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मित्र,
तुम्हारी भेजी किताब पढ़ी.. अभी हाल फिलहाल में हिंदी साहित्य की कई किताबें पढ़ने का सौभाग्य मिला, मगर मृतुन्जय पढ़ने का एक अलग ही आनंद आया जो बाकी किताबों से सर्वथा भिन्न था.. मेरी जानकारी में महाभारत के दो पात्र सदा से ही आम जनों को लुभाते रहे हैं, श्री कृष्ण और कर्ण.. इनमें से श्री कृष्ण को तो भगवान का दर्जा दिया जा चुका है जिस कारण से यह बेहद स्वाभाविक है कि उन पर कई विद्वजनों ने आसक्ति में डूब कर कई ग्रन्थ रच डाले.. मगर कर्ण, यह एक ऐसा पात्र है जिसे महाभारत जैसे महाग्रंथ में भी उचित स्थान ना मिला था फिर भी उसके अनन्य भक्तों की कमी नहीं.. जहाँ श्री कृष्ण के ऊपर भक्तों के कृपा दृष्टि का प्रश्न है तो उसका उत्तर बेहद संक्षेप में दिया जा सकता है की वह तो भगवान थे, हैं और जब तक हिंदू धर्म एवं गीता का अस्तित्व रहेगा तब तक वे आम जनों के भगवान रहेंगे भी.. मगर कर्ण का क्या? वह तो एक ऐसा साधारण मनुष्य था जिसने अपने असाधारण कर्मों के कारण इतिहास में एक अलग स्थान प्राप्त किया.. एक ऐसा पात्र जिसने सदैव 'सूतपुत्र' सुनने का अपमान विष पीया, मगर अपने कर्मों से कभी डिगा नहीं.. अर्जुन को भी महाभारत के युद्ध से पहले गीता के उपदेश की जरूरत हुई थी.. मगर कर्ण!! वह यह सब जानते हुए भी की वह अपने सहोदर भाइयों पर अपने विष-वाण छोड़ने जा रहा है, वह अपने कर्मों से हटा नहीं, डिगा नहीं.. मात्र मित्रता का धर्म निर्वाह करता रहा..
"रश्मिरथी" को पढ़ने का एक अलग ही आनंद आया था, और इसे पढ़ने का आनंद भी अनोखा ही था.. कई दिनों के बाद एक ऐसी किताब पढ़ी जिसे एक बार शुरू करने के बाद जब तक खत्म नहीं कर दिया तब तक यह उत्कंठा बनी रही की आगे क्या होगा? सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है की यह उत्कंठा तब भी मन में उठी जबकि मैंने महाभारत ग्रन्थ के सभी खंड पढ़ रखे हैं, महाभारत धारावाहिक का एक-एक अंक मैंने एक बार से अधिक देखा है, बचपन में महाभारत की कहानियाँ कई खंडों में दादी, नानी, पापा, मम्मी एवं अन्य बड़ों से सुन रखा है.. फिर भी ऐसी उत्कंठा? आश्चर्यजनक था वह.. एक सम्मोहन सा छाया रहा जब तक की मैंने इसे समाप्त ना कर डाला..
कई प्रश्नों के उत्तर कितने साधारण तरीके से इस किताब में दे रखे हैं वह अतुलनीय एवं प्रशंसनीय है.. जैसे, किस तरह काल के प्रवाह में बह कर कर्ण ने कभी अपने महान कर्म उद्देश्य से भटक कर नीच कर्म भी किये.. जैसे, परशुराम से को भ्रम में रखना की वह ब्राह्मण पुत्र है और भृगु का वंशज है, जैसे वह आवेश में बह कर अपने उस अपमान को याद करता हुआ, जब द्रौपदी ने स्वयम्बर के समय कर्ण को सूतपुत्र कह कर उस प्रतिस्पर्धा से अलग रहने को कहा था, द्रौपदी का भरे कुरु सभा में अपमान कर बैठा जिसकी ग्लानी उसे कई वर्षों के बाद भी रही.. जिस पितामह भीष्म के प्रति उसके मन में सम्मान इस कारण जगा था जब शस्त्र दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात भीष्म ने उसे महान धनुर्धर कह कर सुशोभित किये थे, मगर उसी पितामह भीष्म के प्रति मन के किसी कोने में भयंकर घाव भी लगा जब महाभारत रण से पहले उन्होंने उसे अर्धरथी कह कर बुलाया.. फिर उसी पितामह से जब वह शर-सैय्या पर मिलने पहुंचा तो उनके द्वारा कहे गए शब्द "अर्धरथी" का कारण जान कर वह पुनः नतमस्तक हो गया..
