछना पड़ेगा .
ReplyDeleteपी दी भाई..यार इस पोस्ट से पहली बात तो ये पता चली की आप मिथिलांचल के हो...मेरी भी वही खिल गयी जो आपकी फ़ुरसतिया जी को देख कर खिली ..वैसे फ़ुरसतिया जी का नाम ही खाली फ़ुरसतिया जी है आपको तो उन्होंने फटफटिया जी बना दिया...मुदा चलिए बड़े लोगन के दर्शन भी बड़ी बात होती है....हम भी कभी पहुंचे तो बुलायेंगे नन्मुआ के चाय की दूकान पर...का कहे नहीं जानते हैं कहाँ है...अरे ढूँढिये महाराज...न ता एगो खुलवा दीजिये....अब तो आते ही रहेंगे....
ReplyDeleteप्रशांत जी ये तो हमें भी नही पता बांछें कहाँ होती हैं पर खिलती हैं तो बता देती हैं, जैसे अभी आपका किस्सा सुनकर :)
ReplyDeleteभाई बडा कमाल का लिखते हो. वाकई यह प्रूव कर दिया कि आप फ़ुरसतिया जी से मिल लिये हो. और कहीं एक दो दिन लंबी मुलाकात रहती तो सोचो इस लेख को कैसा लिखते?:)
ReplyDeleteबहुत बढिया..अनूप जी से मिलना और बात करना हमेशा सुखद रहता है.
रामराम.
बहुत पसंद आया यह पोस्ट।
ReplyDeleteअरे वाह मजा आ गया आप का लेख पढ कर, कभी हम भी मिलेगे अनूप जी से, मुझे भी लड्डू बहुत अच्छे लगते है, ओर जब मिलते है तो आप की दोनो फ़ोटो बहुत सुंदर लगी, ओर अंधेरे मै भी पहचान गये.
ReplyDeleteधन्यवाद
अनूप जी ने हमारी बात रख ली। हम बोले थे अपने पीडी से मिल कर आना।
ReplyDeleteटांग चैक करा कर सर्टिफ़िकेट तो ले लेना था।मज़ा आया पीडी।बढिया लिखा।
ReplyDeleteखूब सच-झूठ ठेल दिये। जय हो। समय कम मिला बतियाने का । मिलकर बहुत अच्छा लग लेकिन समय कम होने के कारण बुराई भलाई हो ही नहीं पाई। खैर फ़िर कभी सही! धांसू पोस्ट लिख मारें। शनिवार का अच्छा उपयोग किये। :)
ReplyDeleteसच के साथ झूठ भी है क्या इसमें ;)
ReplyDeleteबढ़िया भाई !
बोम्बे हलवा हाउस पहले फ़ेमस नहीं था अब फ़ेमस हो लिया। बहुत ही रोचक लिखे हो। सौमित्र के कपड़े तो अच्छे खासे लग रहे हैं जी आप काहे उसकी टांग खींच रहे हैं बच्चा हैंडसम है। बाकी फ़ुरसतिया जी के लिए क्या कहें वो तो हरदिल अजीज हैं
ReplyDeleteसौमित्र को अडमिशन की बधाई और पीडी जी की पीडा समझ में आती है जब पानी में भिगते हुए यह गाने का समय भी नहीं- रिम-झिम के तराने लेके आई बरसात:)
ReplyDeleteखुशकिस्मत रहे आप जो मिल लिए उनसे...हमारे फतेहपुर आने की तो उनको कभी फुर्सत मिली नहीं...जबकि कानपुर फतेहपुर से मात्र ७५ किलोमीटर ही है
ReplyDeleteसो तो आप काफी लकी निकले !!
बच्चा हैंडसम है!!!
बेहतरीन पोस्ट, आपने अंत तक बाधे रखा!!
महानगरो की घोर आपाधापी की जिन्दगी मगर मानवी जिजीविषा की जीत का जश्न कि आप ले दे कर फुरसतियां से मिल ही लिए !
ReplyDeleteखूब ! और घर कब पहुचे ? बारिश बंद हुयी या भीगते हुए ही !खाना रास्ते में ही खाया या फिर मोतीचूर लड्डू से ही काम चला गये ! पार्किंग की गयी बाईक सर्वांग सुरक्षित मिली भी या नहीं -ऐसे तमाम प्रश्न हैं जिन्हें न पूंछे जाने का दस्तूर है -मैंने पूंछ लिया तो कोई गुनाह तो नहीं किया न ?
जिंदगी की आपाधापी की एक रोचक बयानबाजी . पैर टूटने पर भी लोग बाइक चला रहे हैं!
ReplyDeleteपैर टूटने पर ही
ReplyDeleteबाईक चलाई जाती है
साबुत पैर से
दौड़ा जाता है खुद ही।
खैर ...
