Thursday, January 31, 2008

"अविनाश कैसे बना लौटकर अविनाश" और उनसे जुड़े कुछ तथ्य

कल मैंने घन्नू झारखंडी जी का पोस्ट यूं ही पढकर छोड़ दिया था क्योंकि मुझे ये जानने की कोई उत्सुकता नहीं थी की ये लौटकर अविनाश कब और कैसे बने। पर आज इतनी टिप्पणीयां देखकर रहा नहीं गया और बैठ गया लिखने के लिये। पहले तो टिप्पणी लिखी थी फिर सोचा की क्यों ना कोई पोस्ट ही गिरा दिया जाये।

कल जैसा की मनोज जी ने कहा था की उन्हें मुन्ना भैया(मैं तो यही कहकर बुलाउंगा उन्हें) कुछ घमंडी स्वभाव के लगे थे। तो उस पर मेरा कहना ये है की मुन्ना भैया को जो बात सही लगती है उसे सही साबित करने के लिये ये किसी से भी किसी भी स्तर के बहस के लिये तैयार रहते हैं और तब तक उसे सही मानते हैं जब तक कोई ठोस तर्क उसके विरोध में उन्हें ना मिल जाये। ये एक बहुत बड़ी बजह है जिसके कारण लोग उन्हें कई बार घमंडी स्वभाव का समझ बैठते हैं। शायद मनोज जी के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा।

एक बात जो इन्हें भीड़ से अलग खड़ा करती है वो ये है की इन्होंने दुनिया कि कभी परवाह नहीं की और जो भी इनके मन में आया वही इन्होंने किया है अभी तक। और सबसे बड़ी बात तो ये है की आज तक ये कोई भी काम कुछ भी छुप-छुपा कर नहीं किये हैं। जो भी किये हैं सबके सामने। खुल्लम खुल्ला। चाहे इसके लिये इन्हें कितना भी विरोध का सामना क्यों ना करना पड़ा हो।

मेरी जानकारी में बस एक बात ऐसी है जो इन्होंने कुछ दिनों तक हम परिवार वालों से छिपा कर रखी थी, और उससे जुड़ी एक मजेदार घटना भी है। वो बात है उनकी शादी से जुड़ी हुई, जिसे कुछ पारिवारिक समस्या के कारण इन्होंने छुपाया था।

मजेदार घटना :
हुआ ये की इन्होंने उस समय तक शादी कर ली थी और घरवालों से छुपा रखा था। अब मेरे पापाजी एक प्रसाशनिक अधिकारी हैं सो उन्हें पत्रकारों से अक्सर पाला पड़ता ही रहता है। एक बार कोई पत्रकार पापाजी से मिलने के लिये आया हुआ था, उससे पापाजी ने बस यूं ही कहा की मेरा भतीजा भी पत्रकार है(उस समय मुन्ना भैया प्रभात खबर में थे)। उसने नाम पूछा, पापाजी ने बताया अविनाश। उसने कहा की मैं दो अविनाश को जानता हूं, तो पापाजी ने कहा की लौटकर अविनाश। तो उसने कहा की वही ना जिसने अभी शादी की है। अब मेरे पापाजी चौंक गये। बोले की नहीं उसकी तो अभी शादी नहीं हुई है। पर उसने पूरे आत्मविश्वास से कहा की नहीं सर उसकी तो शादी हो चुकी है। उसने तो पार्टी भी दे दी है।

खैर पापाजी घर आये और हम सबको बताया साथ ही ये भी कहा की किसी को भी ये बात मत बतान चाहे कुछ भी हो। वो जब तक खुद नहीं बताये तब तक किसी को ये बात पता नहीं चलनी चाहिये। बाद में मुझे पता चला की एक बार मुन्ना भैया हमें भाभी से अपनी महिला मित्र कह कर मिलवा चुके थे। :D

अब उसके कुछ दिन के बाद की बात है। दिसम्बर का महीना था और पटना में पुस्तक मेला लगा हुआ था। मैं वहां घुम रहा था उसी समय मुन्ना भैया भी को भी वहीं देखा। वो भाभीजी के साथ थे। जैसे ही वे मुझे देखे थोड़ा हरबरा से गये और फिर से भाभी का परिचय मुझसे कराने लगे कि इनसे मिलो ये मेरी महिला मित्र हैं। मैंने कुछ कहा नहीं बस मुस्कुरा कर रह गया।

उस समय जब घर में सभी को पता चला तो हमारे समाज में कानाफूसी का लम्बा दौर चला था। सभी सोचते थे की हमारे समाज के बाहर कि है पता नहीं क्या करेगी घर आकर एडजस्ट नहीं कर पायेगी और भी ना जाने क्या-क्या। पर अगर आज की बात करें तो, मेरी मम्मी के शब्दों में, "मुक्ता(भाभी) बहुत अच्छी हैं, इनसे अच्छी मुन्ना को मिल ही नहीं सकती थी।" और मेरे मत भी मम्मी से कुछ अलग नहीं हैं। :)

अभी-अभी भैया ने मेरा पोस्ट पढा और मुझे एक तस्वीर भेजी जो कि इस पोस्ट पर बिलकुल सही फिट होती है.. सो इसे एडिट करके मैं वो तस्वीर भी लगा रहा हूं..
Thanks to bhaiya.. :)

अफ़लातून जी के साथ मुन्ना भैया

Wednesday, January 30, 2008

आज कोई मस्ती नहीं.. बस बचपन में की गई गंभीर बातें..

आज मैंने सोचा की हर दिन मैं फालतू कि बकवास करता रहता हूं, सो क्यों ना आज उन गंभीर बातों के बारे में आपको बताऊं जो मैंने और भैया ने मिलकर बचपन में किया था।

घटना 1 (एक कुत्ते की कथा)-
पापाजी उस समय बिहार के बिक्रमगंज नामक जगह के SDM हुआ करते थे जो पटना से ठीक 120 KM पर स्थित है। महीने में एक-दो बार पटना से बिक्रमगंज या बिक्रमगंज से पटना आना जाना हो ही जाता था। बीच रास्ते में पीरो नामक जगह पर एक कुत्ता हर बार सारे वाहन का पीछा करते हुये ना जाने कितनी ही दूर दौड़ता रहता था। सो एक बार मैं और भैया बैठ गये उस पर सोचने कि वो क्यों हर वाहन का पीछा करता है?
बहुत सोचा। कई तर्क दिये। और अंत में इस निर्णय पर पहूंचे की जरूर उस कुत्ते की मां की मौत किसी ट्रक के नीचे आने से हुई होगी और वो अपनी मां की कसम खाते हुये फिल्मी स्टाइल में सबसे चुन-चुन कर बदला लेने का सोचा होगा। :)

