Tuesday, August 25, 2009

कमीने इफेक्ट, "वैसे मैं भी फ को फ बोलता हूं"


जिधर देखो उधर ही एक ना एक पोस्ट या आर्टिकल "कमीने" सिनेमा का पड़ा हुआ है आजकल.. जैसे यह आज के फैशन का एक हिस्सा बन गया है.. देख भले ली हो मगर यदी कुछ लिखा नहीं तो छीछालेदर होना ब्लौगजगत में आवश्यक है.. और हम तो ऐसा चाहते हैं नहीं, सो चलते चलते हम भी इस धर्म को निबाह ही जाते हैं..

यहां कई गुणीजन विशाल भारद्वाज को गरिया चुके हैं, कुछ आहत हैं, तो वहीं कुछ लोग इसे शानदार कमर्सियल सिनेमा बता कर विशाल भारद्वाज को कुछ नया करने की बधाई दे चुके हैं.. गरियाने वाले अधिकतर लोग इस सिनेमा कि तुलना ओमकारा और मक़बूल से कर रहे हैं, वहीं कुछ लोग इसके अंत में हुई अजिबोगरीब हिंसा को टेरंटिनो के सिनेमा की नकल बता रहे हैं.. वहीं कुछ लोग इसके बहाने टेरंटिनो की क्लासिक किलिंग को भी दाद दे रहे हैं.. अब जबकी लगभग सभी कुछ लिखा ही जा चुका है तो मैं क्या लिखूं? ठीक है, मैं आपलोगों को परदे के बाहर का सिनेमा दिखाता हूं..

21 अगस्त, शुक्रवार रात 9 बजकर 10 मिनट.. दोस्तों का फोन आया कि कहां हो तुम, हम सिनेमा हॉल के बाहर खड़े तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.. "आखिर इंतजार करें भी क्यों ना? टिकट मेरे ही पास जो था.. :)" मैं चेन्नई के सत्यम सिनेमा के बाईक पार्किंग में बाईक पार्क करते हुये कहा कि बस आ रहा हूं दो मिनट में..

चेन्नई में दो-तीन जगह ही ऐसी है जहां खूबसूरत लड़कियां देखने को मिलती हैं, उसमें से सत्यम मल्टीप्लेक्स भी एक है.. उस पर भी स्वाईन फ्लू(देखा, मैंने फ को फ बोला ना? :)) का हमला बोला जा चुका था.. बहुत सारे लोग मुंह पर कुछ ना कुछ बांधकर घूम रहे थे.. ऐसे में लड़कियों के लिये तो और भी आसानी थी, उनके पास दुपट्टा या स्कार्फ तो हमेशा ही होता है.. आगे इस पर और कुछ ना लिखा जा सकेगा मुझसे.. सुबुक.. :(

अंदर जाते समय चेकिंग हुई, वो चेकिंग भी कुछ ऐसी कि अगर कोई कुछ ले जाना चाहे तो आराम से ले जा सकता है.. जिस स्क्रीन में कमीने चल रही थी उसके अंदर जाकर पता चला की हमारे पांच टिकटों में से दो टिकट एक तरफ थी तो वहीं बाकी तीन टिकट उसी रो के बिलकुल अंत में.. अब सबसे किनारे वाला सीट हो तो देखने में दिक्कत आनी स्वभाविक है.. सो मैंने वह सीट पकड़ी जहां से सबसे अच्छे से सिनेमा दिख सकती है.. हमारे मित्र आफ़्रोज़ मुझसे कहते रह गये कि यहां मैं बैठूंगा, मगर मैंने उन्हें यह कह कर पटाया की मान लो मेरे बगल में कोई लड़की आकर बैठती है तो आज तुम्हें एक भाभी मिल जायेगी.. उस समय तो वह मान गया, मगर जब मेरे बगल में एक लड़का आकर बैठ गया तो उसने फिर जिद पकर ली.. तब मुझे धारा 377 की सहायता लेनी पड़ी.. ;)

खैर सिनेमा शुरू हुई और वह सीन भी आया जब शाहिद कपूर को कोकिन एक गिटार में मिलता है.. जैसे ही उसने कोकिन निकाला वैसे ही पीछे से एक लड़के की आवाज आई, "अरे ये तो सत्तू है.." उसके बगल में से किसी लड़की की आवाज आई, "नहीं यार! कोकिन है.." फिर दो-तीन लड़के-लड़कियों की आवाज आने लगी.. "ये सत्तू है.." "नहीं ये कोकिन है.." मैंने आगे से आवाज लगाई, "हां बेटा! सत्तू है तो लिट्टी बना कर खा ले ना?" मेरे बगल में बैठे आफ़्रोज़ ने मुझे केहुनी मारी और धीरे से फुसफुसा कर मुझे बोलने से मना किया.. फिर पीछे से आवाज आई, "बनाऊंगा, जरूर बनाऊंगा.. मगर तुझे नहीं बुलाऊंगा.." और फिर वे लोग और हम लोग, सभी हंसने लगे.. तब तक सिनेमा फिर से अपनी गती पकर चुका था और सभी उस गति के साथ लय ताल मिलाने लगे थे..

