यूँ तो मेरा दफ्तर ग्यारह से रात आठ बजे तक का होता है, मगर यदि कोई मीटिंग या ट्रेनिंग ना हो तो शायद ही कभी ग्यारह बजे दफ्तर पहुंचा होऊंगा.. हर दिन की तरह आज भी एक बजे के लगभग दफ्तर में घुसा.. कल अपना कम्प्युटर शट-डाउन नहीं किया था सो उसे रिबूट में होने वाला समय भी जाया नहीं हुआ.. मगर करने को कुछ काम नहीं.. आज ब्लॉग पढ़ने का मन नहीं किया तो गूगल खोल कर Factory Design Pattern पढ़ने लगा.. इस बीच प्रवीण पांडे जी से बाते भी हुई, और उनके अनुभव को अपने ज्ञान से मिलाकर कुछ चीजों पर अलग आयामों से देखने को भी मिला..
मेरे क्यूबिकल में दो फोटो अल्बम रखी हुई है.. एक दोस्तों की, जो अक्सर बदलती रहती है, और दूसरा पापा-मम्मी की जो मेरे साथ हर क्यूबिकल में घूमती है.. पापा जी के दफ्तर में एक सरस्वती जी की तस्वीर हमेशा देखता था, जो किसी भी नए जगह पर पापाजी के काम-काज संभालने से ठीक पहले स्थापित होती थी.. वैसे पापाजी को पूरे नियम से पूजा-पाठ करते कभी नहीं देखा हूँ, मगर यह जरूर पाया हूँ की समय के साथ अधिक आस्तिक होते गए हैं वह अपने जीवन में.. मेरे साथ यह चक्र कुछ उल्टा चल रहा है, समय के साथ नास्तिकता अपने और अधिक कठोर रूप में अवतरित होती जा रही है..
पापा-मम्मी की तस्वीर को हाथों से साफ़ करते समय ध्यान आया की इस पर तो धुल है ही नहीं, फिर क्या मैं हर दिन साफ़ करता हूँ? शायद हाथो से छू कर उन्हें महसूस करना चाहता हूँ.. पांच-छः साल पहले की उनकी तस्वीर है.. अभी भी बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है उनमे.. मगर कुछ झुर्रियाँ जरूर बढ़ गई हैं.. मम्मी की शुरुवाती दिनों के तस्वीर में जो मुस्कान गायब रहा करती थी वह इस तस्वीर में है.. पापा की मोहक सी मासूमियत लिए मुस्कान हमेशा की तरह यहाँ भी है.. कुछ देर देखता रहा और खुद भी मुस्कुराता रहा और सोचता रहा.. कुछ साल तक पहले पापा की हरेक बात से सहमत हो जाया करता था, मगर अब उनकी हर बात से सहमत नहीं हो पाता हूँ.. मगर अभी भी अक्सर उनकी किसी बात को जान बूझकर नहीं काटता हूँ, बस असहमति को उसी जगह छोड़ने की कोशिश करता हूँ.. उनसे असहमत होने वाली बाते याद करने की कोशिश करता हूँ, मगर कुछ याद नहीं आता है.. शायद मेरे लिए वह असहमति उतनी महत्वपूर्ण नहीं है.. हो सकता है..
बचपन में पापा हमेशा कहते थे (खास करके मुझे, उनका सबसे नालायक बेटा जो था या हूँ), "बरगद के नीचे कोई दूसरा पेड नहीं जनमता है".. एक तरह का कटाक्ष ही था, जो खास मुझ पर किया गया होता था.. एक दो दफे पलट कर बोलने का मन करता था, बरगद के ठीक नीचे उससे भी बड़ा पेड जनम सकता है.. मगर कभी बोला नहीं.. आज पता है कि अगर उस बरगद के नीचे उससे बड़ा पेड जनम गया तो सबसे अधिक खुश वह बरगद ही होगा..
सीतामढ़ी!! विनीत का पोस्ट और उस पर आये कमेंट्स से मुझे अपने बचपन कि एक मित्र याद आ गई, जो अभी दिल्ली मेट्रो में ही उच्च पद पर है.. उसे फोन करके चिढाने का अवसर कैसे गँवा सकता था, सो फोन घुमा दिया.. एक-दो बार चिढाने के बाद जब उसे बताना पड़ा कि यह बात कहकर चिढा रहा हूँ तो मायूस होकर कहती है कि शायद "सेन्स ऑफ ह्यूमर" कम हो गया है..
"पटना कब जा रहे हो?"
"पता नहीं.. तुम कब जा रही हो?"
"पटना तो नहीं, मुजफ्फरपुर अपने ससुराल जा रही हूँ.. सीतामढ़ी भी जाने का इरादा है.. सीतामढ़ी गई तो डुमरा में अपने उस ऑफिसर्स क्वाटर वाले घर को देखने जरूर जाउंगी.."
"अरे वाह!! फोटो लेना और मुझे अगले ही दिन अपने इं-बाक्स में चाहिए.."
"मतलब?"
"अरे भाई, मुझे अगले ही दिन मेल करना.. सच में तुम्हारा सेन्स ऑफ ह्यूमर कम होता जा रहा है.. सब दिल्ली मेट्रो का असर लग रहा है.."
"अरे याद है, कैसे एक-एक करके पूरे मोहल्ले के एक-एक घर का सीसा क्रिकेट खेल के तोड़े थे.. क्या अपना, क्या पराया, कोई भेदभाव नहीं.."