घटना 2 (बेचारा कौवा)-
हम(मैं और भैया) अक्सर सोचते थे कि लोग हर तरह के पंछी पालते हैं। तोता, मैना, कबूतर, गौरैया, फुदकी चिड़ैया, घूघूती(अपनी घूघूती बासूती नहीं, असली वाली :)) यहां तक की बाज और गिद्ध तक पालने की घटना सुनते हैं। पर कोई कौवा को क्यों नहीं पालता??
फिर हमने सोचा की कहीं से तो इसकी शुरूवात होनी चाहिये तो क्यों ना हम से ही ये शुरूवात हो। अब कोई कौवा तो बेचता नहीं है सो हमें ही उसे पकड़ना था पालने के लिये।
हमने बहुत कोशिश की मगर हम अंत तक सफल नहीं हो पाये। और अंततः एक तोता ही पाल कर संतोष कर लिये।

ये सभी घटनाऐं बिलकुल सही है। इनका कल्पानाओं से कोई लेना देना नहीं है। कल मैं लेकर आउंगा घटना नम्बर 3 जो एक तथ्य भी था हमारे लिये जिसे हमने सिद्ध किया था बचपन में और हम सोचते थे की इसके लिये हमें कोई पुरस्कार तो मिलना ही चाहिये। :)

एक परिचय मेरे भैया का। मेरे भैया IES की परिक्षा उत्तीर्ण करके अभी MES दानापुर कैंट में कार्यरत हैं।

Tuesday, January 29, 2008

क्या आपने ये गीत सुना है युनुस भाई??

युनुस जी आज के हिंदी चिट्ठाजगत के सबसे बड़े संगीत प्रेमी के रूप में जाने जाते हैं। मगर मुझे पूरी उम्मीद है कि वो ये गीत शायद ही सुने होंगे.. मैं काफी दिनों से ये गीत पोस्ट करने के बारे में सोच रहा था पर पता नहीं क्यों नहीं पोस्ट कर पाया।

लगभग छः महीने पहले आपने रजनीकांत की धमाकेदार सुपर हिट फिल्म शिवाजी द बास के बारे में सुना होगा। ये गीत उसी फिल्म का है। मैं जो गीत पेश कर रहा हूं उसका पहला गाना (सहाना चरन...) सुनने में कर्ण्प्रिय लगता है और दूसरा गीत (वाजी वाजी वाजी...) थोड़ा मस्ती भड़ा लगता है। बस ये मत पूछियेगा की इन गीतों का मतलब क्या है? मुझे नहीं पता है।

Shivaji Sahana Cha...



पोस्टर से लिया हुआ चित्र

Shivaji Vaaji Vaaj...


मुझे आज भी याद है जिस दिन मैंने अपनी नौकड़ी ज्वाईन किया था ये फिल्म उसी दिन रिलीज हुई था। मेरे साथ ज्वाईन करने वाले मेरे एक मित्र ने मुझे बताया था की वो पहली शो में ही ये फिल्म देख कर आया था और वो भी रात के 1 से 4 बजे वाला शो। जबकी सुबह 8:30 में आफिस भी पहूंचना था। क्योंकि उसके बाद अगले तीन महीने तक किसी भी थियेटर में कोई भी टिकट नहीं मिल रहा था। सभी बुक हो चुके थे।

अब क्या था इस फिल्म में ये तो मुझे पता नहीं क्योंकि मैंने देखी नहीं है लेकिन जैसे ही मौका मिलेगा मैं इसे जरूर देखना चाहूंगा। पर जैसा कि मेरे तमिळ मित्रों ने मुझे बताया की इसमें हर तरह का मसाला, कर्णप्रिय गीत और सबसे बड़ी बात रजनीकांत था जिसके कारण ये इतनी बड़ी हिट हुई।

अब तो रजनीकांत कि अगली फिल्म भी आने वाली है। उसका नाम सुल्तान द वैरियर है। देखते हैं वो क्या गुल खिलाती है।

Monday, January 28, 2008

26 जनवरी और 15 अगस्त भूल जायें और अमेरीकन इंडिपेंडेन्स डे मनायें भारत में

मैं आज बात कर रहा हूं भारत में मौजूद कुछ ऐसी कम्पनियों के बारे में जो भारत में अपना कारोबार कर रही हैं पर वो 26 जनवरी या 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस नहीं मना कर 4 जुलाई को स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिये छुट्टी देती है।

साफ्टवेयर बनाने वाली कम्पनियों में अपनी गुणवत्ता और अपने कर्मचारीयों कि सुविधा का अच्छा खयाल रखने के लिये जाने जानी वाली कम्पनी CSC(कंप्यूटर साईंस कारपोरेसन) के बारे में मेरी एक मित्र ने ये जानकारी दी है जो उसी कम्पनी में कार्यरत है।

अभी मैं इस इंडस्ट्री में नया नया आया हूं सो बहुत ज्यादा कम्पनियों के बारे में जानकारी नहीं है मुझे, पर ये जरूर जानता हूं की इस तरह का काम करने वाली ये अकेली कम्पनी नहीं होगी।

आपका क्या विचार है इस तरह की कम्पनियों के बारे में?? अगर इस पर एक बहस की शुरूवात की जाये तो क्या अच्छा ना होगा??

Saturday, January 26, 2008

कुछ चित्र

आज बस कुछ चित्रों के साथ आया हूं.. आप भी देखें...


चेन्नई समुद्र तट पर करतब दिखाते कुछ नट...


जीवन कि सुनसान राह जैसी कुछ राहें..


मेरा नया स्टाइल... :)


मेरी मित्र.. ना जाने लहरों मी क्या ढूँढती सी..

Friday, January 25, 2008

All The Best For Girls और पैसा वसूल

लड़कियों के मामले में अपनी तो किस्मत ही हर वक्त दगा दे जाती है। और अगर किसी ने All The Best जैसा जैसा कुछ बोल दिया फिर तो बंटाधार होना निश्चित है।

अभी कुछ दिनों पहले की बात है। मैं और मेरा दोस्त विकास एक सिनेमा देखने के लिये चेन्नई के प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित सिनेमा हालों में से एक सत्यम के लिये जा रहे थे। रास्तें में उपरोक्त डायलाग(All the best for girls) मेरे एक मित्र ने यूं ही मजाक में कहा कि जाओ शायद बगल वाली सीट पर कोई अच्छी और खूबसूरत लड़की बैठी हो।

वहां मैं पहूंचा और अपने ई-टिकट को दिखा कर सही टिकट लिया(मैंने नेट से बुकिंग की थी)। अब जैसा कि मैंने पाया है, महानगरों में आप किसी मल्टिप्लेक्स में रात वाले शो में जाते हैं और चूकिं टिकट बहुत महंगा होता है और उपर से अगर वो कोई अंग्रेजी सिनेमा हो तो अच्छी-अच्छी और खाते पीते घर कि लड़कियां बहुतायत में पहूंचती है जिसे हम जैसे युवा वर्ग के लोग हॉट क्राउड कहते हैं।

उस दिन इस तरह कि सारी परस्थितियाँ हमारे अनुकूल थी। रात 10 बजे का शो था, "I Am Legend" नामक सिनेमा की टिकट हमारे पास थी और महंगा मल्टिप्लेक्स था सो चेन्नई होते हुये भी क्राउड अच्छा था।