इंटरवल के समय मैं पॉपकार्न वाले काऊंटर के बगल में लगे पोस्टरों को देख रहा था.. तभी पीछे से किसी लड़की की आवाज आई, "एक्सक्यूज मी!!" मैंने बिना उसे देखे उसे जाने का रास्ता देते हुये मुस्कुराते हुये कहा, "सॉरी! आई कान्ट एक्सक्यूज.." फिर उसका चेहरा देखा तो अजीब तरह से मुझे देखते हुये वो काऊंटर के लाईन में लग गई और मैं फिर से पोस्टर को देखने लगा.. तभी फिर पीछे से किसी लड़के की आवाज आई, "एक्सक्यूज मी!!" मैंने उसे भी बिना देखे उसे जाने का रास्ता देते हुये मुस्कुराते हुये कहा, "सॉरी! आई कान्ट एक्सक्यूज.." वो लड़का हंसते हुये आगे बढ़ा और काऊंटर के लाईन मे लगते हुये बोला, "नाइस आन्सर.. आगे से मैं भी यही कहा करूंगा.." अबकी वह लड़की उसे अजीब तरीके से देखने लगी.. पक्के से सोच रही होगी कि सभी लड़के शायद ऐसे ही खिसके होते हैं.. ;)

सिनेमा खत्म हो चुकी थी.. मैं आफ़्रोज़ को अपने बाईक पर बिठाया और घर तक का रास्ता लगभग 10-12 किलोमीटर की दूरी 10-15 मिनट में पूरी की और जिसमें अधिकतम रफ़्तार 90 किलोमीटर प्रति घंटे कि थी.. रास्ते में मैं सोच रहा था कि मैं भी तो 'फ' को 'फ' ही बोलता हूं, तो इस बात को लेकर इतने चर्चे क्यों हैं.. बोलकर दिखाऊं क्या?

ठीक है, ठीक है.. बोल कर दिखाता हूं.. "मेरा नाम प्रफान्त प्रियदर्फी है.." ;)


चलते-चलते -
पहले ही इस सिनेमा की इतनी तारीफ मैंने सुन रखी थी कि मैं बस मस्ती करने के मूड में सिनेमा देखने गया था ना की कोई गूढ़ अर्थ ढ़ूंढ़ने.. ना ही ओमकारा या मक़बूल से इसकी तुलना करने में समय गंवाया.. बस मस्त होकर सिनेमा देखी और खूब इंज्वाय करके वापस आ गया.. अपना तो पैसा वसूल..

Monday, August 24, 2009

पता है आपको, आज मेरा पहला जन्मदिन है

पता है आपको, आज मेरा पहला जन्मदिन है.. और मेरे पहले जन्मदिन पर छोटे पापा ने मुझे सुबह-सुबह ढ़ाई बजे एक कविता लिख कर एस.एम.एस. किया.. आज आप वही कविता पढ़िये.. कल आपसे ढ़ेर सारी बातें करूंगा, अब मैं बड़ा जो हो गया हूं..

देखो, देखो ये मेरा ढ़ोल
डैडी लाये मुझे बिन बोल
मैं बजाऊं ढम धम् ढम
देख इसे खुशी छाये हरदम
ये है मेरी रेल गाड़ी
बैठ घूमू मैं दुनिया सारी
लाल रंग की गेंद है मेरी
पास में रखी हुई एक लॉरी
चाभी से यह चलती है
कभी शोर ना करती है
डैडी का लैपटॉप है मेरा तबला
हैप्पी बड्डे केशू, हुआ ये हल्ला


एक बात तो आपको बताना ही भूल गया.. डैडी बर्थडे गिफ्ट में मेरे लिये नया वाला ढोल लाकर दिये हैं, जिसे मैंने बर्थडे से पहले ही निकाल कर बजाना शुरू कर दिया है.. उसे बजाने में मैं बिलकुल खो जाता हूं.. एक बार जब मैं ढोल बजाने में खोया हुआ था तभी डैडी मेरा फोटो ले लिये.. देखिये इसमें..


डैडी एक विडियो भी लिये थे जिसे आप पहले ही यहां देख चुके हैं.. क्या कहा? आप नहीं देख पाये थे? तो इस लिंक पर जाकर देख लिजिये..

चलते-चलते इस लिंक को भी देखते जाईये.. आज से एक साल पहले मैं कैसा दिखता था.. मगर अब बिलकुल स्मार्ट और हैंडसम हो गया हूं..

Tuesday, August 18, 2009

आज रंग है ए मां, रंग है री (एक कव्वाली नुसरत साहब की)


आज इस कव्वाली को सुनाने से पहले मैं इससे जुड़े एक दिलचस्प घटना के बारे में बताना चाहूंगा..

अमीर खुसरो के सारे परिवार ने निजामुद्दीन औलिया साहब से धर्मदीक्षा प्राप्त की थी.. जब अमीर खुसरो महज सात वर्ष के थे तब उनके पिता अमीर सैफ़ुद्दीन महमूद अपने दोनों पुत्रों को लेकर औलिया साहब के दरबार में गये.. वहां अमीर खुसरो ने अपने पिता से आग्रह किया की 'मुरीद' इरादा करने वाले को कहते हैं और मेरा इरादा अभी मुरीद होने का नहीं है.. अतः अभी केवल आप ही अंदर जायें और मैं यहीं बाहर बैठता हूं.. अगर निजामुद्दीन चिश्ती वाक़ई कोई सच्चे सूफ़ी हैं तो खुद-बखुद मैं उनका मुरीद बन जाऊंगा..जब खुसरो के पिता भीतर थे तब खुसरो ने बैठे-बैठे दो पद बनाये और सोचा कि अगर औलिया साहब आध्यात्मिक बोध सम्पन्न होंगे तो वह मेरे मन की बात जान लेंगे और अपने द्वारा निर्मित पदों से मुझे उत्तर भी देंगे, और तभी मैं उनसे दीक्षा लूंगा अन्यथा नहीं..

