कभी कभी अंतर्मन में बसी हुई कुछ बीती बातें किसी सिनेमेटिक सीन कि तरह फ्लिक करके निकल जाती है.. जिसमे मैं मम्मी कि गोद में बैठ उनसे कुछ उटपटांग बाते पूछता रहता हूँ, वे बाते क्या थी यह नहीं दिखता है.. शायद वैसी ही बाते होंगी जैसे कि दीदी कि बिटिया दीदी से सवाल पूछती है, या फिर भैया का बेटा कुछ और महीने बाद भाभी से वैसे ही प्रश्न पूछे..
जब घर से पहली बार अपनी दुनिया तलाश करने बाहर निकला तब मेरे साथ कुछ अजीब से संयोग बनते गए.. जब पहली बार दिल्ली जा रहा था तब पटना में घर में कोई नहीं था, सभी मुझे कुछ दिन रुक कर जाने के लिए कह रहे थे और मैंने किसी कि ना सुनते हुए अपना सामान बाँधा और निकल गया अपनी जमीन तलाशने.. घर कि चाभी सामने पड़ोस में रहने वाली भाभी को दे दिया.. फिर उसके बाद जब भी घर(पटना) आता तो वहाँ कोई नहीं होता था.. मैं उन्ही पड़ोस वाली भाभी से चाभी लेता, कुछ घंटे आराम करता और गोपालगंज के लिए निकल लेता जहाँ पापा उस समय पोस्टेड थे.. ऐसे ही होते-होते लगभग एक साल निकल गए.. मेरा दिल्ली-पटना-गोपालगंज आना जाना चलता रहा.. मुझे याद है, पहली बार माँ को याद करके दिल्ली के उस एक छोटे से कमरे में रोया था, जिसे लोग बरसाती के नाम से दिल्ली में जानते हैं..
फिर एक दिन अचानक से VIT से MCA के प्रवेश के लिए बुलावा आ गया, और जिंदगी में पहली बार हवाई जहाज कि यात्रा भी कि.. मन में अजीब से ख्यालात भी चलते रहे थे उस ढाई घंटे कि हवाई यात्रा में.. कम से कम उत्साह तो कहीं भी नहीं था.. थोडा सा डिप्रेशन और घबराहट के साथ-साथ मन में यह भी चल रहा था कि पापाजी के मेहनत से कमाए दस हजार इस बेकार कि हवाई यात्रा में खर्च हो रहे हैं.. डिप्रेशन इस बात की थी कि मैं घर जाने और मम्मी से मिलने के लिए छटपटा रहा था.. और घबराहट इस बात की थी कि मेरे पास कुछ भी सामान नहीं है, नई जगह होगी, नई भाषा के साथ-साथ नए लोग भी होंगे.. कैसे सब ठीक से कर पाऊंगा? अंग्रेजी ठीक से बोल नहीं पाता था उस समय, और ऐसे शहर में अकेला जा रहा था जहाँ अंग्रेजी ही एकमात्र माध्यम था बातचीत का.. थोड़ी बहुत उन दिनों भैया से भी शिकायत थी कि कम से कम वही तो मेरे साथ चलते, मगर बाद में समझ आया कि वो भी अपना कैरियर बनाने में उस समय उलझे हुए थे..
खैर, प्रवेश ले लिया और कक्षा शुरू होने में ५-६ दिन थे.. मैंने निर्णय लिया कि वापस पटना जाऊं और मम्मी से मिलने के साथ-साथ अपने जरूरी सामान भी लेता आऊंगा.. रेल से २ दिन वापस पटना आना और २ दिन वापस कालेज जाने को छोड़कर सिर्फ एक या डेढ़ दिन हाथ में थे.. घर फोन करने पर पता चला कि कुछ जरूरी चीजों के कारण पटना में कोई नहीं रहेंगे, और चाभी बगल वाली भाभी के पास रहेगा..
जारी...
बहुत बातों को लिख देने से किसी और का अपना निजत्व उजागर हो यह उचित नहीं है। संस्मरण लिखते समय इस बात का खयाल तो रखना ही चाहिए।
ReplyDeleteजी बिलकुल. उन बातों का ख्याल रखा गया है.
ReplyDeleteजारी रहिये..पढ़ रहे हैं संस्मरण!
ReplyDeleteचार दिन रेल में और केवल ड़ेढ़ दिन हाथ में मिला और इतने पर भी माँ वहाँ नहीं, वेरी सेड...
ReplyDeleteआगे पढ़ रहे हैं।
आपका घर तो 'ताले वाला घर' हो गया था। माँ का इतना व्यस्त होना कि आप बच्चों के साथ सहज खेल व मजे के लिए समय न बिता पाना उनके लिए भी दुखद रहा होगा।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
hmm, padh raha hu bandhu, jari rakhein
ReplyDeleteरेल यात्रा से ही छुट्टियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं तो रेल यात्रा भी छुट्टियों की लय में करिये ।
ReplyDeleteहम्म पढ़ रहें हैं....पार्ट 2 का इंतज़ार है...माँ को भी कितना अफ्सोस हुआ होगा...वे तुम्हे खजूर निमकी नहीं दे पायी होंगी...बना के
ReplyDeletebahut khub....
ReplyDeletelikhte rahein....
yun hi likhte rahein...
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mere blog mein is baar...
जाने क्यूँ उदास है मन....
jaroora aayein
regards
http://i555.blogspot.com/
प्रियदर्शी जी बहुत सुन्दर लिखते हैं आप
ReplyDeleteबढ़िया है...यादें सहेजने योग्य.
ReplyDeleteसोच रही थी की तुम्हारी संस्मरणात्मक पोस्ट इत्मीनान से पढूंगी इसलिए आज आयी हूँ ...
ReplyDelete"पूरे घर को एक किये रहती थी.. और उस एक करने के चक्कर में हम बच्चे उनसे डरे सहमे रहते थे." कुछ-कुछ ऐसे ही हमारी अम्मा भी लगी रहती थी काम में और गुस्सा होने पर कई दिन तक बात नहीं करती थीं.
अच्छा लगता है तुम्हें पढ़ना, बिलकुल मिलती-जुलती यादें !