हम दोनों टिकट लेकर अंदर गये और अपनी-अपनी सीट पकड़ कर बैठ गये। फिर लगे इंतजार करने की कोई अच्छी और खूबसूरत लड़की बगल वाली सीट पर आकर बैठे। मगर किस्मत को कभी मेरे उपर दया नहीं आती है और अगर साथ में विकास भी हो फिर तो क्या कहने।

पूरा हॉल अच्छी-अच्छी लड़कियों से भरा परा था। पर मेरे बगल की तो बात छोड़िये, मेरे पूरे रो(ROW) में एक भी लड़की नहीं थी। खैर किसी तरह दिल को समझाया कि सिनेमा अच्छी हो तो पैसे वसूल हो जाये।

10 बज चुके थे, सिनेमा शुरू होने से पहले का प्रचार परदे पर आना चालू हो चुका था और हम उसे देखकर अपने चव्वनी-अठन्नी वसूल कर रहे थे। फिर शुरू हुआ सिनेमा मगर अभी तक किस्मत को हमपर दया नहीं आई था। और 5-6 सेकेंड सिनेमा चलने के बाद ही प्रोजेक्टर खराब हो गया। उसे ठीक करते-करते 11:15 हो गये। अब तक उन सारे दर्शकों का सब्र टूट चुका था जो संभ्रांत दिखने का मुखौटा ओड़ कर चुपचाप बैठे हुए थे। हम तो बस बैठ कर तमाशा देखते रहे। क्योंकि हमारे बोलने का ज्यादा फायदा नहीं होने वाला था। क्योंकि हम तमिल जानते नहीं थे और अंग्रेजी में आज-तक कभी चिल्ला कर बोले नहीं थे। और हमारे भदेस भाषा को वहां समझने वाले लोग कम ही थे।

खैर अंत में हमारे सारे पैसे वसूल हो गये। सिनेमा हाल वालों ने हमसे टिकट लेकर हमारे पैसे लौटा दिये। यहां तक कि पार्किंग के भी। और हम वापस घर आ गये। मन को समझाते हुये की चलो पैसे तो वसूल हो गये!!!

(अपने जीवन की इस घटना पर एक व्यंग जैसा कुछ लिखने का मैंने प्रयत्न किया है सो आप इसे अन्यथा ना लें। अब कितनी सफलता मिली है ये तो आप ही बतायें।)

Thursday, January 24, 2008

ब्लौग से बदनामी तक

मैं एक चिट्ठाकार हूं!! इसकी बदनामी इन दिनों मेरे आफिस में भी पहूंच गई है। कल मेरे आफिस में जो हुआ वो इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

कल जब मैं दोपहर का खाना खाने के लिये अपने क्यूबिकल से बाहर निकल कर अपने एक मित्र के क्यूबिकल की ओर जा रहा था उसी समय बीच में मेरे प्रोजेक्ट मैनेजर मिल गये। उनके और मेरे बीच जो कुछ बातें हुई वो कुछ ऐसी थी :

PM : I didn't saw your work from many days, can you show me your work apart from BLOGGING? (उन्होंने मुझपर कमेंट करते हुये पूछा।)
Me : (With a smile) Sure Karthi.

फिर मैंने उन्हें अपना काम दिखाया तब उन्होंने फिर मुझसे पूछा :

PM : This is good. Now can you show me your coding, not the XML coding of your blog. (उन्होंने फिर से मेरे उपर कमेंट किया।)

मैंने उन्हें दिखाया और वो मेरे प्रोग्राम का कोड देखकर खुश हुये और कहा कि मैं जल्द ही तुम्हें कोई नया काम देता हूं।

खैर जो भी हुआ हो मगर इससे ये तो तय हो गया की मैं बस अपने दोस्तों में ही ब्लौगिंग के लिये कुख्यात नहीं हूं, मेरी कुख्याती तो अब जग प्रसिद्ध होती जा रही है। :D
वैसे मेरे प्रोजेक्ट मैनेजर को इससे कोई परेशानी नहीं है की कौन आफिस में क्या करता है, कितने बजे आता है, कितने बजे जाता है। उन्हें तो बस इससे मतलब रहता है कि सभी काम सही समय पर होते रहना चाहिये।

Wednesday, January 23, 2008

मेरा मित्र विकास और नेताजी

इसे छोड़कर इन दोनों में और कोई समानता नहीं है कि इन दोनों का जन्म आज ही के दिन 23 जनवरी को हुआ था। मैं विकास से पहली बार अपने कालेज के पुस्तकालय में मिला था, मैं MCA के दूसरे बैच में प्रवेश लेने के लिये गया हुआ था और विकास ने पहले बैच में प्रवेश लिया था। विकास पुस्तकालय में पार्थो के साथ था जो मेरा पुराना मित्र था और उस समय का विकास का रूममेट। मुझे लगा की ये जरूर अव्वल दर्जे का पढाकू होगा तभी तो कोर्स के शुरूवाती दिनों से ही पुस्तकालय में घूम रहा है। (कालेज के दिनों में पढाकू हमारे लिये एक गाली की तरह होता था। :)) और फिर उसके साथ जो मेरी दोस्ती शुरू हुई सो अभी तक है। उस समय से लेकर अभी तक हम साथ ही हैं। भाग्य ने भी दोनों को ऐसे जगह ला पटका की यहां भी हम साथ ही रह रहे हैं।

जैसे-जैसे मैंने इसे जानना शुरू किया, मैंने पाया की ये अव्वल दर्जे तो क्या छोटे दर्जे का पढाकू भी नहीं है पर अपनी पढाई को लेकर बहुत ज्यादा उद्यमी लड़का है। तीक्ष्ण बुद्धि और विनोदिता से सुसज्जित मस्तिष्क जैसे इसे ईश्वर की ही देन है। मैंने ये भी पाया की हमारे गुण-विचार भी एक दूसरे से बहुत मिलते हैं। यहां तक की अगर कोई हमारे हस्तलिपि पर अचानक यूं ही नजर डाले तो उसके लिये ये जानना बहुत कठिन होगा की ये किसी एक के द्वारा ही लिखा हुआ है या अलग-अलग व्यक्तियों के द्वारा।

बैंगलोर-मैसूर हाईवे पर मैं(बायें) और विकास(दाहिने)
छात्रावास प्रवास के दौरान हमने ना जाने कितनी ही रातें गप्पे मारते हुये बिताये। मैं जब भी किसी परेशानी में होता था तो विकास से हमेशा ही एक परिपक्व सलाह मिल जाती थी। जब मैं अपने जीवन का सबसे बड़े मानसिक तनाव से गुजर रहा था उस समय मुझे कुछ लोगों का(घर के सदस्यों को छोड़कर) बहुत सहयोग मिला था जिसमें विकास का हिस्सा सबसे बड़ा था।