खुसरो ने जो पद बनाये वह कुछ ऐसे थे -

"तु आं शाहे कि बर ऐवाने कसरत, कबूतर गर नशीनद बाज गरदद..
गुरीबे मुस्तमंदे बर-दर आमद, बयायद अंदर्रूं या बाज़ गरदद.."


मतलब - तू ऐसा शासक है कि यदि तेरे प्रसाद की चोटी पर कबूतर भी बैठे तो तेरी असीम अनुकंपा एवं क्रिपा से बाज बन जाये..

खुसरो मन में यही सोच रहे थे कि भीतर से संत का एक सेवक आया और खुसरो के सामने यह पद पढ़ा -

"बयायद अंद र्रूं मरदे हकीकत, कि बामा यकनफ़स हमराज गरदद..
अगर अबलह बुअद आं मरदे - नादां, अजां राहे कि आमद बाज गरदद.."


अर्थात - हे रहस्य के अन्वेषक, तुम भीतर आओ, ताकी कुछ समय तक हमारे रहस्य-भागी बन सको.. यदि आगुन्तक अज्ञानी है तो जिस रास्ते से आया है उसी रास्ते लौट जाए..

खुसरो ने जैसे ही यह पद सुना, वे आत्मविभोर और आह्लादित हो सीधा संत के चरणों में नतमस्तक हो गये और उनसे दीक्षा ली..

इस घटना के बाद खुसरो जब अपने घर पहूंचे तो वे मस्त होकर झूम रहे थे.. वे गहरे भावावेग में डूबे थे और अपनी माताजी के पास कुछ गुनगुना रहे थे.. आज क़व्वाली और शास्त्रीय व उप-शास्त्रीय संगीत में अमीर खुसरो द्वारा रचित जो "रंग" गाया जाता है वह इसी अवसर का स्मरण स्वरूप है..

आज रंग है ऐ मां रंग है री,
मेरे महबूब के घर रंग है री..
अरे अल्लाह तू है हर,
मेरे महबूब के घर रंग है री..

मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया,
निजामुद्दीन औलिया-अलाउद्दीन औलिया..
अलाउद्दीन औलिया, फ़रीदुद्दीन औलिया,
फ़रीदुद्दीन औलिया, कुताबुद्दीन औलिया..
कुताबुद्दीन औलिया, मोइनुद्दीन औलिया,
मोइनुद्दीन औलिया, मुहैय्योद्दीन औलिया..
आ मुहैय्योद्दीन औलिया, मुहैय्योद्दीन औलिया..
वो तो जहां देखो मोरे संग है री..

अरे ऐ री सखी री,
वो तो जहां देखो मोरो संग है री..
मोहे पीर पायो,
निजामुद्दीन औलिया, आहे, आहे आहे वा..
मुंह मांगे बर संग है री,
वो तो मुंह मांगे बर संग है री..
निजामुद्दीन औलिया जग उजियारो,
जग उजियारो जगत उजियारो..
वो तो मुंह मांगे बर संग है री..
मैं पीर पायो निजामुद्दीन औलिया..

गंज शकर मोरे संग है री..
मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखयो सखी री..
मैं तो ऐसी रंग..
देस-बदेस में ढ़ूंढ़ फिरी हूं, देस-बदेस में..
आहे, आहे आहे वा,
ऐ गोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन..
मुंह मांगे बर संग है री..
सजन मिलावरा इस आंगन मा..
सजन, सजन तन सजन मिलावरा..
इस आंगन में उस आंगन में..
अरे इस आंगन में वो तो,
उस आंगन में..

अरे वो तो जहां देखो मोरे संग है री..
आज रंग है ए मां रंग है री..
ऐ तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन..
मैं तो तोरा रंग भायो निजामुद्दीन..
मुंह मांगे बर संग है री..
मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी सखी री..
ऐ महबूब इलाही मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी..
देस-विदेस में ढ़ूंढ़ फिरी हूं..
आज रंग है ऐ मां रंग है ही..
मेरे महबूब के घर रंग है री.....




अभी-अभी घर(पटना) गया था तब मुझे नुसरत के सूफियाना रंग में डूबे कव्वालियों का कलेक्शन भैया की कार में रखा मिला.. अधिकांश मेरे पहले से सुने हुये थे.. मगर जब से कैसेट दौर गुजरा और सीडी का दौर आया, वैसे ही एक एक करके सभी गीतछूटता चला गया.. जब मैंने भैया की कार में इसकी सीडी देखी तब मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा और अंत समय में, जब मैं घर से निकलने लगा था, उन सारे एमपीथ्री को अपने एक्सटर्नल ड्राईव में कॉपी किया.. कुल 15 कव्वालियां थी उसमें और सभी अपने असली अंदाज में.. मेरा मतलब पूरी की पूरी कव्वालियां.. सभी लगभग 20-30 मिनट की.. यहां वापस चेन्नई आकर मैंने उन सारे गानों को अपने मोबाईल में डाल दिया और आजकल मेरा अधिकतर समय 'कमीने' सिनेमा के गानों के साथ उन गानों के साथ गुजर रहा है..