इस किताब की सबसे रोचक बात मुझे यह लगी की इसमें अलग-अलग पात्रों के मनोभावों को दर्शाया गया है.. कर्ण के जीवन में जो लोग महत्वपूर्ण थे उनके मुख से कहानी कही गई है.. कहानी की शुरुवात होती है कर्ण से.. कर्ण कैसे अचंभित है की सिर्फ उसे ही कवच-कुंडल मिले हैं दूसरों को क्यों नहीं? यहाँ तक की उसके छोटे भाई शोण तक को नहीं, ऐसा क्यों? अगले भाग में कुंती के मुख से कहानी को आगे बढ़ाया जाता है.. इसी तरह कर्ण की पत्नी वृषाली, छोटे भाई शोण, और श्रीकृष्ण के मुख से भी कहानी को बल मिलता है.. जिसमें कर्ण के पराक्रम के साथ-साथ उसके उलझे हुए जीवन का भी वर्णन है..
तारीफ़ बहुत हो चुकी, अब कुछ बातें करते हैं जो इसकी कमजोर कड़ी थी.. अंत श्रीकृष्ण द्वारा कही गई कहानी से किया गया है.. यह आवश्यक भी था क्योंकि कर्ण अपनी मृत्यु के बारे में नहीं बता सकता था, वह किसी अन्य के द्वारा ही कही जानी चाहिए थी.. उसके लिए श्रीकृष्ण से अधिक उपयुक्त पात्र कोई था भी नहीं, मगर मेरे विचार से शिवाजी सावंत जी ने यहाँ पूर्ण न्याय नहीं कर पाए.. अभी तक कि कहानी जो कसावट लिए हुए थी उसमें जैसे ढील दे दी गई हो.. जैसे कर्ण के धनुष की प्रत्यंचा ढीली कर दी गई हो..
एक और बात मुझे खटकी वह यह थी की पूरी कहानी तर्कपूर्ण ढंग से आगे बढाई गई थी, मगर जहाँ श्रीकृष्ण कि चर्चा शुरू हुई बस वहीं कुछ अलौलिक बातें जोड़ दी गई.. जैसे शिशुपाल वध के समय श्रीकृष्ण द्वारा अभूतपूर्व रूप धारण करना, जैसे जब वे कौरवों के पास संधि प्रस्ताव लेकर गए थे तब उनका वह अलौलिक रूप पुनः धारण करना.. कुछ कहानियाँ जो बचपन में सुन रखा था उसमें से जब उन चमत्कारिक चीजों में बदलाव किया जा सकता था तो निश्चय ही इन बातों में भी बदलाव करके कहानी सुनाई जा सकती थी.. जैसे लेखक कर्ण के रथ के पहियों को धरती द्वारा निगलने की जगह पर श्रीकृष्ण द्वारा उन्हें विवश करते दिखाना जिससे शल्य मजबूर हो जाएँ रथ को दलदल की तरफ ले जाने को.. उन्होंने ऐसे कई चमत्कारों को जो महाभारत में वर्णित है, तर्क के साथ लिखा है.. मगर श्रीकृष्ण के साथ!! पता नहीं, मुझे यह बात बेहद खटकी.. एक और घटना याद आ रही है, महाभारत के अनुसार जब कर्ण मृत्यु के मुख में खड़ा है और उस समय स्वयं देव उनके पास ब्राहमण रूप धारण कर दान मांगने आते हैं.. यहाँ भी लेखक ने बेहद तर्क के साथ एक साधारण ब्राहण को दिखाया है जो युद्ध में मारे गए अपने पुत्र को ढूंढते हुए विलाप कर रहा रहा है.. तब कर्ण अपने पुत्र को आदेश देते हैं कि वह उसके स्वर्ण जड़ित दांत तोड़कर उसे दान में दे दे जिससे वह अपने पुत्र का उचित रूप से दाह संस्कार कर सके..