पढाई में हमेशा अव्वल मगर हमेशा खुद को सबसे छोटा और कम जानने वाला बताने वाला(घमंड से कोशों दूर), कराटे का ज्ञाता और बलिष्ठ शरीर का स्वामी होते हुये भी हमेशा लड़ाई-झगड़े से दूर रहने वाला(इसके शब्दों में, "मैं जब भी लड़ा हूं तो बस कराटे में पाईन्टस लेने के लिये"), हमेशा शांत सा दिखने वाला मगर अगर कुछ पसंद नहीं है तो उसका कड़ा विरोध भी जताने वाला।

चलिये जब मैं इसकी इतनी सारी खूबियों के बारे में बताया ही हूं तो इसकी सबसे बड़ी खामी के बारे में भी बताता चलूं। "आलस्य और संतोष" एक जगह अगर कुछ मिल जाये तो बस वहीं इसका मन रम जाता है और फिर कुछ भी नया पाने के लिये कोई उद्यम नहीं करना इसके स्वभाव में है।

अगर कोई मुझसे पूछे की विकास मेरे लिये कितना महत्व रखता है तो मेरे पास उसका कोई जवाब नहीं होगा, मैं निरूत्तर हो जाऊंगा। क्योंकि उसे बताना मेरे बस के बाहर की बात होगी। हां मगर ये जरूर कहूंगा की ये मेरे लिये दोस्त के रूप में एक बड़े भाई की तरह है, और हमेशा मुझे इससे सही सलाह मिलती रही है। अगर ये मुझे कुछ करने के लिये कह दे तो वो सही हो या गलत, मुझे अच्छा लगता हो या बुरा, इसकी परवाह किये बगैर बस उसे कर देता हूं। मुझे नहीं पता की ये मेरे बारे में ऐसा ही सोचता है या नहीं, खैर अगर ये ऐसा नहीं सोचता है फिर भी मेरे इस कथन में कोई अंतर नहीं आता।

जब हम दोनों चेन्नई शिफ्ट हुये थे तब मेरे घर वाले निश्चिंत थे की मैं विकास मेरे साथ रह रहा है और इसके घर पर भी सभी निश्चिंत थे की ये प्रशान्त के साथ रह रहा है। बस ऐसी ही हमारी दोस्ती है। :)

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आज नेताजी का जन्मदिन है और उन्हें याद किये बगैर अगर मैं आज का ये पोस्ट बंद कर दूं तो ये उनके प्रति न्याय नहीं होगा। अगर आप उनके बारे में ज्यादा पढना चाहते हैं तो इस पते पर जाईये।

Tuesday, January 22, 2008

अनंत कुशवाहा और "कवि आहत"

एक डाल से तू है लटका,
दूजे पे मैं बैठ गया।
तू चमगादड़ मैं हूं उल्लू,
गायें कोई गीत नया।

घाट-घाट का पानी पीकर,
ऐसा हुआ खराब गला।
जियो हजारों साल कहा पर,
जियो शाम तक ही निकला।

खड़-खड़-खड़ खड़ग सिंह,
खड्डे में रपट गये।
बत्तीस में चार दांत,
आगे के घट गये।

ये कुछ कवितायें मैंने बचपन में बालहंस नामक बाल पत्रिका में पढी थी जो मुझे अभी भी याद है। उन दिनों बालहंस में मैं जो सबसे पहले ढूंढता था वो था कवि आहत नाम का चित्रकथा, ये कवितायें वहीं से ली गई है।

बचपन से लेकर ग्रैजुएसन के दिनों तक हर पंद्रहवें दिन सुबह उठते ही पापाजी या मम्मी(जो भी पहले सामने आ जायें) से पूछता था की इस बार का बालहंस कहां है? अनंत कुशवाहा जी के संपादकीय के जादूगरी से लैस हर अंक अपने में कुछ नया लेकर आता था। और दाम भी हम बच्चों सा ही। बस दो रूपये।

उसके चित्र कथाओं के पात्र हम सभी भाई-बहनों में रच बस गये थे। "हवलदार ठोलाराम, कवि आहत, शैलबाला, कूं-कूं और मुनिम जी" तो लगभग हर अंक में दिखते थे। धीरे-धीरे एक एक करके कुछ पूराने पात्र कम ही दिखने लगे। जैसे हवलदार ठोलाराम, शैलबाला इत्यादी। मगर कवि आहत हर अंक में दिख जाते थे।

हमारे घर में कवि आहत को कुछ ज्यादा ही पसंद किया जाता था। यहां तक की पापा-मम्मी भी उसकी कविताओं को बड़े चाव से पढते थे। कई बार उन कविताओं में सामाजिक व्यवस्था पर ऐसे व्यंग हुआ करते थे जो होते तो थे बड़ों के लिये, मगर बच्चों को भी समझ में आ जायें।

धीरे-धीरे उसका दाम बढने लगा और दो से चार फिर पांच फिर छः। मगर उसे पढने का चाव कभी खत्म नहीं हुआ। फिर धीरे-धीरे उसकी गुणवत्ता में गिरावट आने लगी। और कुछ महीनों बाद हमने उसे लेना बंद कर दिया। फिर मैं भी घर से बाहर अपने आगे की पढाई के लिये निकल गया। मगर आज भी मेरे पास बालहंस के वे सारे अंक आज भी मौजूद हैं। सभी को पता है कि मुझे उससे कितना लगाव है सो घर में कोई भी उसे फेंकने की बात भी नहीं करता है।

अब भी कभी घर जाता हूं और कहीं बालहंस दिख जाता है तो जरूर खरीद लेता हूं। पर ना जाने क्यों वो वाली बात कहीं नजर नहीं आती है। मैंने सालों से बालहंस की कोई प्रति नहीं पढी है। मेरे एक परिचित ने मुझे कुछ साल पहले बताया था की अनंत कुशवाहा जी का निधन हो गया है। मुझे नहीं पता कि ये खबर कितनी सच्ची है, क्योंकि जब आप किसी को बहुत पसंद करने लगते हैं तो ऐसी खबरें अक्सर झूठी ही लगती है। अब आप लोगों में से ही कोई उनके बारे में मुझे सही-सही जानकारी दें। क्या वो आज भी अपने काम को बखूबी निभा रहें हैं या फिर सच में उनका निधन हो चुका है?