"हाँ, और सीसा टूटने के तुरंत बाद आधे घंटे के लिए पूरी चांडाल चौकड़ी गायब.. और गेंद पास वाले नाले में चला जाता था तब उससे निकलने के बाद पूरा काला होकर ही निकलता था.."
"हाँ, फिर जो शोट मारा था वही उसे धोता था.."
सीतामढ़ी के डुमरा वाले घर में जब मैं पांच-साढे पांच साल का था तब गया था.. और श्वेता, जिसका जिक्र ऊपर कर रहा था वह हमारे घर के ऊपर रहती थी, मुझसे दो साल बड़ी.. उसका छोटा भाई गुड्डू मुझसे एक साल बड़ा.. भैया दो साल बड़े.. दीदी तीन साल बड़ी.. पड़ोस में योगेश मुझसे एक साल बड़ा, उसकी बहन रूबी मुझसे एक साल छोटी.. और भी कुछ बच्चे.. कुल मिलकर चार साल से लेकर आठ साल तक के बच्चों कि पूरी चांडाल-चौकड़ी.. (रूबी का जिक्र एक बार पहले भी आया है इस ब्लॉग पर, शायद कोई तीन साल पहले.. उसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं..) फिर तो किसके घर में अमरुद था और किसके घर में भूत-जिन्न का प्रकोप, ये सब बातें निकलने लगी.. अगर मुझे एक मीटिंग में नहीं नहीं जाना होता तो शायद बात और भी दूर तक जाती..
शाम ढलते-ढलते ढेर सारा काम आ ही गया, और एक बार फिर दफ्तर से निकलते-निकलते दस बज ही गये.. मम्मी का फोन आया.. किसी बात पर मरने कि बात लेकर ब्लैक मेल करने कि कोशिश करने में लग गई.. अब तक तो इतने सालों में मैं भी पेशेवर हो चूका हूँ, सो गुस्साने के बजाये उतनी ही तन्मयता से कह दिया, "आप आगे बढिए, मैं जल्द ही पीछे से आता हूँ.. इस जीवन में तो साथ रहना मयस्सर होता नहीं दिख रहा है.."
फिलहाल तो सोने जा रहा हूँ.. पापा का प्यार भी कभी कभी नींद सा ही महसूस होता है.. जब उमड़ता है तो बस उससे गले लगा लेने में ही असीम खुशी मिलती है.. :)
दो बजिया वैराग्य के सारे किस्त पढ़ने के लिए नीचे लेबल पर एक बार किलिकिया लें.. अपनी मार्केटिंग खुद करने का जमाना है, सोचा कुछ कदम ताल हम भी मिला लें जमाने के साथ.. :)
बढ़िया डूबे उतरे दो बजिया बैराग्य में..१ बजे ऑफिस...तब तक तो हम निकलने की तैयारी करने लगते हैं वापस घर के लिए.
ReplyDeleteशादी कब कर रहे हो?
ReplyDeleteज्ञान व विचारों के बढ़ने को एक क्रम है, उसी क्रम में उपनिषदों की भी रचना की गयी है । पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष व संश्लेषण । Thesis, antithesis and Synthesis. आप कोई वाद मानकर बैठते हैं, धीरे धीरे उसके विरोध उजागर होते हैं और अन्ततः किसी नये उच्च सिद्धान्त से उस विषय में पूर्ण साम्य आता है । वह साम्य भी अन्तिम नहीं । पुनः वही प्रक्रिया ।
ReplyDeleteजिये जाईये । कष्ट नहीं पाना है तो सोचना बन्द कर दीजिये । :)
पंकज का फोन मिस कर दिया...हम्म...अब पता चला की तुम बहाना बना देते हो जब फोन मिस हो जाता है ;) हा हा
ReplyDeleteऔर वैसे रंजन जी बात मैं भी जानना चाहता हूँ ;)
बहुत अच्छे,खुद पर लिखे इतने ईमानदार पोस्ट कम ही पढने को मिलते हैं।
ReplyDelete@ प्रवीण पाण्डेय जी
Thesis, antithesis and Synthesis. ये हेगेल के दर्शन का द्वंदवाद है जिसे बाद में उस के शिष्य कार्ल मार्क्स ने फ्योरबाख के भौतिकवाद के साथ अपनाया।
सच्चाई उसी वक्त पता चल गयी थी... काफ़ी कुछ सेम है इधर और उधर तभी शायद आसानी से तुम्हारी जटिलताओ को समझ जाता हू... आज सुबह तुमसे बात करके बहुत अच्छा लगा और तुम जानते हो कि मै इतना सोशल नही हू.. फ़िर भी अपनी बाते अच्छी खिच जाती है... :)
ReplyDeleteप्रवीण जी ने अपनी किसी पोस्ट मे कहा था कि निर्णय निर्णय खेलते रहो और जो भी मिले उसे मन से जीते रहो.. यही जीवन है शायद..
मुझे भी उनसे बतियाना है.. बस वो अभी तक गूगल वेव को ब्लोगर से नही जोड पाया हू इसलिये हिचकिचाता हू.. एक ही तो काम कहा था उन्होने
और वो भी नही हुआ :( तुम्हारे बाकेलाल स्टाईल मे ही बुहुहुबु ;)
ओह ! मुझे भी अपनी चांडाल चौकड़ी याद आ गयी... पता है मैं भी अपने बाऊ की तरह ही नास्तिक हूँ, पर मेरे और उनके विचारों में बड़ा फर्क था... मैंने उनकी हर बात का विरोध किया. उन्होंने ही तर्क करना सिखाया और उन्ही से तर्क किया... वो मुझसे बच्चों की तरह ही झगड़ा करते थे..:-)
ReplyDeletenice post .
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