मेरी प्रीत भी तू,
मेरी गीत भी तू,
मेरी रीत भी तू,
संगीत भी तू..
मेरी नींद भी तू,
मेरा ख्वाब भी तू,
मेरी धूप भी तू,
माहताब भी तू..
मेरी खामोशी भी तू,
मेरी गूंज भी तू,
मेरी बूंद भी तू,
समुंद भी तू..
मेरी सांस भी तू,
मेरी प्यास भी तू,
मेरी आस भी तू,
रास भी तू..
मेरा नक़्स भी तू,
मेरी हूक भी तू,
मेरा अक्स भी तू,
मेरी रूह भी तू..
मेरा मान भी तू,
मेरा ज्ञान भी तू,
मेरा ध्यान भी तू,
मेरी जान भी तू..
मेरा रंग भी तू,
ये उमंग भी तू,
मेरा अंग भी तू,
ये तरंग भी तू..
मेरे जिगर के सरखे-सरखे में
कुछ और नहीं
बस तू ही तू..
मेरे लहू के कतरे-कतरे में
कुछ और नहीं
बस तू ही तू..
:)
ReplyDeleteक्या बात है भाई , जब ऐसा समर्पण हो तो कौन भला अपना नहीं होना चाहेगा ।
ReplyDeleteमैं तो गायब हुआ।
ReplyDeleteअरे यार इतनी संजीदगी से याद करोगे किसी को तो लगता है किसी के चक्कर में हो या अब जल्द ही तुम्हारी शादी होने वाली है :)
ReplyDeleteमेरे जिगर के सरखे-सरखे में
ReplyDeleteकुछ और नहीं
बस तू ही तू..
मेरे लहू के कतरे-कतरे में
कुछ और नहीं
बस तू ही तू..
बहुत ही खूबसूरत रचना...
अजीब भुक्खड़ हो, टिपण्णी में भी स्वाद ढूंढते हो...क्या होगा तुम्हारा!
ReplyDeleteकोई चिंता कर रहा है क्या होगा तुम्हारा :)
ReplyDeleteइस अच्छी रचना के लिए
ReplyDeleteआभार .................
कोई होता जिसको अपना.. हम अपना कह लेते यारो..
ReplyDeleteभाईजी,एक कविता लिखने में आप इतने त का प्रयोग करेंगे( मां के शब्दों में जियान करेंगे,रांगा करेंगे) तो बाकी हिन्दी के मास्टर लोगों को जब त,त की जरुरत होगी तो झाल बजाएंगे क्या?
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