Monday, January 21, 2008

ये एक कूड़ा पोस्ट है, कृपया तथाकथित बुद्धिजीवी इसे ना पढें

वैधानिक चेतावनी : ये जो मैं आज लिख रहा हूं कृपया इसे तथाकथित बुद्धिजीवी लोग ना ही पढें तो अच्छा होगा। वैसे भी एक साफ्टवेयर बनाने वाला छोटी बुद्धि का इंसान इतनी धृष्टा कैसे कर सकता है की उसकी रचना तथाकथित बुद्धिजीवीयों भी पढ लें। अब बाद में ना कहियेगा कि मैंने आगाह नहीं किया था।

मैं और मेरी यायावरी

कभी-कभी इंसान हर किसी से पीछा छुड़ाना चाहता है, इस इंसानों की मंडी में खुद को बिकता हुआ नहीं देखना चाहता है। लोग नये टेक्नालौजी की आड़ में हर वक्त किसी ना किसी रूप में आपका पीछा करते होते हैं, कभी टेलिफोन से तो कभी मोबाईल से।

पिछले शनिवार को मैं इस तरह के बोझिल वातावरण से तंग आकर अचानक से बिना किसी को कुछ कहे निकल गया घर से। बस पीछे छोड़ गया विकास को भेजा गया एक SMS जिससे मेरे पीछे किसी को कुछ परेशानी तो ना हो। मुझे घर में ज्यादा तलाश तो ना किया जाये। जिसमें मैंने लिखा था कि, "मैं कहीं घुमने जा रहा हूं, मुझे पता नहीं कहां। मैं अपना मोबाईल घर में ही छोड़े जा रहा हूं, अगर मेरे किसी परिचित का फोन आये तो बोल देना की मैं मोबाईल घर पर भूल गया हूं।"

घर से नीचे जैसे ही पहूंचा, देखा कि 25G नम्बर कि बस आ रही है जो मेरिना समुद्र तट तक जाती है। मैंने सोचा कि बहुत घुम चुके बड़े लोगों का समुद्र तट(बेसंत नगर बीच), आज दिखावापन छोड़ कर अपने जैसे छोटे लोगों का समुद्र तट घुम कर आया जाये। शायद भाग्य भी मेरे साथ था तभी तो जो बस अमूमन खचाखच भड़ी होती है वो उस समय बिलकुल खाली आ रही थी। 4.50 का एक टिcकेट लेकर मैं अपने मनपसंद जगह पर बैठ कर सो गया। क्योंकि मुझे पता था कि वहां तक पहूंचने में कम से कम एक घंटा तो बड़े आराम से लग जायेगा। पास में कुछ कीमती सामान तो था नहीं जिसे चोरी से मुझे बचाना था और सावधानी पूर्वक बैठना था।

जब नींद खुली तो पाया की मैं ट्रिप्लीकेन नामक जगह से गुजर रहा हूं। ये वही जगह है जहां मैंने अपने नौकड़ी के शुरूवाती दिन काटे थे। ये कुछ कुछ वैसा ही जगह है जैसा की दिल्ली का कठबड़िया या जीया सराय है। अकेले रहने वाले नवयुवकों से भड़ा हुआ और मेरिना समुद्र तट के बिलकुल पास। मैंने सुना था की सुनामी के समय यहां पूरा पानी भर गया था मगर किसी भी बड़े शहर की ही तरह बस एक-दो महीने बाद ही उस त्रासदी से उबर कर लोग अपने में रम गये। बस पीछे रह गई थी कुछ बुरी यादें जैसे कोई दुःस्वप्न।

थोड़ी देर मैं मेरिना बीच पर घुमता रहा। पर फिर मन में ये जानने कि इच्छा जागी की अपना वो आसियाना कैसा होगा? जहां मैंने ना जाने कितनी शामें रोटियां तोड़ते हुये गुजारी है, वो आन्टी जी का होटल कैसा होगा? जहां मैंने अपने उदासी भरे दिनों को सिगरेट के धुवें में उड़ाने की नाकाम कोशिश की थी वो गलियां कैसी होगी? और मेरे कदम बरबस ही उस ओर मुड़ चले।

हर एक चीज को गौर से देखते हुये, अपने पुराने दिनों को फिर से जीते हुये मैं चलता गया। वो SBI बैंक का ATM जहां मैंने ना जाने कितनी ही बार सड़क तक लाइन में लग कर पैसे निकाले थे। वो फल वाला जिससे कितनी ही बार अंगूर खरीद कर खाये थे। ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी दूसरे शहर में आ गया हूं। एक ही शहर में रहते हुये आप उसी शहर के किसी हिस्से से बिलकुल अंजान बनते हुये अपनी अपनी जिंदगी में कैसे खो जाते हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण मैं ही था।

फिर से वैसे ही घर की खुश्बू का अहसास करते हुये आन्टी जी के हाथों का बना हुआ फुलका खाया और वापस लौट पड़ा उसी भागम-भाग भड़े जिंदगी में। घर पहूंच कर अपने मोबाईल को चेक किया तो पाया की एक भी मिस्सड काल नहीं आया हुआ था। मैंने सोचा, चलो अच्छा ही हुआ। किसी को सफाई तो नहीं देनी पड़ेगी की मैं इतना लापरवाह कैसे हो गया हूं जो अपना मोबाईल घर में भूल जाता है।

Friday, January 18, 2008

मैं चोरी करते पकड़ा गया

चौकन्नी निगाह हर वक्त, चाहे परिक्षा कक्ष हो या घर। कोई आ तो नहीं रहा है। कोई देख तो नहीं रहा है। शायद किसी की निगाह मुझे चोरी-छिपे देख रही है। कौन है? अरे ये तो अपने ही कक्षा का छात्र है, देखने दो। ये मेरा क्या बिगाड़ लेगा मेरा। अगर किसी को कुछ बोला तो बाहर ना देख लूंगा इसे!! मेरा डर तो होगा ही इसे। अगर नहीं होगा तो आज हो जायेगा।

जूते में पुरजी। मोजे में पुरजी। पेंसिल बक्से में भी अलग-अलग तह बना कर रखा हुआ पुरजी। स्कूल के पहचान पत्र में भी पुरजी। बेल्ट में घुसी हुई पुरजी। छोटे-छोटे अक्क्षर में पुरजी बनाने का अभ्यास भी तो करना पड़ा था। कितनी मेहनत का ये काम था वो इसे करने वाला ही समझ सकता है।

संस्कृत, हिंदी और समाज-अध्ययन तो फिर भी बिना चोरी के पास कर लेता था पर अंग्रेजी, मैथ और साइंस का बेरा कैसे पार हो ये समझ में नहीं आता था। फलतः बस एक ही उपाय दिखता था, नकल।

ये कहानी मैं सुना रहा हूं अपने बचपन की जब मैं कक्षा आठवीं में पढता था। अचानक से अंग्रेजी का हौवा मेरे सामने कक्षा छः से आ गया था जो भागने का नाम ही नहीं ले रहा था। पांचवी कक्षा तक अपने स्कूल के सबसे होनहार छात्रों में से एक छात्र को नकल ही एकमात्र उपाय नजर आ रहा था। मैं आठवीं कक्षा में शत-प्रतिशत चोरी करके किसी तरह 50% से ज्यादा अंक लाने में सफल रहा था, पर वो घटना मुझे जीवन के कई पाठ सिखा गई थी।

उस दिन दीदी को पेंसिल बाक्स की जरूरत पड़ी थी और मैं अपनी परीक्षा के बाद से उस पेंसिल बाक्स से सारे चिट-पूर्जे ठीक से नहीं निकाल कर फेंक नहीं पाया था। एक तरफ मेरे हाथ में मेरा वार्षिक परीक्षाफल था जो पिछले 2-3 सालों में सबसे बढिया था और दूसरी तरफ भैया मुझे आकर ये बता रहे थे की मेरी चोरी पकड़ी गई है और घर में सभी को पता चल गया है।

