Monday, January 21, 2008

ये एक कूड़ा पोस्ट है, कृपया तथाकथित बुद्धिजीवी इसे ना पढें

वैधानिक चेतावनी : ये जो मैं आज लिख रहा हूं कृपया इसे तथाकथित बुद्धिजीवी लोग ना ही पढें तो अच्छा होगा। वैसे भी एक साफ्टवेयर बनाने वाला छोटी बुद्धि का इंसान इतनी धृष्टा कैसे कर सकता है की उसकी रचना तथाकथित बुद्धिजीवीयों भी पढ लें। अब बाद में ना कहियेगा कि मैंने आगाह नहीं किया था।

मैं और मेरी यायावरी

कभी-कभी इंसान हर किसी से पीछा छुड़ाना चाहता है, इस इंसानों की मंडी में खुद को बिकता हुआ नहीं देखना चाहता है। लोग नये टेक्नालौजी की आड़ में हर वक्त किसी ना किसी रूप में आपका पीछा करते होते हैं, कभी टेलिफोन से तो कभी मोबाईल से।

पिछले शनिवार को मैं इस तरह के बोझिल वातावरण से तंग आकर अचानक से बिना किसी को कुछ कहे निकल गया घर से। बस पीछे छोड़ गया विकास को भेजा गया एक SMS जिससे मेरे पीछे किसी को कुछ परेशानी तो ना हो। मुझे घर में ज्यादा तलाश तो ना किया जाये। जिसमें मैंने लिखा था कि, "मैं कहीं घुमने जा रहा हूं, मुझे पता नहीं कहां। मैं अपना मोबाईल घर में ही छोड़े जा रहा हूं, अगर मेरे किसी परिचित का फोन आये तो बोल देना की मैं मोबाईल घर पर भूल गया हूं।"

घर से नीचे जैसे ही पहूंचा, देखा कि 25G नम्बर कि बस आ रही है जो मेरिना समुद्र तट तक जाती है। मैंने सोचा कि बहुत घुम चुके बड़े लोगों का समुद्र तट(बेसंत नगर बीच), आज दिखावापन छोड़ कर अपने जैसे छोटे लोगों का समुद्र तट घुम कर आया जाये। शायद भाग्य भी मेरे साथ था तभी तो जो बस अमूमन खचाखच भड़ी होती है वो उस समय बिलकुल खाली आ रही थी। 4.50 का एक टिcकेट लेकर मैं अपने मनपसंद जगह पर बैठ कर सो गया। क्योंकि मुझे पता था कि वहां तक पहूंचने में कम से कम एक घंटा तो बड़े आराम से लग जायेगा। पास में कुछ कीमती सामान तो था नहीं जिसे चोरी से मुझे बचाना था और सावधानी पूर्वक बैठना था।

जब नींद खुली तो पाया की मैं ट्रिप्लीकेन नामक जगह से गुजर रहा हूं। ये वही जगह है जहां मैंने अपने नौकड़ी के शुरूवाती दिन काटे थे। ये कुछ कुछ वैसा ही जगह है जैसा की दिल्ली का कठबड़िया या जीया सराय है। अकेले रहने वाले नवयुवकों से भड़ा हुआ और मेरिना समुद्र तट के बिलकुल पास। मैंने सुना था की सुनामी के समय यहां पूरा पानी भर गया था मगर किसी भी बड़े शहर की ही तरह बस एक-दो महीने बाद ही उस त्रासदी से उबर कर लोग अपने में रम गये। बस पीछे रह गई थी कुछ बुरी यादें जैसे कोई दुःस्वप्न।

थोड़ी देर मैं मेरिना बीच पर घुमता रहा। पर फिर मन में ये जानने कि इच्छा जागी की अपना वो आसियाना कैसा होगा? जहां मैंने ना जाने कितनी शामें रोटियां तोड़ते हुये गुजारी है, वो आन्टी जी का होटल कैसा होगा? जहां मैंने अपने उदासी भरे दिनों को सिगरेट के धुवें में उड़ाने की नाकाम कोशिश की थी वो गलियां कैसी होगी? और मेरे कदम बरबस ही उस ओर मुड़ चले।

हर एक चीज को गौर से देखते हुये, अपने पुराने दिनों को फिर से जीते हुये मैं चलता गया। वो SBI बैंक का ATM जहां मैंने ना जाने कितनी ही बार सड़क तक लाइन में लग कर पैसे निकाले थे। वो फल वाला जिससे कितनी ही बार अंगूर खरीद कर खाये थे। ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी दूसरे शहर में आ गया हूं। एक ही शहर में रहते हुये आप उसी शहर के किसी हिस्से से बिलकुल अंजान बनते हुये अपनी अपनी जिंदगी में कैसे खो जाते हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण मैं ही था।

फिर से वैसे ही घर की खुश्बू का अहसास करते हुये आन्टी जी के हाथों का बना हुआ फुलका खाया और वापस लौट पड़ा उसी भागम-भाग भड़े जिंदगी में। घर पहूंच कर अपने मोबाईल को चेक किया तो पाया की एक भी मिस्सड काल नहीं आया हुआ था। मैंने सोचा, चलो अच्छा ही हुआ। किसी को सफाई तो नहीं देनी पड़ेगी की मैं इतना लापरवाह कैसे हो गया हूं जो अपना मोबाईल घर में भूल जाता है।

Related Posts:

