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छुटपन में घर के बड़े कभी भी किसी से अधिक दोस्ती बढ़ाने के लिए नहीं कहते थे.. बिहार में उस समय जैसे हालत थे उसमे उनका यह एतराज जायज भी था.. समय बदला, हम बच्चो ने भी अपने आसमान तलाशने शुरू किये, फिर कई दोस्त भी बने.. कुछ समय के साथ चले तो कुछ चले गए.. अब से कुछ समय पहले तक के जितने भी मित्र मेरे रडार सीमा से बाहर निकले, उनमे से एक-आध को छोड़ कर किसी अन्य को लेकर दुःख नहीं हुआ.. घर के बड़े भी अब उस दोस्ती के रिश्ते में मीन-मेख निकालना छोड़ कर यह शिक्षा दिए कि यही वह एकमात्र रिश्ता है जिसे बनाने का अधिकार मनुष्य को खुद मिलता है.. शायद वे यह समझने लगे थे कि बच्चे अब बड़े हो रहे हैं और अपना भला-बुरा समझने लगे हैं..
खैर, समय के साथ हर चीज बदलती है तो फिर दोस्ती जैसे रिश्ते क्या चीज हैं? जो मुझे सबसे करीब के लगते थे, उनसे अनजानो सा व्यवहार खल रहा है.. ऐसा लग रहा है जैसे या तो मैं समय के साथ चूक गया हूँ या फिर नकार दिया गया हूँ.. चलो, जीवन का एक पाठ और सही..
मुझे आजकल ऐसा लग रहा है जैसे अब समय आ गया है कि इस रिश्ते को मैं रीडिफाइन करूँ..
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