अहा मित्र!! अगर तुम मुझे यह अनूठी किताब ना भेजी होती तो शायद मैं इस अपूर्व कृति को पढ़ने से शायद वंचित ही रह जाता.. वंचित ना भी रहता तो निश्चित रूप से कुछ वर्ष तो लग ही जाते.. वाह मित्र! वाह!!
ओह क्या बात है बच्चा । रश्मिरथी ..........हमने भी अब अपना संदूक खोल लिया है फ़िलहाल तो गुनाहों का देवता में ही उलझे हैं लेकिन जिंदगी रही तो किताबों पर भी लिख देंगे एक किताब । बहुत ही अच्छी लगी पोस्ट और टिप्पणी बक्से का खुला होना भी
ReplyDeleteपीडी,
ReplyDeleteमृत्युंजय जब पुस्तकालय से हाथ लगी थी तो हम नाश्ता, लंच, डिनर भूल गये थे और जब तक इसको समाप्त नहीं कर लिया चैन नहीं पडा था।
बहुत यादें ताजा कर दी तुमने...
@ अजय भैया - कमेन्ट का बक्सा सिर्फ उस पोस्ट में बंद रहेगा जिसमें मैंने अपने मन की बात कही हो और किसी तरह का औपचारिक कमेन्ट(जैसे "बढ़िया लेखन", "बधाई" इत्यादि) मुझे उस पर पसंद ना हो.. :) जैसे ही मौका मिले वैसे ही इसे पढ़िए.. बहुत अच्छी किताब है यह..
ReplyDelete@ नीरज - अपना भी कुछ यही हाल रहा.. दफ्तर के समय को छोड़ अपने सारे समय में मैं सोना तक छोड़ कर सिर्फ यही पढता रहा..
कर्ण, सूतपुत्र ..एक ऐसा पात्र जिसे शायद पौराणिक पत्रों में मैन सबसे ज्यादे पसंद करता हूँ...लेकिन सबसे कम जानता भी हूँ उसके बारे में...शायद हर किसी को ये पात्र सबसे ज्यादे आकर्षित करता है...जहाँ तक किताब में दिल देने की बात है हो सकता है लेखक अपने को कृष्ण के माया जाल से न निकल पाया हो...
ReplyDeleteमृत्युंजय को अब मुझे भी पढना होगा....
जिस दिन मृत्युंजन पूरी पढ़ी, बहुत दिन तक चिंतन में रहा। यह पुस्तक सबको पढ़ना चाहिये।
ReplyDeleteएक मेरा दोस्त है(बताऊंगा फोन पे), मुझे पता नहीं था उसे हिंदी साहित्य से इतना लगाव है...उससे इस किताब के बारे में अभी ही कुछ दिन पहले सुना था...लेकिन ये पता नहीं था की तुम भी वही किताब पढ़ रहे होगे...
ReplyDeleteआते हैं चेन्नई तो लेते हैं तुमसे...(शायद जल्दी ही आयें)
अच्छा लगा 'मृत्युंजय' के बारे में आपके विचार जानकर.
ReplyDeleteकृति जोरदार है और आपने इस पर लिखा भी की बोर्ड तोड़ है !
ReplyDeleteअब हर जगह मिथक तत्व का लोप हो जाय तो मजा भी नहीं रह जायेगा -यह अति तर्कशीलता के विरुद्ध एक तर्क है ! :)
अच्छे संस्कार पाए हैं आपने और हिन्दी भी निरंतर सुधर रही है -साधुवाद!
अभी तक इस पुस्तक को पढ़ा नहीं है। पर इसे पढ़ने की उत्कंठा अवश्य पैदा हो गई है।
ReplyDeleteबहुत दिनों से पकड़ में नहीं थे। आज ब्लाग फॉलो कर लिया है।
thank you for giving me ur link. Its truly amazing the way you have put everything in order with clarity and brevity. :)
ReplyDeleteअच्छा लिखा है। :)
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