होस्टल के दिन थे.. यूँ तो मैं कई दफ़े अकेले रहा था या फिर घर से दूर सिर्फ लड़कों के संगत में रह चुका था फिर भी होस्टल में रहने का अपना पहला मौका था.. VIT होस्टल का पहला दिन.. जिस होस्टल में था वहाँ एक कमरे में दो लड़के थे.. पहले सेमेस्टर में अधिक लोगों से अपनी जान पहचान नहीं थी, अधिक से अधिक अपने कमरे से कमरा नंबर 310 तक जाता था और वापस अपने कमरे में.. MCA करने की इच्छा तब तक नहीं जागी थी और कुछ अलग ही फितूर में रहता था, मगर फिर भी आदत से मजबूर.. आदत यह कि अधिक से अधिक लोगों से मिलना जुलना, उनसे जान पहचान बढ़ाना.. और यह भाईसाहब तो मेरे कमरे के ठीक बगल में रहते थे, तो भला मुझसे चूक हो जाए यह तो हो ही नहीं सकता था.. तो यह बात पहले सेमेस्टर की है.. लगभग पूरे सेमेस्टर भर इनकी घडी का अलार्म सुबह-सुबह बजता था.. इनके हौसले में भी कभी कमी नहीं आती थी.. हौसला यह कि सुबह उठकर पढ़ाई करनी है, सुबह उठकर कुछ व्यायाम करना है या फिर सुबह उठ कर कम से नाश्ता तो जरूर करना है जैसे फिजूल की बातें.. :) मगर क्या मजाल जो इनको और इनके साथ रहने वाले को बिस्तर से खुदा भी उठा पाए तो.. वह काम हमारे लॉबी में रहने वाले सभी लड़के करते थे जिनकी नींद इनके अलार्म से खुल जाती थी.. कई दिन इनके दिन की शुरुवात बिलकुल मूड फ्रेश कर देने वाली गालियों से होती थी.. :)
भूलाये भी नहीं भूलता है इनका वह शक्ल जो सुबह-सुबह हमने देखा था.. दरअसल हुआ यह था की हमें 'C' Programming के Lab के प्रोग्राम्स के फ्लो चार्ट बनाकर जमा करना था.. जिसे आज के समय 'हरक्युलस' भी आ जाए तो एक बार घबरा जाए पूरा करने में, हम तो फिर भी मासूस विद्यार्थी मात्र थे.. ;) जिस दिन जमा करना था उस दिन सारी रात जग कर लगभग सभी लोगों ने अपना-अपना काम खतम कर लिया था, इन्होने सोचा की हम तो रात में सोयेंगे और सुबह-सुबह बनाएंगे.. फिर उसी अलार्म ने धोखा दिया जो बजा तो जरूर मगर उसमें वो बात नहीं आ सकी थी की इन्हें जगा सके.. बेचारा रो-गा कर चुप बैठ गया.. सुबह लगभग छः बजे के करीब मैं इनके कमरे में पहुंचा तो देखता हूँ कि ये अपने उसी चिरपरिचित सफ़ेद रंग के टीशर्ट और सफ़ेद रंग के ही हाफ पैंट पहने अपने बिस्तर पर सर पर दोनों हाथ रखकर बैठे हुए हैं और इनके सर के सारे बाल खड़े हैं.. खुद से ही बडबडा कर कुछ कह रहे थे.. मैंने गौर से सुना तो 'F' शब्द के मंत्रोचारण के साथ खुद को गरिया रहे थे, और जो भी बोल रहे थे उसका कुल मिलाकर मतलब यह की मुझ जैसे निकम्मे के वश की बात नहीं की मैं MCA की पढ़ाई पूरी कर सकूं.. खैर हम कुछ मित्रगण मिलकर इन्हें इस मुसीबत से उबारने का जिम्मा लिया और एकता में कितनी शक्ति होती है यह उस दिन किताबों के पन्ने से निकल कर साक्षात हमारे सामने खड़ा था.. ;)
कुछ समय बाद की बात है, मैं दूसरे होस्टल में शिफ्ट हो गया जिसे VIT में 'E' Block के नाम से जाना जाता है और उन दिनों MCA छात्रों का मक्का माना जाता था.. चंद गिने-चुने दूसरे सेमेस्टर के छात्र उस होस्टल में शिफ्ट हुए थे, जिनमें यह भाईसाब शामिल नहीं थे.. सो कुछ दिनों तक इनसे संपर्क कुछ धुंधला सा तो गया, मगर मुझे कहीं ना कहीं से इनसे लगाव हो चुका था सो तो छूट नहीं सकता था.. मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा है, मगर शायद दूसरे सेमेस्टर के आखिर में इनका वह उड़ा हुआ चेहरा भुलाए नहीं भूलता है, जब यह लगभग मन में ठान चुके थे कि सेमेस्टर की परीक्षा के बाद यह वापस नहीं आयेंगे.. मैंने अपनी तरफ से इनका ब्रेनवास करने की भरपूर कोशिश की थी, खैर जो भी हुआ हो इन्हें तीसरे सेमेस्टर में वापस देखकर मैं बहुत ही खुश हुआ था..