यह मिलन
रोचक रहा
हम भी सोचेंगे।
सौमित्र को शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteआपकी शैली वृत्तांटी-बुनावट की जितनी तारीफ़ करुँ कम है
ReplyDeleteरुच कर लिखा गया वृताँत
ReplyDeleteमुझे अच्छा लगा ।
@ नीरज जी - मोतीचूर के लड्डूओं कि मिठास इस पोस्ट में आपको मिली, मेरा इस पोस्ट को ठेलना सफल रहा.. :)
ReplyDelete@ रंजन जी - धन्यवाद..
ReplyDelete@ सजल - अरे भाई, यह तो मैं पिछले दो साल से तुम्हें बोल रहा हूं, कि काश पहले से तुम्हें जानता होता तो आज बात ही कुछ और होती.. वैसे तुमसे मिलने के लिये मुझे औरकुट को धन्यवाद देना ही चाहिये.. :)
ReplyDelete@ पाबला जी - अजी पट्टी बंधे पैर का बाकयदा तस्वीर उतारी गई थी.. :)
ReplyDelete@ AlbelaKhatri.com - बिलकुल जी.. जब भी आयें तो खबर जरूर करें.. समय तो अपने आप ही निकल जाता है.. आपका इंतजार करूंगा.. :)
ReplyDelete@ नेहा जी - धन्यवाद..
ReplyDelete@ कुश - अरे, काहे को इत्ता बड़ा आदमी बना रहे हो.. हम छोटे इंसान ही ठीक हैं..
ReplyDeleteवैसे कहीं टांग खिंचाई तो नहीं चल रही है ना? भाई अभी टांग पूरी तरह ठीक नहीं हुई है.. जब ठीक हो जाये तब खींच लेना.. :D
@ अनिल जी - कभी आप भी पधारिये भाईजान..
ReplyDeleteमोटीचूर के लड्डूओं पर लार टपकाते हुए यह पोस्ट पढी। बहुत बढिया।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
@ परमेंद्र जी(उर्फ़ महाशक्ति) - धन्यवाद.. वैसे अनूप जी कि आवाज भूलना बहुत कठीन है..
ReplyDelete@ संजय सिंह जी - धन्यवाद..
ReplyDelete@ डा.अनुराग जी - हमे समय से पहले ही मत बुढ़ा दिजिये साहब.. हम तो दिनेश जी के भी मित्र हैं और उनके पुत्र के भी.. ठीक वैसे ही अब अनूप जी के साथ-साथ सौमित्र के भी मित्र हो गये..
ReplyDeleteवैसे सौमित्र को धमका कर आये हैं कि तुमसे मिलने वी.आई.टी. आता रहूंगा.. :D
@ अजय कुमार झा जी - अरे महाराज, आप आईये तो सही.. हम नन्मुआ का चाय का गुमटी खुलवा देंगे.. अगर नहीं खुलवा सके तो खुद ही खोल कर बैठ जायेंगे..
ReplyDelete@ वर्षा जी - कभी पता चले कि बांछे कहां होती है तो सबसे पहले मुझे ही बताईयेगा.. :)
ReplyDelete@ ताऊ जी - घणा थैंक्यू जी.. वैसे आपका कहना भी सही है.. अगर एक-दो दिन फुरसत में मिलते तो मुझे एक उपन्यास लिखनी पड़ती, और वो भी फुरसत में..
ReplyDelete@ बालसुब्रमण्यम जी - धन्यवाद..
ReplyDelete@ राज जी - अब ये तो पक्का रहा कि जब भी आप मिलेंगे तो हम आपसे किसी मोतीचूर के लड्डूवों वाली दुकान पर ही मिलना चाहेंगे.. ही ही ही..
ReplyDelete@ दिनेश जी - जी, मैंने पढ़ा था आपका कमेंट चिट्ठाचर्चा में.. आपसे भी जल्दी ही मिलने कि उम्मीद करता हूं.. नहीं तो कम से कम वैभव से जल्द ही मिलने का सोच रहा हूं.. एक बार उसे हैदराबाद तो आने दिजिये.. :)
ReplyDelete@ अनिल पुसदकर जी - सर्टिफिकेट लेना भूल गये.. बहुत भारी दिक्कत हो गई है अब तो.. फुरसतिया जी कहेंगे कि पीडी झूठ बोल रहा था.. वैसे एक सबूत मेरे पास है, उनके ही फोन से ली हुई मेरे पैर की तस्वीर.. :D
@ अनूप जी - चलिये, इसमें से सच को निकाल कर अलग कर दिया जाये, और जो झूठ है उसके सच को आप लिख मारिये.. फिर हम भी सच-झूठ कि तलाश करेंगे.. :D
@ अभिषेक ओझा - अरे भाई, झूठ का पता तो आप अनूप जी से ही पूछो.. :)
ReplyDelete@ अनीता कुमार जी - नहीं आंटी जी, वो बस हल्का-फुल्का चलता है.. हें हें हें(खीसे निपोर रहा हूं) :D
@ cmpershad जी - धन्यवाद जी, पीडी कि पीड़ा समझने के लिये.. :)
@ प्रवीण जी - धन्यवाद पोस्ट को पसंद करने के लिये.. वैसे एक काम क्यों नहीं करते? एक दिन आप ही फुरसत निकाल कर फुरसतिया जी के फुरसत के पल का गुड़-गोबड़ कर डालिये.. :)
@ अरविंद मिश्रा जी - सारे सवालों के जवाब एक एक करके देता हूं..