मैं भाड़ी कदमों से चलते हुये घर पहूंचा और सोच रहा था की मुझे अभी बुलाया जायेगा और जमकर डांट पड़ेगी शायद मार भी परे। मैं इंतजार करता रहा मगर कहीं से कोई बुलावा नहीं आया। किसी ने कुछ नहीं कहा, कुछ भी नहीं। यहां तक बात भी नहीं की उस बारे में। और ना ही परीक्षाफल के बारे में पूछा गया।

मैं शर्म से गड़ा जा रहा था। बाद में मैं खुद जाकर पापाजी से रोते हुये इसके बारे में कहा और उन्होंने समझाया की "किसी भी चीज को पाने के दो रास्ते होते हैं, एक गलत राह जो बहुत आसान होता है मगर उस पर चल कर मंजिल तक नहीं पहूंचा जा सकता है और दूसरा संघर्ष का राह जिस पर चलकर हम कहीं भी पहूंचे लगता है कि यही मंजिल है।"

उस घटना के बाद से मैंने परीक्षा में चोरी करनी बंद कर दी। कई बार गिरा फिर खुद संभला। मगर उनका कहा कभी भूला नहीं। शायद आसान राह चुनता तो मैं आज जहां कहीं भी हूं वहां तक पहूंचना मेरे लिये एक सपना के अलावा और कुछ नहीं होता।

मेरे पापाजी मेरे आदर्श हैं, मैं हमेशा उनके जैसा ही बनना चाहूंगा। वो भी विद्यार्थी जीवन में एक साधारण छात्र थे पर अपनी मेहनत से उन्होंने अपने जीवन में जो भी चाहा उसे पाया।

Wednesday, January 16, 2008

और वो डरी सहमी सी चुपचाप बैठी थी

कल मैंने सुबह उठ कर पूछा, "नाश्ता कर ली हो क्या?" उधर से विकास की आवाज आयी, "हां कर लिया हूं।"

मेरे मुंह से एक प्यार भरी गाली निकली, "साले तेरे को अपने सिवा कुछ दिखता नहीं है क्या? तुमसे कौन पूछ रहा है?"

विकास किचन में आया और देख कर मुस्कुरा कर बोलते हुये चला गया, "तुम नहीं सुधरने वाले हो।"

हमारे बीच कई बार ऐसे वार्तालाप चले हैं और हमेशा मैं ही कुछ ना कुछ बोलता रहता हूं। आजतक उसकी कोई आवाज नहीं सुनी। हर समय उसकी डरी-सहमी आंखें मेरी ओर याचना भरी दृष्टि से देखती रहती है। मैं कितनी ही बार उसे क्यों ना समझाऊं, मगर वो शायद मेरी भाषा भी समझने को तैयार नहीं है। हमलोग अक्सर मजाक में कहते हैं की शायद ये हिंदी नहीं समझती है, इसके लिये हमें तमिल सीखना पड़ेगा।

मगर प्यार कि कोई भाषा नहीं होती है ये अब मुझे समझ में आने लगा है। आजकल वो भी निर्भीकता से अपने पंखों से हमारे चेहरे पर हवा झलते हुये आती है और वैसे ही बाहर भी निकल जाती है। आखिर उसे भी तो अपने और अपने बच्चों का ख्याल रखने के लिये कुछ दाना-पानी की जरूरत होती है।

ये सारा किस्सा है मेरे घर में अपना एक छोटा सा घर बनाये हुये एक कबूतर की, जिसने मेरे घर के रसोई वाले भाग में अपना छोटा सा आशियां बना रखा है। मैं कार्यालय से घर पहूंचते ही सबसे पहले उसे ही उसकी मासूम सी आंखों को देखता हूं, और उसे चैन से पा कर निश्चिंत हो जाता हूं। कई बार उससे मूर्खों कि तरह बातें करना भी अच्छा लगता है। ठीक उसी तरह जैसे हम किसी छोटे से बच्चे से बात कर रहें हों जबकी हमें पता होता है की वो हमें नहीं समझ रहा है। उसकी तो एक अलग ही भाषा होती है।

मगर मुझे पता है, जैसे ही उस पर से अपने बच्चों की जिम्मेदारी खत्म होगी वैसे ही वो फिर से अपने किसी नये आशियाने कि तलाश में उड़ जायेगी। और मेरा घर फिर से सूना हो जायेगा। मेरे अकेलेपन का साथी चला जायेगा और मैं फिर से दिवारों से बाते करने लगूंगा।

ये चित्र मैंने गूगल इमेज से उठाया है पर दिखने में है बिलकुल मेरे घर वाले कबूतर जैसा। :)

Monday, January 14, 2008

साफ्टवेयर इंजिनियर और तारे जमीं पर

साफ्टवेयर इंजिनीयर जमीं पर...Every Engineer Is Special...

मैं कभी बतलाता नहीं ,
पर Coding से डरता हूं मैं PM..
यूं तो मैं, दिखलाता नहीं,
पर बेंच पर जाना चाहता हूं मैं PM..

आपको सब है पता, है ना PM..
आपको सब है पता, मेरे PM..
Issues में यूं ना छोड़ो मुझे,
घर लौट कर भी जा ना पाऊं PM..

भेजते क्यूं नहीं Onsite मुझको आप,
याद भी आपको आ ना पाऊं PM..
क्या इतना Dumb हूं मैं PM,
क्या इतना Dumb मेरे PM..

जब भी कभी Onsite मुझे,
ढेर सारे काम देता है..
मेरी नजर ढूंढे आपको..
सोचूं यूं ही आप आकर Work Distribute करोगे PM..

उनसे मैं ये कहता नही,
पर Testing से पक जता हूं Pm..
चेहरे पे आने देता नहीं,
Company छोड़ कर भाग जाना चाहता हूं PM..

आपको सब है पता, है ना PM..
आपको सब है पता, मेरे PM..


ये गीत मुझे मेरे एक मित्र ने इ-पत्र के द्वारा भेजा था, मुझे अच्छा और मजेदार लगा सो मैंने इसे यहां लग दिया। मैं अपने PM को धन्यवाद देता हूं कि उन्हें हिंदी नहीं आती है और वो इसे नहीं पढने वाले हैं। :D

Sunday, January 13, 2008

अनमना सा मन

पता नहीं क्यों, आज-कल कहीं भी मन नहीं लग रहा है। यही कारण है कि चिट्ठे पर भी कुछ नहीं लिख रहा हूं। लिखने के लिये तो बहुत सारे टापिक हैं, पर लिखने की इच्छा भी तो हो।

देखिये ये मिज़ाज कब बदलता है और कब मैं फिर से पहले वाले ढंग में लौट कर आता हूं। तब तक के लिये विदा चाहूंगा।