इस गाने को नुसरत की आवाज में सुनने के लिये आप इस लिंक से डाऊनलोड कर सकते हैं.. मैं पहले जिस साईट से पॉडकास्ट करता था आजकल वह ठीक-ठीक काम नहीं कर रहा है.. अगर आपमें से कोई मुझे कुछ अच्छे पॉडकास्ट करने की सुविधा देने वाले साईट्स का पता देंगे तो मेरे लिये सुविधा होगी और आप इन सारे कव्वालियों को सुन पायेंगे..

Download link for Aaj rang hai ri maan, rang hai ri (By Nusrat Fateh Ali khAn)

Friday, August 14, 2009

एक नास्तिक के मुंह से जन्माष्टमी? राम-राम, क्या जमाना आ गया है.. :)


मैं मंदिर नहीं जाता हूं, ना ही किसी पूजा में शरीक होता हूं.. मगर फिर भी राधा-कृष्ण की बातें जहां कहीं संगीतमय हो जाया करती है वहां मेरे लिये बस आनंदम ही आनंदम.. चाहे बात किसी राधा-कृष्ण कि अवधी भाषा में लिखी गई कव्वालिया हों या फिर दोहे या फिर भजन या फिर बंबईया सिनेमाओं के गीत.. मुझे वह अपने आप अपनी ओर खींचता सा महसूस होता है.. आप ये भी नहीं कह सकते हैं कि ये घर और आस-पास के परिवेश में बड़े होने के कारण हुआ है, क्योंकि तकरीबन कुछ-कुछ वैसा ही खिंचाव खुदा के दरबार में गाये गये कल्ट कव्वालियों को भी लेकर होता है.. अगर सही-सही बोलूं तो ठीक ऐसा ही दिवानापन मुझे रामायण की कथा और प्रेम या विरह रस में डूबी शानदार कवितायें और माईकल जैक्सन के गीतों में भी महसूस होता है..



आज कल चूंकि जन्माष्टमी का जोर भी है और भैया का बेटा जन्माष्टमी के दिन ही आज से एक साल पहले पैदा हुआ था, सो मन में जाने क्या आया और अंतर्जाल पर कृष्ण से संबंधित चीजें ढ़ूंढ़ने निकल पड़ा.. एक-दो गीत ऐसे मिले जिसने मुझे नौस्टैल्जिक कर दिया.. उन दिनों कि याद दिला दी जब घर के पास वाले किसी मंदिर से सुबह-सुबह चार बजे हम अपनी नींद तोड़ कर सुना करते थे और उसे बजाने वाले पंडे-पुजारियों को गरियाया करते थे.. पहला गीत कुछ ये है..

आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की ॥

गले में बैजंती माला, बजावै मुरली मधुर बाला ।
श्रवण में कुण्डल झलकाला, नंद के आनंद नंदलाला ।
गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली ।
लतन में ठाढ़े बनमाली;
भ्रमर सी अलक, कस्तूरी तिलक, चंद्र सी झलक;
ललित छवि श्यामा प्यारी की ॥


पूरा गीत पढ़ने और सुनने के लिये आप इस लिंक पर जा सकते हैं.. गीत हिंदी और आंग्ल, दोनों ही भाषा में लिखा हुआ है और मुझे यह चिट्ठा कभी किसी भी अग्रीगेटर पर नहीं मिला था.. शायद यह ठीक ही कहा गया है कि "सितारों से आगे जहां और भी है.." दूसरा गीत जिसे सुनकर मैं नौस्टैल्जिक हो उठा उसके किस्से भी सुबह उठकर पंडे-पुजारियों को गरियाने पर ही खत्म हुआ करते थे.. वह गीत ये रहा..


श्याम चूड़ी बेचने आया

मनिहारी का भेष बनाया
श्याम चूड़ी बेचने आया
छलिया का भेष बनाया
श्याम चूड़ी बेचने आया
छलिया का भेष बनाया
श्याम चूड़ी बेचने आया

गलियों में शोर मचाया
श्याम चूड़ी बेचने आया
छलिया का भेष बनाया
श्याम चूड़ी बेचने आया


इसे भी पूरा पढ़ने-सुनने के लिये आपको इस लिंक पर जाना होगा, आखिर जहां से मैंने यह सब उठाया है, वह भी तो कभी उतनी ही मेहनत किये होंगे इन गीतों को संजोने के लिये..

हिंदी सिनेमा कि बात करें तो, "मदर इंडिया" के एक गीत को मैं सबसे ऊपर रखूंगा.. जो अक्सर पाला बदल-बदल कर अक्सर मेरा रिंग टोन हो जाया करता है.. वह गीत है -

होरी आई रे कन्हाई रंग छलके,
सुना दे जरा बांसुरी..

बरसे गुलाल-रंग मोरे अंगनवा,
अपने ही रंग में रंग दे मोहे सजनवा..
मोहे भाये ना हरजाई रंग हल्के,
सुना दे जरा बांसुरी..
(पूरी तरह यादाश्त पर आधारित, सो त्रुटी होने कि पूरी गुंजाईश है..)

अगले गीत के बारे में अगर बात करें तो "जॉनी मेरा नाम" सिनेमा का गीत "मोसे मेरा श्याम रूठा" गीत के बारे में जरूर कहूंगा जो मुझे बहुत ज्यादा पसंद है.. एक झलक उसकी भी आपको दिखाये चलता हूं और यह झलक भी पूरी तरह से यादाश्त पर आधारित है..