ReplyDeleteऔर घर कब पहुचे ? - रात 11.45 में..
बारिश बंद हुयी या भीगते हुए ही ! - अजी वो तो मुझे भींगो कर उसी समय चलती बनी थी..
खाना रास्ते में ही खाया या फिर मोतीचूर लड्डू से ही काम चला गये ! - शाम का नास्ता बहुत भाड़ी हो गया था और अनूप जी के साथ इडली भी खा लिये थे.. सो रात का प्रोग्राम नहीं बनाये..
पार्किंग की गयी बाईक सर्वांग सुरक्षित मिली भी या नहीं - बिलकुल सही सलामत मिल गई.. नहीं मिली होती तो उस पर भी एक पोस्ट अब तक ठेल चुके होते.. पक्के बिलोगर जो ठहरे.. :D
मैंने पूंछ लिया तो कोई गुनाह तो नहीं किया न ? - बिलकुल किये हैं जी.. अब इस पर कौन सी दफा लगेगी यह तो दिनेश जी ही बतायेंगे.. जल्द ही कानूनी नोटिश भिजवाता हूं.. ;)
@ महेश सिन्हा जी - आपने पूछा(पैर टूटने पर भी लोग बाइक चला रहे हैं!) - मेरे पैर कि कानी अंगुली टूटी थी.. सो संभल कर चलाने लायक हालत में हूं..
ReplyDelete@ अविनाश वाचस्पति -
ReplyDeleteपैर टूटने पर ही
बाईक चलाई जाती है
साबुत पैर से
दौड़ा जाता है खुद ही।
ये भी खूब कही आपने.. :)
@ अलोक पुराणिक जी - सौमित्र कि ओर से धन्यवाद सरजी..
ReplyDeleteवैसे मुझे पता नहीं था कि आप भी मेरा ब्लौग पढ़ते हैं.. अच्छा लगा जानकर.. क्योंकि शायद आपने पहली बार मेरे ब्लौग पर टिपियाया है.. :)
@ मुकुलःप्रस्तोताःबावरे फकीरा जी - धन्यवाद..
@ डा. अमर कुमार जी - धन्यवाद इसे पसंद करने के लिये.. :)
ReplyDelete@ घुघुती जी - सच में बहुत आनंद आया था पूरे एक साल बाद मोतीचूर के लड्डू खाकर.. पोस्ट पसंद करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद.. :)
ReplyDeleteबहुत बढ़िया . एक बार फुरसतिया जी से मै जबलपुर में मिला था फिर उन्हें फुरसत ही नहीं थी कि दुबारा मिले न जाने कब कानपुर लौट गए.
ReplyDeleteसारी गप्प यहाँ कमेन्ट बक्से में मार रहे हो...देख रहे हैं हम.
ReplyDeleteअनूप जी बता रहे थे की मेरी बड़ी बुराई कर रहे थे, और बताने को भी मना किया था उन्हें...पर वो बताते क्यों नहीं, एक तो उनके सारे लड्डू खा गए हो!
अब जब पता चल ही गया है की मेरी बुराई कर रहे थे...तो बंगलोर आने के पहले सोच लेना, बहुत फोटो चिपका रखी है, दिन-रात अँधेरे उजाले की...तुम्हारी टांग की आरती उतारते हैं, बंगलोर आओ तो सही.
ये लीजिए, हमें भी फर्सत मिल गयी टिप्पणी के लिए।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आपका लिखने का अंदाज बहुते रोचक हैं.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा.
संयोग से आज फ़िर से यह पोस्ट बांची। सब बातें याद आयीं। इस बीच चार साल बीत गये। अब बच्चा दो दिन बाद अपनी पढ़ाई निपटा के वापस आने वाला है।
ReplyDeleteजय हो!
Wakai, mujhe bhi aapne revise karva diya.. 4 Saal baad apni hi post padh kar itna achchha kam hi lagta hai... wakai, fir padh kar maza aa gaya. :)
Deleteहा हा हा !
Deleteठीक चार साल बाद आपके कमेन्ट के सहारे हम भी लौट आये ......अपना कमेन्ट निहारने और @PD भाई का जवाब पढने ......!
ठीक चार साल बाद!!!!!!
कुछ रिश्ते यूँ ही बनते गए :)
जी बिलकुल मास्साब.. :-)
Delete