तीसरे सेमेस्टर में फिर से हम एक ही होस्टल में शिफ्ट हुए.. 'H' Block में.. और संयोग कुछ ऐसा हुआ कि यह तब के मेरे उस मित्र के साथ शिफ्ट हुए जिनके कमरे में मैं सबसे अधिक समय गुजारता था, सो इनको रहन-सहन को कुछ और करीब से जानने का मौका मिला..
अब एक नजर इनके रहन-सहन पर - इनका रहन सहन बहुत ही साधारण था.. इन्हें अधिक जगह की जरूरत कभी नहीं होती थी, इन्हें बस उतना ही जगह चाहिए होता था जिसमें यह समा जाएँ.. पढ़ने को लेकर अति-उत्सुक होने के कारण इनके बिस्तर पर किताबों का जमघट हमेशा लगा रहता था.. दयालू प्रवृति के इतने की किताबों पर पड़े धूल को कहीं परेशानी ना हो सो यह किताबों पर से धूल कई कई दिनों के बाद झाड़ते थे.. और इनके बिस्तर पर सिर्फ उतनी ही जगह होती थी जिसमें की यह अपने घुटनों को मोड़ कर सो सकें.. इतना कुछ होते हुए भी साफ़ सफाई का गजब का ख्याल रखते थे, और अगर एक ही समय में एक साथ धूल से सनी चीजें और एकदम झक-झक चमचमाती चीजों का उदाहरण देखना हो तो इनके बिस्तर और आलमीरा को एक साथ देखा जा सकता है.. आलमीरा की एक एक चीज बेहद करीने से सजी हुई.. कहीं धूल का निशान तक नहीं और वहीं बिस्तर, सुभान-अल्लाह.. और वह उत्तर-पुस्तिका(Answer Sheet), जिसमें इनके तब तक के सबसे कम नंबर आयें हों, वह कुछ इस प्रकार से सजी रहती थी जिससे हमेशा इन्हें ग्लानिबोध बना रहे और शायद उसी कारण से पढ़ाई कर सकें.. अब साहब पढ़ाई तो कभी वैसी नहीं हुई जैसा ये सोचते थे, मगर ग्लानिबोध बराबर बना रहा पूरे कालेज के समय तक..
दृढनिश्चयी - जी हाँ.. हमारे यह मित्र बेहद दृढनिश्चयी हैं.. यह हमेशा कोई भी जिम्मेदारी निष्ठा से लेते हैं और तन-मन-धन से उसे पूरा करने की कोशिश भी करते हैं.. वैसे तो यह साबित करने के लिए मेरे पास कई उदाहरण हैं, मगर मैं चंद उदाहरण ही दूँगा.. जैसे मान लें की इन्हें सुबह पाँच बजे की गाडी पकड़नी है, तो यह सारी रात सोना तक पसंद नहीं करते थे की कहीं गाडी छूट ना जाए.. कहीं मैं सोया ही ना रह जाऊं.. वो दीगर बात है की चार बजते-बजते इतनी कड़ी मेहनत करने के कारण थकान दूर करने के लिए जैसे ही बिस्तर पर अगर बैठ भी गए तो बस्स!! अब कहाँ की गाड़ी और कैसी गाड़ी? जैसे इन्हें अगर अगले दिन किसी विषय की परीक्षा देनी है तो किताब लेकर बैठते थे, और किताब के साथ ही किसी और दुनिया में खो जाते थे.. जरा ध्यान दिया जाए, कितने तन्मय होकर पढ़ा करते हैं.. फिर तो दुनिया की कोई भी ताकत इन्हें इनके किताब जैसी महबूबा से जुदा नहीं कर सकता है.. जैसे ही किसी ने किताब को हाथ लगाया वैसे ही कुछ आवाज जैसी आती थी, "नहीं नहीं! अभी बहुत पढ़ना है!!" कक्षा में अगर हमें सोना होता था तो हम बिना पढ़ाई का ख्याल किये आराम से नोटबुक बंद किये और सर को मेज पर टिका कर सो गए.. मगर ये इतनी तन्मयता से कक्षा में उपस्थित रहते थे की सोते हुए भी शिक्षक की कही एक एक बात अपने नोटबुक पर अंकित करते जाते थे.. पर्यावरण प्रेमी भी बहुत हैं, सो नोटबुक पर लिखते समय कागज़ भी बचाते थे, और एक ही लाईन पर कई दफ़े पढते थे..