  • पटना शहर क्या है?पटना.. मैंने अब तक किसी शहर को जाना है तो वो है पटना.. किसी शहर को जीया है तो वो है पटना.. किसी शहर को दिल से अपना माना है तो वो है पटना.. किसी शहर ने… Read More
  • वेलेंटाईन डे से पहले ही दो घूसेपिछले साल की बात है.. दिन शायद 12 या 13 फरवरी रहा होगा.. दोपहर के खाने के समय मेरे साथ काम करने वाली मेरी एक मित्र ने बातों ही बातों में ऐसे ही मुझसे … Read More
  • ताऊ की जर्मनी यात्राये बात तब की है जब ताऊ गोटू सोनार का सारा माल उड़ा कर कहीं छिपने की जगह ढ़ूंढ़ रहा था.. तो उसके दिमाग में यह ख्याल आया कि क्यों ना जर्मनी चला जाऊं.. अपना… Read More
  • अरे! मैं लेखक कब से बन गया?मेरे कल के पोस्ट(हमें नहीं पढ़ना जी आपका ब्लौग, कोई जबरदस्ती है क्या?) पर सबसे अंत में रोहित त्रिपाठी जी का कमेन्ट आया, जिसका उत्तर पहले मैंने मेल में … Read More
  • Blaze of Glory - द्वारा जॉन बॉन जोवीमैं कुछ नया ना चेप कर आज यह गीत पोस्ट कर रहा हूं जो पिछले कुछ दिनों से मेरे मन में गूंज रहा है.. मेरे सर्वप्रिय आंग्ल भाषा के गायक जॉन बॉन जोवी द्वारा… Read More

13 comments:

  1. बढ़िया कूड़ा है, पसन्द आया । एक बार मेरीना बीच मैं भी गई थी । वैसे उन पुरानी जगहों, जहाँ कभी हम रह चुके हैं, पर जाने का एक अपना ही मजा होता है । थोड़ी यादें, थोड़ा समय के तेजी से बीतने का दुख, कुछ काम जो हमने नहीं किये, उन्हें ना करने का दुख, कुछ किये कामों का पछतावा !
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  2. बड़े खुशनसीब हो, आप अपने मन का काम कर गए। आपसे मुझे ईर्ष्‍या हो रही है। मैं भी अब इसी हफ़्ते कुछ ऐसा ही करता हूँ। - आनंद

    ReplyDelete
  3. होता है बंधु होता है।
    वो जगह जहां आप ने पहले कई साल काटे हों सालों बाद उस जगह पर पहुंचने पर वह जगह तो अजनबी नही लगती लेकिन हम खुद अजनबी से लगने लगते हैं।
    शहर वही उसके कोने वही पर मशीनी ज़िंदगी कुछेक कोनों मे ही सिमट कर रह जाने लगती है और अपने ही शहर के कई कोने हमें नही जानते न हम उन्हें।

    ReplyDelete
  4. यायावरी का यह अंदाज भी खूब रहा.

    ReplyDelete
  5. बढ़िया लिखा है आपने। सुंदर वर्णन।

    ReplyDelete
  6. वाह भैया आगे को तीर चलाते हो और पीछे से भी वार होता है, क्या खूब अंदाज है जीया सराय लिखकर हमें भी बेर सराय याद आ गया।

    ReplyDelete
  7. वाह प्रशांत हम भी ऐसा बहुत करते हैं मुंबई में । यायावरी का खास शौक़ है हमें ।
    अच्‍छा लगा कि ऐसा शग़ल हम सबके भीतर कहीं ना कहीं होता है । कुछ इसका इस्‍तेमाल करते हैं कुछ इसे भुला देते हैं ।

    ReplyDelete
  8. शानदार पोस्‍ट। पर बाबू, ये बताओं, तुमने ऐसा क्‍यों कहा कि इसे तथाकथित बुद्धिजीवी न पढ़ेंगे। ऐसा नही लिखा होता, तो वे भी पढ़ते और कुछ सीखते कि सहज जीवन कैसे जीया जाता है।

    ReplyDelete
  9. अविनाश बाबू, मना करने के बावजूद आपने पढ़ ही ली पोस्ट ;)

    ReplyDelete
  10. अरे जिया सराय?! वहां रहते तो मैने अपनी नौकरी के शुरुआती दो साल काटे हैं!
    अच्छी ब्लॉग पोस्ट।

    ReplyDelete
  11. अपन तो कूड़ा बीनने वाले ही हैं सो पढुने चले आए. बहुत अच्‍छा लिखा.

    ReplyDelete
  12. सबसे पहले आप सबों को इसे पसंद करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद..

    @ तरूण : ये सिर्फ ट्रिप्लीकेन या जीयासराय कि ही बात नहीं है.. ये तो बात है हर उस जगह की जहां विद्यार्थी कुछ बनने के लिये आते हैं.. चाहे वो जीयासराय हो या बेरसराय या मुनिरका गांव या फिर चेन्नई का ट्रिप्लीकेन..

    @ मुन्ना भैया उर्फ अविनाश : भैया, मैंने इस पोस्ट को बस उन्हें पढने से मना किया था जो खुद को बुद्धिजीवी समझते है.. मेरी समझ से जो सच में बुद्धिजीवी होते हैं वो पहले दुसरों का सम्मान करना सीखते हैं और कम से कम अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हुये खुद को बुद्धिजीवी तो नहीं कहते हैं..

    ReplyDelete
  13. प्रशांत आप पुरानी यादों को एक बार फिर से सहला तो आये .........कई बार चाह कर भी नहीं कर पाते आपसे ईष्या हो रही है।

    ReplyDelete