जय जय श्याम, राधे-श्याम
राधे-श्याम, राधे-श्याम..
ए री हो...
मोसे मोरा श्याम रूठा,
काहे मोरा भाग फूटा,
काहे मैंने पाप ढोये,
असुवन बीज बोये..

छुप-छुप मीर रोये,
दर्द ना जाने कोये..


वैसे अगर सिर्फ होली की ही बात की जाये तो हिन्दी सिनेमा में अनेको गीत निकल आयेंगे, मगर उनमें से अधिकतर चलताउ गीत मुझे सिर्फ होली के समय ही अच्छे लगते हैं.. जो भंग के रंग के साथ फीके नहीं पड़ते हैं..

बस अभी-अभी मुझे रविश जी के ब्लौग पर एक तहसीन मुनव्वर जी कि लिखी हुई कुछ पंक्तिया मिली है, सो उन्हें मैं कैसे ना बांटू? यह भी आधे-अधूरे रूप में आपके सामने है.. पूरा पढ़ना चाहते हैं तो आप रविश जी के चिट्ठे पर ही जायें.. और अगर आपको पसंद आये तो यही गुजारिश है कि वह कमेंट आप उनके हिस्से में ही दे आयें..

चलो चलते हैं मथुरा में किसन की रास देखेंगे
किसन की बांसुरी से जागता अहसास देखेंगे

कभी बांके बिहारी को कभी राधा को देखेंगे
कभी मीरा की आंखों में मिलन की प्यास देखेंगे

कन्हैया लाल की भक्ति की रस में डूब जायेंगे
सुबह से शाम तक श्यामल की हम अरदास देखेंगे


वैसे तो गीत संगीत तो इतने हैं कि उस पर एक क्या हजारों ब्लौग लिखे जा सकते हैं और लिखे जा भी रहे हैं..
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अब कुछ बातें अपने किशन-कन्हैया, बाल-गोपाल के बारे में में भी करते जाता हूं.. अभी पिछले लगभग तीन सालों में मैं जब भी घर वापस आने को चलता हूं तो तो कुछ पीछे छूटने जैसा महसूस होने का अहसास खत्म सा होता जा रहा था.. अक्सर अब ऐसा होने लगा था जैसे कि जाना है तो मोह कैसा.. इन बातों से एक अलग तरह का अज्ञात भय सा भी होने लगा था.. मगर वह अहसास इसने फिर से जगा दिया.. अबकी जब घर से निकल रहा था तब आने का मन नहीं कर रहा था.. उसकी अनेकानेक लीलायें देखने के बाद अब उसकी रास लीलायें भी देखने का मन करने लगा है.. :)

सोच सोच कर आह्लादित होता हूं कि किसी दिन वह अपनी मम्मी को अपनी गर्ल फ्रेंड के बारे में बतायेगा और भाभी उसकी बाते आंखें गोल गोल करके आश्चर्य से सुनेगी और सोचेगी कि कैसे यह इतनी जल्दी बड़ा हो गया? अभी भी बहुत कुछ है लिखने के लिये, मगर मेरा एक मित्र बहुत देर से गाली दे रहा है कि टी.टी.खेलने चलो.. आज मैंने अपना काम जल्दी खत्म किया और ब्लौग लिखने बैठ गया, और वह अभी अपना काम खत्म किया और मुझे गालियां देने बैठ गया.... :D

अपने बाल गोपाल के बारे में फिर लिखता हूं..

Tuesday, August 11, 2009

बिहारी बाबू कहिन - भैया हम पतरकार बन गये

घर जाने पर कई नये पुराने मित्रों और जान-पहचान के लोगों से मुलाकात हो जाया करती है.. उन लोगों से मिलना अच्छा लगता है और जहां पांच मिनट का काम हो वहां आधे घंटे बतियाने में ही निकल जाते हैं.. कई नये-पुराने, अच्छे-बुरे अनुभव भी होते हैं.. तो वहीं कुछ ऐसे अनुभव भी होते हैं जो इतना मजेदार होता है कि बस दोस्तों से उसे बांचने का मन भी करता है.. मैं उन लोगों को बिहारी बाबू कह कर बुला रहा हूं, क्योंकि उनकी बोलचाल में ठेठ बिहारिपन होता है.. और चूंकि मैं बिहार का ही हूं सो मुझे उनमें एक अलग ही अपनापन नजर आता है, नहीं तो बाहर रहते हुये ऐसा लगता है जैसे मैं अपने चेहरे पर एक मुखौटा ओढ़ कर घूम रहा हूं.. खैर चलिये समय-समय पर ऐसे बिहारी बाबूओं से आपको मैं मिलवाता रहूंगा..

अभी तो फिलहाल पढ़ते हैं इस बिहारी बाबू के संग हुये बातचीत का ब्योरा..

जब हम उससे पहली बार मिले थे तब ऊ 15-16 साल का लईका था, हमसे 5-6 साल छोटा.. साथे में किरकेट खेलते थे.. हरमेशा ऊ एक-दू ठो कट्टा लेकर मैदान पर लेकर आता था और दिखाता था, "भईया! ई देखिये नयका कट्टा, काल्हे खरीदे थे(या फिर अपने दोस्तवा से मांग कर ला रहे हैं).. हम भी देखते थे, लेकिन कुछो बोलते नहीं थे.. भले ही ऊ लंपट किसम का लईका था, लेकिन हमको मानता बहुत था.. फिर हमको पढ़ाई-सढ़ाई के लिये पटना से बाहर जाना पड़ गया.. फिर पांन-छौ महिना में एक-दू बार घर आना-जाना सुरू हो गया.. बीच में कईहो मिल जाता था.. हम उससे पूछते थे,

"क्या बाबू! कौंची कर रहा है आज-कल?"