इनकी कथा का कोई अंत नहीं है, और अगर अंत होने को भी आये तो अगले ही दिन कई नए अध्याय खुद अपने हाथों से जोड़ लें यह.. :)
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मेरे साथ इनकी अच्छी दोस्ती होते हुए भी कई दफ़े मनमुटाव भी खूब हुए हैं.. मामला कुछ ऐसा था की, अगर मैं उत्तर जाना चाहता हूँ तो इन्हें दक्षिण पसंद है.. अगर मैं आम बोलूँ तो यह इमली बोलेंगे.. मगर एक बात सच्चे दिल से कहना चाहूँगा की 'इन्हें जानने से पहले इतना सच्चा इंसान मुझे नहीं मिला था'.. अगर किसी को मदद की जरूरत हो और इन्हें पता हो तो मैंने कभी इन्हें चूकते हुए नहीं देखा है, भले ही ये उसे जानते हो या ना जानते हों, भले ही उनसे इनकी दुश्मनी ही क्यों ना ठनी हो, फिर भी.. जो दिल में है वही जुबान पर भी, कभी कोई मुखौटा नहीं..
अभी कुछ दिन पहले की बात है, इन्होने मुझे एक मेल लिखा जिसका मजमून मात्र इतना की "अपना चेन्नई का पता दो, मुझे एक कूरियर भेजना है जिसे मेरा एक मित्र आकर तुमसे ले लेगा.." मैंने दे दिया.. अब जिस दिन मैंने पता दिया उसके ठीक दो दिन बाद मुझे फ्लिपकार्ट से एक कूरियर मिला.. मैं असमंजस में, कि किसने भेजा होगा, इनके बारे में नहीं सोचा क्योंकि मेरा फ्लिपकार्ट के साथ अनुभव यही रहा है कि कम से कम तीन-चार दिन समय लेता है और मुझे इन्हें पता दिए मात्र दो ही दिन हुए थे.. खैर मैंने इन्हें वापस मेल किया, "मुझे एक कूरियर फ्लिपकार्ट से मिला है, क्या यह तुमने भेजा है?" इन्होंने किताब का नाम लिखकर बोला की अगर अंदर यही किताब है तो हाँ, मैंने ही भेजा है.. मैंने पैकेट खोलकर देखा और पाया कि वही किताब है जिसका जिक्र इन्होंने मेल में किया है.. अब मैं वापस सोच में था, की ऐसा इनका कौन सा मित्र है जो हिंदी साहित्य प्रेमी है, और चेन्नई में भी रहता है, और सबसे बड़ी बात की अगर चेन्नई में रहता है तो मैं उसे जानता नहीं? कुल मिलाकर मैंने यही निष्कर्ष निकाला की यह किताब इसने मेरे लिए ही भेजा है.. फिर भी मैंने इन्हें मेल लिखा "अपने फ्रेंड को बोलना की आराम से आकर ले, तब तक मैं भी पढ़ लूँगा इसे.." और इनका जवाब था, "उसे खुद को ही डेलिवर कर लेना, मेरे फ्रेंड का नाम प्रशान्त है.."
