पहला अनुभव
मैं चेन्नई में जहां रहता हूं वहां से कार्यालय जाने वाले रास्ते में 'बस' में बहुत ज्यादा भीड़ होती है। उस भीड़ का एक नजारा आप भी इस तस्वीर में ले सकते हैं। (चित्र के लिये आभार 'हिंदू' को)
मैं उस दिन अपने कार्यालय से जल्दी घर के लिये निकल गया था। मैं उस दिन अपने कार्यालय से जल्दी घर के लिये निकल गया था। 'बस' में अपने लिये जगह बनाने के लिये मैं 'बस' के पीछे वाले हिस्से में चला गया। वहां देखा एक बहुत ही बुजुर्ग, जो शायद मेरे दादा जी के उम्र के होंगें और जिन्हें चलने में भी परेशानी होती होगी, वहां खड़े हैं। मुझे वहां बैठे अपने उम्र के लोगों पर तरस आया की इनके पास इतना भी संस्कार नहीं है की खुद उठ कर उन्हें बैठने के लिये जगह दे दें। संस्कार कि बात अगर हटा भी दें तो इतनी मानवीयता तो होनी ही चाहिये। थोड़ी देर बाद मैंने देखा की आगे वाले एक जगह खाली हो रही थी और मैंने लपक कर उस जगह पर बैठ गया। और अपने बगल में खड़े एक सज्जन को कहा की उन्हें यहां बुला दें जिससे मैं उनको बैठने के लिये जगह दे सकूं। वो सज्जन अंग्रेजी नहीं समझ पा रहे थे और मुझे तमिल नहीं आ रही थी। खैर मैंने किसी तरह इशारों में उन्हें समझाया और अंततः वो समझ गये और उन्हें बुलाया। मैं वहां से खड़ा हो गया और उनको बैठने के लिये जगह दे दिया, उन्होंने मुझे तमिल में कुछ कहा जिसे मैं समझ नहीं पाया पर इतना जरूर अंदाजा लगा लिया की वो मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। फिर मैंने देखा कि वहां बैठे लोग मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मैंने कुछ गलती कर दी हो और उनकी नजरें मेरा उपहास कर रही थे। पर मुझे उन नजरों की कोई चिंता नहीं थी, और उनके उपहास भड़ी नजरों से मेरा सर गर्व से और ऊंचा हो गया।
दूसरा अनुभव
यहां मैंने पाया है कि चेन्नई में उत्तरी भारतीय लोगों के लिये एक बात बहुत आम है और वो यह है कि यहां अक्सर आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे जो आपसे हिंदी में बात करेंगे और बतायेंगे की कैसे वो यहां आये थे और कैसे उनका सारा सामान चोरी हो गया और अब उनके पास खाने के लिये कुछ भी नहीं है। वो वापस कैसे जायेंगे इसका भी कुछ पता नहीं है। कुछ पैसों से अगर मदद मिल सके तो कर दें। वे सारे लोग आपको अच्छे कपड़ों मे सजे-धजे दिखेंगे और अगर आप चेन्नई में नये हैं तो आप जरूर उनके बहकावे में आकर ठगे जायेंगे।
उस दिन मेरे मित्र विकास के पापा आने वाले थे और मुझे उनको लेने रेलवे स्टेशन जाना था। उसके लिये मैंने यहां के मांम्बलम स्टेशन से लोकल लेकर चेन्नई सेंट्रल जाना मुनासिब समझा। जब मैं अपने कार्यालय से स्टेशन के रास्ते पर था तो मुझे ऐसा लगा जैसे मुझे कोई पूकार रहा हो। "भाई साहब आप हिंदी जानते हैं!" मैं ठिठक गया, सोचा शायद ऐसा कोई हो जिसे कहीं जाने का रास्ता या पता चाहिये होगा। और उसे सही सही कोई बता नहीं पा रहा होगा।