Thursday, January 10, 2008

तारे जमीं पर और मेरा बचपन

मैंने कल ये फिल्म थोड़ी देर से ही सही मगर देख ली। मुझे काफी हद तक इसमें अपना बचपन दिख रहा था। बिलकुल वैसी ही विवशता, दोस्तों के बीच वैसा ही खुद को छोटा पाना। घर में वैसे ही बड़ा भाई क्लास टापरों में से एक और खेल-कूद से लेकर लगभग हर चीज में अव्वल आने वाले और एक इधर मैं किसी तरह घिसट कर प्रोमोटेड होकर पास करने वाला साधारण सा छात्र। इतनी भी हिम्मत नहीं कि खेल-कूद में भी हिस्सा ले सकूं। उस बच्चे की ही तरह हर वक्त घर में पड़े बेकार चीजों से कुछ ना कुछ बनाने कि कोशिशें करते रहना और अगर कोई बेकार चीज ना मिले तो अच्छी खासी चीजों को ही पहले बेकार बनाना और फिर से कोशिशे जारी रखना। :)

कुछ मायनों में यह सिनेमा मेरे जीवन से अलग भी था। जैसे मुझे अपने घर में उस बच्चे की तरह दुत्कार नहीं मिला, और सबसे ज्यादा मुझ पर मेरे पापाजी ही करते थे। मैं फिसड्डी तो था पर उस बच्चे कि तरह हर जगह नहीं। मेरी आंखों के आगे शब्द नाचते नहीं थे, हां आंग्रेजी का अक्षर विन्यास मुझे कभी याद नही हो पाते था। और सबसे बड़ी बात ये की मेरे जीवन में वैसा कोई अध्यापक नहीं आया जो मेरी काया कल्प ही बदल डाले। और तो और, मेरी चित्रकारी भी सुभानअल्ला के अलावा और कुछ नहीं था।

जहां तक मैं समझता हूं, हर व्यक्ति की एक इच्छा होती है कि वो जो कुछ भी कर रहा हो उसमें सबसे अच्छा करे। इससे कोई फर्क नहीं परता कि वो कोई वयस्क है या कोई छोटा सा बच्चा।

आज मैं चाहे कितना ही मुश्किल कंप्यूटर प्रोग्राम के लाजिक को क्यों ना समझ लूं पर जार्गनस(Jargons) और टेक्निकल टर्म मुझे ज्यादा याद नहीं रहते हैं। कुछ ऐसा ही था कि मुझे बचपन में अक्षर-विन्यास याद नहीं होते थे। मगर इसका मतलब ये नहीं कि मुझे कुछ भी याद करने में ही परेशानी होती है, अगर आप संख्या ओं की बात करेंगे तो मुझे लगभग अपने मोबाईल में सुरक्षित सारे नम्बर याद हैं जो लगभग 150 से ज्यादा हैं।

जब मैं ये फ़िल्म देखने जा रहा था तो मेरी मुहबोली बहन स्नेहा ने मुझसे बोला था कि तुम ये सिनेमा देख कर जरूर रो दोगे और जवाब में मैंने कहा था कि अभी तक तो कोई भी सिनेमा देख कर मैं नहीं रोया हूं क्योंकि मेरे मन में हमेशा यही होता है कि ये एक सिनेमा है ना कि आम जिंदगी। सो हम दोनों में ठन गई। और मैच ड्रा रहा। क्योंकि मेरी आंखें तो नम हुई थी मगर सिनेमा देख कर नहीं, उस गाने पर जो मां के उपर था। वो गाना सुन कर मुझे अपनी मां की बहुत याद आने लगी थी।

चलिये आप भी उस गाने को मेरे साथ सुने :

Maa - Taare Zameen...


मैं कभी बतलाता नहीं
पर अन्धेरे से डरता हूं मैं मां
यूं तो मैं, दिखलाता नहीं
तेरी परवाह करता हूं मैं मां
तुझे सब है पता, है ना मां
तुझे सब है पता,,मेरी मां

भीड़ में यूं ना छोड़ो मुझे
घर लौट के भी आ ना पाऊं मां
भेज ना इतना दूर मुझको तू
याद भी तुझको आ ना पाऊं मां
क्या इतना बुरा हूं मैं मां
क्या इतना बुरा मेरी मां

जब भी कभी पापा मुझे
जो जोर से झूला झुलाते हैं मां
मेरी नजर ढूंढे तुझे
सोचूं यहीं तू आ के थामेगी मां

उनसे मैं ये कहता नहीं
पर मैं सहम जाता हूं मां
चेहरे पे आने देता नहीं
दिल ही दिल में घबराता हूं मां
तुझे सब है पता है ना मां
तुझे सब है पता मेरी मां

मैं कभी बतलाता नहीं
पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां
यूं तो मैं, दिखलता नहीं
तेरी परवाह करता हूं मैं मां
तुझे सब है पता, है ना मां
तुझे सब है पता,,मेरी मां


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ये सिनेमा मैं अपने दोस्तों के सथा रात 10 बजे वाले शो में देखने गया था। और वहां से लौटते-लौटते 1:30 से ज्यादा हो गये थे और उपर से सुबह उठ कर आफिस जाने की जल्दी भी थी। इसलिये मैं सो गया पर नींद पूरी नहीं हुई और पूरे दिन भर आफिस में अल्साया सा घूमता रहा। सिनेमा देखते समय मेरे साथ मेरी मित्र बैठी हुई थी जो ज्यादा कुछ बोलती नहीं है और उसे टंग करने में बहुत मजा भी आता है, सो मैं उसे पूरे फिल्म में चिढाता भी रहा। :)

Tuesday, January 08, 2008

असम वाले नोयडा से एक व्यक्ति ने मेरा ब्लौग देखा

आज मैं लेकर आया हूं उन साइटों के बारे में जो आपको, उन लोगों के जो आपके ब्लौग पर आये थे, सही IP Address दिखाने के दावे तो बड़े-बड़े करते हैं पर कई जानकारीयां गलत देते हैं। और हम उनसे उपलब्ध जानकारीयों को सही मान करके कई बार दूसरों से उलझ जाया करते हैं।

आप इस चित्र पर एक नजर डालें और देखें कि किस प्रकार ये मुझे बता रहा है कि नोयडा असम में है।

इस चित्र में नोयडा को असम में बताने वाली जानकारी को मैंने लाल रंग से घेर रखा है। एक और जिसे मैने लाल रंग से घेर रखा है उसका कोई आपेरेटिंग सिस्टम ही नहीं दिख रहा है।

एक जिसे मैंने लाल रंग से चौकोर आकार में घेर रखा है उसका तो IP Address ही नहीं दिखा रहा है। वैसे मेरे कंप्यूटर का सर्वर भी उसी स्थान में है जहां का ये दिखा रहा है, पर मैंने आज एक बार भी www.blogvani.com से अपने ब्लौग को नहीं देखा है और मुझे अपने सर्वर का IP Address भी पता है।

अगर कोई हैं जो मुझे इसका कारण समझा सकते हैं तो कृपया बतायें। मुझे इसका तकनीकी पक्ष जानने की बहुत उत्सुकता है।

Monday, January 07, 2008

ब्लू फ़िल्म और उससे आती आवाजें

जीवन में घटी कुछ घटनाऐं ऐसी होती है जिन्हें लोग चाहकर भी नहीं भुला पाते हैं। वैसे ही ये घटना मेरे कालेज के छात्रावास जीवनकाल की है।