मेरे लिए इस तरह का अप्रत्यासित भेंट इससे पहले किसी ने नहीं भेजा था, और वह भी तब जबकि भाईसाब शिकागो(अमेरिका)में हैं.. मैंने अभी तक उस मेल का जवाब नहीं दिया, कोई पावती पत्र तक नहीं.. आजकल पत्र लिखने में बहुत आलसी हो गया हूँ, कई लोगों को पत्र लिखने हैं, मगर मैं टाले जा रहा हूँ.. सीधा यह यहाँ ही लिख रहा हूँ और वह भी लगभग दस दिनों बाद की लव यू डियर, तुम जैसे किसी एक से अगर दोस्ती हो तो किसी और दोस्त की जरूरत ही नहीं है जिंदगी बिताने के लिए, और किस्मत से तुम जैसे मुझे कई मित्र मिले हैं..
वाह शानदार पोस्ट ..पहले तो खिचाई .... की खूब ..बाद में ऐसा लिखा की दिलखुश हो जाए दुश्मन के भी ... बरहाल बुक का नाम भी बता दिया होता भिया ...हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता
ReplyDeleteहॉस्टल के दिनों में गुंथी रहती है ऐसी ही कहानियाँ।
ReplyDelete:)
ReplyDeleteकिताब कौन सी थी वैसे?
ReplyDeleteजाट तो नहीं था आपका वो मित्तर? वैसे ऊपर के पांच-चार गुण मुझसे भी मिलते हैं।
ReplyDeleteइम्तिहान लेती दोस्ती.
ReplyDeleteबहुत मस्त दोस्त जी, ओर बिना खिचाई के मजा भी नही आता दोस्ती का
ReplyDeleteकिताब का नाम है 'मृत्युंजय' क्यों पीडी सही कहा न? :-)
ReplyDeleteकिताब के बारे में थोडी और डीटेल: http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5680408.cms
सही जवाब पंकज.. :)
ReplyDeleteवाह शानदार पोस्ट .
ReplyDeleteहॉस्टल का जीवन और दोस्ती .... सही गुंथा है आपस में .... बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteऐसे किरदार हमारे आस पास कई होते है.. हमें भी याद आ गए दो चार नाम.. पर उनके बारे में फिर कभी बताएँगे
ReplyDeleteकई सारे ऐसे लोग हमारे जीवन में क्या क्या तय कर जाते हैं।
ReplyDeleteपहले हौशला को हौसला करिए तब फिर से पढता हूँ ....नहीं तो कहिये और लोगों की तरह एक शाबाश टिप्पणी छोड़ फूट लूं ..
ReplyDeleteकर दिया..
ReplyDeleteमित्रता की एक बेमिसाल मिसाल -क्या दोस्त मिला है आपको ,,
ReplyDeleteमनुष्यता के आगे बाकी सब दुनियादारी गौण है :)
स्कूल के दिनों में हिन्दी में 'पात्रों का चरित्र चित्रण करो' जैसे सवालों का जवाब देने जैसी शैली... हैडिंग डाल डल कर चरित्र की धज्जियां बडे कायदे से उडायी गयी हैं.. मज़ेदार :D
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट... अच्छे दोस्त...
ReplyDeleteमुस्कान अन्त तक बनी रही चेहरे पर... :)
मजेदार पोस्ट! :)
ReplyDeleteतुम जैसे किसी एक से अगर दोस्ती हो तो किसी और दोस्त की जरूरत ही नहीं है जिंदगी बिताने के लिए, और किस्मत से तुम जैसे मुझे कई मित्र मिले हैं.."
इसमें और किस्मत से तुम जैसे मुझे कई मित्र मिले हैं.." बेकार लिखा। :)
रोचक। चकाचक संस्मरण।
ReplyDeleteतुम जैसे किसी एक से अगर दोस्ती हो तो किसी और दोस्त की जरूरत ही नहीं है जिंदगी बिताने के लिए के बाद कुछ लिखना बेफ़ालतू था। :)
Ab likh hi diya to kya kar sakte hain. shayad abhi likhta to aisa nahi likhta. Wo apne Dr Anurag sahab kahte hain naa, Zindgi hamesha hame extend karta hai. :)
Deleteआजकल बच्चों के आने से व्यस्त हूँ ,इसलिये मौक़ा पाकर सबको सिर्फ पढ़कर ही चली जाती थी पर इसको पढ़ कर इतना आनन्द आया कि साधुवाद देने के लिए रुकना ही पड़ा ..... शुभकामनाएं !
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