मैंने देखा एक आदमी अपनी बीबी और एक बच्चे के साथ था। वो बताने लगा की वो औरंगाबाद महाराष्ट्र का रहने वाला है और उसकी बात यहां कोई समझ नहीं पा रहा है, क्योंकि उसे अंग्रेजी ठीक से नहीं आती है। मैं उस समय जल्दी में था पर फिर भी रूक कर उसकी बात सुनने लगा की शायद कोई मदद कर सकूं। मगर वो भी वही बात दोहराने लगा जो मैं चेन्नई में आने के बाद कई बार सुन चुका हूं। और फिर मैं अपना मुंह बनाते हुये उसकी पूरी बात सुने बिना आगे बढ गया। पर आगे बढने के बाद मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने कुछ गलत कर दिया हो, क्योंकि मुझे उसके बच्चे का चेहरा याद आया जो मासूमियत से भड़ा हुआ था और अपने पिता को देखे जा रहा था। उसे शायद पूरी उम्मीद थी की शायद इस बार कुछ बन सके। और वो कुछ भूखा भी लग रहा था। मुझे पहली बार ऐसा लगा की वो आदमी सही था। लेकिन मैं अब वापस पीछे नहीं जा सकता था नहीं तो मुझे बहुत देर हो जाती। मैंने अपने मन को समझाया कि अगर मैं उसकी मदद करना चाहता, तब भी नहीं कर पाता क्योंकि मेरे पास 7-8 रूपये चिल्लर के अलावा कुछ 500 के नोट थे। लेकिन मुझे पता है कि वो गलत तर्क है, क्योंकि अगर मैं उसकी मदद करना चाहता तो मेरे पास 3-3 कार्ड थे और वो रास्ता बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर से भड़ा हुआ था। अगर मैं चाहता तो कुछ खाने के लिये खरीद कर उसे दे सकता था।
अभी भी मैं सोचता हूं तो थोड़ी तकलीफ होती है कि किस तरह हमलोग ठगों से बचने के चक्कर में जरूरतमंदों से भी नजरें मोड़ लेते हैं।
दूसरे अनुभव के बारे में कुछ नहीं कहूंगा. उसमें डाटा पर्याप्त नहीं है ओपीनियन फर्म-अप करने को. पर पहला अनुभव विचित्र लगता है. मेरे विचार से दक्षिण भारत में लोग अधिक सुसंस्कृत हैं और वृद्धों के प्रति आदर भाव रखते होंगे.
ReplyDeleteपर आपने बहुत अनुकरणीय कार्य किया. साधुवाद. यह व्यवहार औरों के लिये प्रेरणा बने.
ज्ञान जी की बात से सहमत हूँ कि आपने बहुत अनुकरणीय कार्य किया. साधुवाद. यह व्यवहार औरों के लिये प्रेरणा बने.
ReplyDeleteसाधुवाद है आपके पहले अनुभव वाले कार्य के लिए!
ReplyDeletepahlee anubhav ki jo baat hai uskee liyee to yahi kahunga ki yaar jo tunee kiaa bahut achaa kiaa kyonki yaha kee log bhi susanskrit to hai per jo log bas mai aatee jaatee hai unmee see 95% kee log susanskrit nahi vo log sirf apnee baree mai hi sochtee hai bas.
ReplyDeleteor rahi dusrii baat ki to sochnee ki jayada jaruurat nahi hai yaar. jinko koi kaam kernee kaa man nahi kerta hai unsee tum jaisee bhi mooh banavaloo vo bana saktee hai.
saala agar vo sahi admi hota to sabse pahlee tumsee apnee biwi bachoo keliye khana kee liyee bolta naki ghar kee ticket kee liye. sala yee to north indian se paisaa paanee kee eliyee kuch logo nee yahaa per dhandhaa khool diaa hai.
आपका ब्लाग पढ़ना अच्छा लगा। आपने सच में अच्छा काम किया। अच्छा लगा। बधाई!
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