हमरा बात सुन कर ऊ दांत चियार कर बोलता, "भईया, इस बार फेनो आई.एस.सी. में फेल हो गये.."

हर बार वजह अलग-अलग बताता.. जईसे, "ओन्ने पटेल नगर में मनोज सर के हियां जे लईकियन सब पढ़े जाती है, उसके चक्कर में फेल हो गये.." तो कभी, "होईजे मस्त मार-पीट हुआ अऊर अबकी पिटा गये.. सो ठीक से पढ़ नहीं पाये.."

इस बार घर से जईसने हम बाहर निकले हमको ऊ साईकिल पर जाते दिख गया.. दूरे से हैंडल छोड़कर और दांत चियार कर बोला, "परनाम भैया.. कब आये?"

"बस बिहान(कल) सबेरे-सबेरे आये हैं.."

"आप आते हैं तो दर्सन भी नहीं देते हैं.."

"अरे भाई, सिकायत काहे करता है? देखो, कल आये अऊर आज दिख गये तुमको.. अऊर बताओ, आई.एस.सी. पास किया की नहीं?"

"पास कर गये भईया.. सेकेन्ड डिविजन से.."

"त का कर रहा है आजकल?"

"बी.ए. पार्ट भन में हैं.. और नौकरी भी मिल गया है.."

"बाह! कौंची में काम मिला?"

"भईया, पतरकार बन गये हैं.." अबकी इतना बड़का दांत चियारा कि ऊसका बत्तिसों दांत दिखने लगा.. "पूछियेगा नहीं कि कौन पेपर में?"

"नाह.. हम नहीं पूछेंगे.. बस जहां काम कर रहे हो वहीं बढ़िया से काम करना.."

"काहे नहीं पूछियेगा?"

"पता चल जायेगा कि तुम किस अखबार में काम कर रहे हो तो हम ऊ अखबार पढ़ना छोड़ देंगे.." मजाक में मैंने असली बात उसे ऐसे कही जिससे उसे बुरा ना लगे..

"आप त मजाक उड़ा दिये मेरा.." बोला फिर साईकिल का हैंडल सीधा करते हुये बोला, "अभी थोड़ा जल्दी में हैं.. शाम में पी.के. के हियां आईयेगा ना, अच्छा से बतियायेंगे.." बोलकर चला गया.. (मेरे घर के पास एक होटल है पी.के.होटल)..

इस घटना के सभी नाम नकली और पात्र असली हैं.. :)

Friday, August 07, 2009

अप्पू, तुम्हारा नाम क्या है?


- अप्पू, तुम्हारा नाम क्या है?

- अप्पू..

- पापा का क्या नाम है?

- अप्पू..

- मम्मी का क्या नाम है?

- अप्पू..

- दीदी का क्या नाम है?

- अप्पू..

दीदी कि छोटी बिटिया, अपूर्वा जो लगभग ढ़ाई साल की है, से ये कुछ सवाल मैंने अलग-अलग तरीके से किये तो मुझे अलग-अलग तरह के जवाब भी मिले.. पहला जवाब आप ऊपर पढ़ ही चुके हैं.. दुबारा पूछने पर यह जवाब मिला..

- अप्पू, तुम्हारा नाम क्या है?

- अप्पू..

- पापा का क्या नाम है?

- पापा..

- मम्मी का क्या नाम है?

- मम्मी..

- दीदी का क्या नाम है?

- दीदी..

फिर से मैंने उससे पूछा तो इस बार सही सही जवाब कुछ इस तरह मिला..

- अप्पू, तुम्हारा नाम क्या है?

- अप्पू..

- पापा का क्या नाम है?

- अजित कुमार..

- मम्मी का क्या नाम है?

- रश्मि..

- दीदी का क्या नाम है?

- अदिति..

अब बीच में दीदी मुझसे बोली कि इससे अंग्रेजी में पूछो "हाऊ आर यू", और मैंने पूछ लिया.. उसने सटीक उत्तर दिया, "आई एम फाईन".. और उसके बाद फिर से मैंने वही पुराने प्रश्न दोहराये जिसका उत्तर कुछ यूं था..

- अप्पू, तुम्हारा नाम क्या है?

- आई एम फाईन..

- पापा का क्या नाम है?

- आई एम फाईन..

- मम्मी का क्या नाम है?

- आई एम फाईन..

- दीदी का क्या नाम है?

- आई एम फाईन.. :)

Wednesday, August 05, 2009

क्या आपने मेरा ढोल देखा है?

क्या आपने मेरा ढोल देखा है? क्या कहा, नहीं देखा है? तो आज देख लें, बाद में ये मत कहें कि केशू ने अपना ढोल भी नहीं दिखाया.. अभी देखने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आपको मैं फ्री में बजा कर भी सुना रहा हूं..

Monday, August 03, 2009

पापाजी से संबंधित कुछ और बातें

उस दिन जब पापाजी घर वापस आये तब मैं, भैया और पाहूनजी (जीजाजी) तीनों तुरत नीचे पहूंच गये उनका स्वागत करने के लिये.. कुछ-कुछ सुबह का माहौल भी ऐसा ही कुछ था.. पापाजी के रिटायरमेंट के मौके पर हम सभी का घर पर इकट्ठे होने का इरादा हम लोगों का 1 साल पहले से ही बन रहा था.. इस छुट्टी से मेरी भी एक स्वार्थपूर्ती हो रही था, वह यह कि मैं ना जाने कितने सालों के बाद अपने जन्मदिन पर पटना में अपने घर पर रहूंगा.. मेरे पिछले पोस्ट के कमेंट में लवली ने जो पूछा था शायद अब उसका उत्तर उसे मिल गया होगा.. हां मैं अभी अपने घर पटना में हूं..



पापाजी अंतिम दिन ऑफिस जाते हुये

उस दिन पापाजी जब घर लौटे तब वह बहुत खुश दिख रहे थे.. हमने जो भी उनके स्वागत में तैयारी की थी, उसे पूरा करने के बाद हम सभी को पटना का सुप्रसिद्ध हनुमान मंदिर जाना था फिर वहां से कहीं खाना खाने के लिये.. पापाजी, मैं और दीदी कि बिटिया एक गाड़ी में बैठे और बाकी लोग दूसरी गाड़ी में.. अब चूंकि मैं ही था वहां जिसे पापाजी कुछ बातें कर सकते थे, सो बातों ही बातों में उन्होंने मुझे बताया कि आज(31-जुलाई) जब वह अपने जगह पर बैठ कर कुछ काम निपटा रहे थे तब अचानक से बिहार के मुख्य सचिव, अनूप मुखर्जी जी वहां किसी आम व्यक्ति कि तरह बिना किसी को बताये आ गये और उनके सामने आकर बैठ गये.. काम करने में पापाजी को इस बात का ख्याल नहीं था कि कौन आ रहा है और कौन जा रहा है, सो अनूप मुखर्जी जी के आने का पता भी पापाजी को थोड़ी देर बाद ही चल पाया.. वहां इस तरह पहूंच कर उन्होंने जो इज्जत बख्शी उससे वह बिलकुल आत्मविभोर हो उठे थे..

जब पापाजी यह किस्सा मुझे सुना रहे थे तब मैं कुछ और ही सोच रहा था.. मैं सोच रहा था कि पापाजी का अंतिम दिन था वह और पापाजी फिर भी इतनी तन्मयता से अपना काम कर रहे थे.. और मेरे साथ हालात यह है कि अगर आज मैं किसी और कंपनी में ज्वाईन करने के लिये अपनी इस कंपनी में रिजाईन कर दूं तो बस अभी से ही काम करने में जी ना लगे.. चलिये इसी बहाने एक और पाठ मैंने पापाजी से सीख लिया..


घर आते समय

जैसा कि मेरे भैया ने पिछले पोस्ट पर कमेंट करते हुये पापा जी के अन्य कार्य अनुभवों के बारे में बताये हैं कि वह प्रशासनिक सेवा में आने से पहले 4 साल P&T ऑडिट में थे और उससे पहले 1 साल सेन्सस में भी काम कर चुके हैं.. यानी कुल मिलाकर पूरे 38 साल का कार्य अनुभव उनके साथ है, और मेरे ख्याल से यह भी उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि है कि 38 साल बिहार प्रदेश में काम करने के बाद भी कभी उनके खिलाफ कहीं कोई शिकायत दर्ज नहीं की गई.. और वह भी उस समय में जब बिहार घोटालों का राज्य बना हुआ था..

फिलहाल पापाजी एक अन्य नौकरी की राह देख रहे हैं.. जिस दिन वह उसे पकड़ लेंगे, उस दिन मैं उसके बारे में विस्तार से बताऊंगा.. फिलहाल इतना तो जरूर कहूंगा कि जिसके पास 33 सालों का प्रशासनिक अधिकारी का अनुभव हो और कुल जमा 38 सालों का अनुभव हो वह असाधारण नौकरी कि तलाश में ही रहेंगे..

Sunday, August 02, 2009

पिताजी द्वारा किया गया आभार संबोधन

कल मेरे पापाजी रिटायर हो गये। अपने जीवन के पूरे 33 साल किसी नौकरी को देने के बाद उसे अचानक से छोड़कर चले जाना कैसे होता है यह उन्हीं से पूछिये जिनके साथ यह घटा हो। मगर कल जब वह घर वापस आये तो गर्व से उनका सीना कुछ और चौड़ा था और दर्प से चेहरे पर कुछ और चमक थी। क्यों? यह मैं अगले पोस्ट में बताऊंगा, फिलहाल आज आपके सामने मैं उन पंक्तियों के साथ आया हूं जो पापाजी ने अंतिम दिन दफ़्तर छोड़ने से पहले आभार संबोधन करते हुये कहा।


आदरणीय प्रधान सचिव महोदय
एवं
ग्रामीण विकास विभाग परिवार के सभी सदस्य मित्रों,


बिहार प्रशासनिक सेवा के सदस्य के रूप में लगभग 33 वर्षों की सेवा के उपरांत आज मैं सेवा निवृत हो रहा हूं। बन्धुवों, यह कोई अनहोनी घटना नहीं है, बल्कि प्रकृति के शाश्वत नियम कि "जो आज धरती पर आया है कल यहां से जायेगा" के अनुरूप कि जो सेवा में आया है कल रिटायर होगा, के अनुरूप ही है।

आज से पहले तक मैं दुसरों को सेवा निवृत होते देखता था और अवसर मिलने पर भाषण देता था कि आजतक जो सरकारी सेवा का बंधन था उससे उन्मुक्त होकर नये स्वतंत्र जीवन में प्रवेश करने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है, कोई बंधन नहीं रहा और उन्मुक्त गगन में स्वतंत्र पंछी की तरह उड़ने के लिये सारा आसमान खुला हुआ है आदि-आदि।

परन्तु, आपने पिंजरे में बंद तोता को देखा होगा। तोता बंधन में नहीं रहना चाहता और खुले आसमान में स्वच्छन्द उड़ते रहना उसकी स्वभाविक वृत्ति है। फिर भी यदी वह तोता कुछ दिन पिंजरे में बंद रह जाये तो उस पिंजरे से ही तोता को मोह हो जाता है और अवसर मिलने पर भी, यानी पिंजरे का दरवाजा अचानक खुल जाने पड़ भी वह पिंजरे में ही रहना चाहता है - तुरंत उड़ नहीं जाता। यदि वह पिंजरे से बाहर निकल भी आये तो वह पुनः पिंजरे में ही जाना चाहता है। किन्तु यह स्थिति बहुत देर तक नहीं नहीं रहती और समझ आते ही कि वह बंधनमुक्त हो चुका है, वह खुले आसमान में उड़ जाता है।

मित्रों, आज मेरी भी स्थिति कुछ-कुछ उस तोते जैसी ही है. लगभग 33 साल सरकारी सेवा रूपी पिंजरे में रहा उस पिंजरे का मोह भी कुछ-कुछ होना स्वाभाविक ही है, किन्तु उस तोते जैसे खुले आसमान में स्वच्छन्द विचरने का आकर्षण भी कम नहीं है।

खैर, अब छोड़ता हूं इन दार्शनिक एवं छायावादी बातों को। जहां तक ग्रामीण विकास विभाग में मेरे बीते दिनों की बात है, मैं यहां 20 सितम्बर 2006 को संयुक्त सचिव के रूप में योगदान दिया और विभाग के विभिन्न प्रशाखाओं का कार्य करता आया हूं। इस दौरान प्रशाखा-8 की "नरेगा" योजना को छोड़कर विभाग की लगभग सभी प्रशाखाओं में कार्य करने का मौका मिला। फलस्वरूप विभाग के अधिकांश कर्मचारियों एवं पदाधिकारिओं के साथ जहां सीधा सम्पर्क स्थापित हुआ वहीं आपलोगों से सचिवालय संवंधी विभिन्न कार्यों को सीखने का मौका भी मिला। मेरा स्वयं का कार्य-कलाप कैसा रहा इसका आकलन करने का काम मैं आपलोगों पर ही छोड़ता हूं, किन्तु इतनी बात कहने का मुझे भी अधिकार है कि मैंने अपना कार्य सच्ची निष्ठा एवं निस्वार्थ भाव से तत्परतापूर्वक किया है।

इस क्रम में अपने आदर्श तत्कालीन प्रधान सचिव बिहार श्री अनूप मुखर्जी जी का मैं खास तौर से दिल से शुक्रगुजार हूं कि उनके मार्गदर्शन में मैंने अपने कार्यों में दिनानुदिन निखार लाया और कार्य निष्पादन के लिये बहुत सारी नयी बातों एवं दृष्टिकोण से भी परिचित हुआ। उन्ही की प्रेरणा, समालोचना एवं प्रशिक्षण देने की शैली के सहारे ग्रामीण विकास विभागीय योजनाओं, खासकर बी.पी.एल., इंदिरा आवास योजना, स्वर्णजयंती ग्राम स्वरोजगार योजना आदि के प्रशिक्षक के रूप में निष्पात हो सका एवं राज्य के तत्कालीन सभी प्रमंडलीय आयुक्त, जिला पदाधिकारी, उप विकास आयुक्त, प्रखण्ड विकास पदाधिकारी एवं अन्य पदाधिकारी/कर्मचारी को इन योजनाओं से संबंधित प्रशिक्षण देने का सुअवसर भी मिला।

वर्तमान प्रधान सचिव, श्री विजय प्राकश जी के साथ बहुत कम ही समय मुझे कार्य करने का मौका मिला, किन्तु ग्रामीण विकास विभागीय योजना एवं उसके क्रियान्वयन संबंधी उनकी सोच से मैं प्रभावित हूं। मुझे दुःख है कि उनकी सोच के अनुरूप योजनाओं के कार्यान्वयन में सहयोग देने से मैं वंचित रहूंगा, किन्तु मेरी शुभकामना है कि इस कार्य में वे सफल हों।

अंत में आप सबों को हार्दिक शुभकामना देते हुये मैं आभार एवं धन्यवाद प्रकट करता हूं कि आप सबों ने मुझे अपने कार्य संपादन में भरपूर सहयोग दिया। साथ ही मेरी कार्यावधि के दौरान यदि किसी को मेरी किसी बात या कार्य से दुःख पहुंचा हो तो इसके लिये क्षमायाचना करता हूं, हालांकि प्रकटतः जान बुझकर मैंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है।

एक बार पुनः आप सबों को हार्दिक शुभकामना एवं धन्यवाद!

आपका शुभाकांक्षी
उदय कान्त लाल दास
निदेशक (सामाजिक वानिकी),
ग्रामीण विकास विभाग,
बिहार, पटना