उस समय मैंने वेल्लोर तकनीकी संस्थान(VIT, Vellore) के MCA पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया था। नया-नया छात्रावास का दौर था और उस पर भी तुर्रा ये कि हमारे कालेज में रैगींग का कोई भय नहीं। सारी रात जमकर मस्ती होती थी और सुबह उठ कर जैसे-तैसे समय पर या थोड़ी देर से कक्षा में पहूंच जाया करते थे।

हमारा कालेज भारत के बहुत ही अनुशासित कालेजों में से एक है और अनुशासन की नाम पर कई तरह के उट-पटांग नियम भी हैं वहां जिसका कोई सिर-पैर मुझे अभी तक समझ में नहीं आया है। कड़ा अनुशासन होना और उस पर MCA की पढाई थोड़ी कठिन, ये दोनों ही मिलकर रैगींग के लिये कोई जगह नहीं छोड़ती थी। अनुशासन के नियमों में से एक नियम यह भी था कि हर दिन रात में 9 बजे के बाद होस्टल के सुपरटेंडेंट आकर अटेंडेन्स लिया करते थे। यह घटना कुछ उसी पर आधारित है।

उस समय मैं अपने कालेज के मेंस होस्टल के 'B' ब्लौक में था और वहां अनुशासन उतना कड़ा नहीं था। पर अटेंडेन्स हर दिन हुआ करता था। एक रोज की बात है। मेरे कुछ मित्र(नाम बता कर गालियां नहीं खानी है :)) अपने कमरे में बैठकर पोर्न मूवी देख रहे थे। उन्हें पता नहीं था कि दरवाजा अच्छे से बंद नहीं है और ये समय भी अटेंडेन्स का ही है। ठीक उसी समय हमारे सुपरटेंडेन्ट रामलिंगम सर अपना अटेंडेन्स रजिस्टर लेकर पहूंच गये। उन्होंने धीरे से दरवाजे को धक्का दिया तो वो खुल गया। अब क्या था, सारे लड़कों के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगी। ये कोई सरकारी कालेज का होस्टल तो थ नहीं जहां ये सब खुल्लम-खुल्ला चलता है, हमारे कालेज में इसकी सजा में होस्टल तक से निकाला जा सकता है। उन्हें जैसे ही लड़कों ने देखा वैसे ही ALT+F4 दबाने लगे, मगर वो मूवी किसी ऐसे प्लेयर पर चल रहा था जिसपर ये काम नहीं किया। फिर मेरे एक मित्र ने झट से मानिटर को बंद कर दिया। अब क्या था वो पोर्न मूवी दिखना तो बंद हो गया पर आवाजें तो अभी भी आ रही थी। कुल मिला कर वो क्षण बहुत ही हास्यास्पद हो चुका था। फिर किसी ने कंप्यूटर को ही बंद कर डाला तब जाकर ये तमाशा बंद हुआ। और इतनी देर तक हमारे रामलिंगम सर बेचारे ठगे हुये से खड़े ये सब तमाशा देख रहे थे।

रामलिंगम सर का स्व्भाव बहुत ही अच्छा था सो उन्होंने कुछ किया नहीं, यहां तक कि चेतावनी भी नहीं दिया(शायद वे जानते थे कि चाहे कितना भी रोक लगाओ, होस्टल में ये सब नहीं रूकने वाला है)। उन्होंने बस एक आग्रह करके सभी को छोड़ दिया कि जो भी करना है कम-से-कम दरवाजा तो बंद करके किया करो।

अगली सुबह जब मैं मेस में नास्ते के लिये पहूंचा तब जाकर ये सब पता चला और तब तक हमारे वे मित्र हमलोगों के हंसी मजाक में अपनी जगह बना चुके थे जो पूरे 3 साल तक चला और आज भी भूलाये नहीं भूलता है।

Thursday, January 03, 2008

नये साल से पहले की धूम

दुनिया भर के लोग इधर नववर्ष का इंतजार कर रहे थे और मैं चाह रहा था की इसके आने में जितनी देरी हो उतना ही अच्छा क्योंकि मेरे दो मित्र क्रिसमस की छुट्टीयों में हमलोगों से मिलने के लिये चेन्नई आये हुये थे। अर्चना मुम्बई से तो चंदन बैंगलोर से। और दोनों को ही 30 को वापस लौटने की जल्दी थी जिससे वो सोमवार को अपने कार्यालय जा सकें। मेरे पास एक और कारण था जिस लिये मैं चाह रहा था की नया साल थोड़ी देर से आये और वो ये था कि मुझे अपने टीम(कार्यालय वाली) के साथ ट्रिप पर घूमने के लिये जाना था और वो भी 28 कि शाम को। और मैं अपने दोस्तों का साथ छोड़ना नहीं चाह रहा था। उस ट्रिप पर जाने के लिये मेरे प्रोजेक्ट मैनेजर ने दो बार पूछा था और मैंने मना कर दिया था पर बाद में शिवेंद्र के कहने पर मैंने अंततः हामी भर दी थी सो अब इंकार करने की कोई वजह ही बाकी नहीं बची थी।

मैंने आनन-फानन में अपना सामान ठीक किया और अपने दोस्तो के साथ निकल लिया स्पेंसर प्लाजा के लिये। वहां उन्हें "वेलकम" सिनेमा देखनी थी और मुझे वहां से चेन्नई सेंट्रल के लिये निकल लेना था।

मैं जब स्टेशन पहूंचा तो कई पूर्वाग्रहों से ग्रस्त था कि पता नहीं मैं दो दिन कैसे काटूंगा क्योंकि मुझे पता था की 1-2 को छोड़कर शायद ही कोई मुझे वहां मिलेगा जो हिंदी जानता होगा और पूरी कि पूरी टीम के सदस्य मेरे लिये नये थे। यहां तक कि कार्पोरेट जगत भी मेरे लिये अभी नया ही है और मुझे इसके शिष्टाचार कि ज्यादा जानकारी नहीं है।

मेरे साथ जाने वालों में 4 मेरे ट्रेनिंग के समय के साथी थे सो मैं ट्रेन में उनके साथ ही बातों में लगा हुआ था। थोड़ी हिचक भी थी कि मेरे साथ जो भी हैं वे सारे मेरे वरिष्ठ सहकर्मी हैं, मैं औपचारिकता निभाते हुये कैसे 3 दिन काटूंगा। मगर जब वहां पहूंचा तब मैंने पाया कि उन सभी का व्यवहार बहुत दोस्ताना था। मैं पहले से बस अपने PM(कार्थी) और PL(सुरेन) को ही जानता था और वो भी बहुत नजदीक से नहीं। मगर इस ट्रिप पर उनके दूसरे पहलू मेरे सामने खुलकर आ गये और मैं खासतौर पर अपने PM(कार्थी) की मन ही मन प्रशंसा किये बिना नहीं रह पाया।

कार्थी मेरे PM
मैं पहले ही बता चुका हूं कि मैं वहां अकेला था जिसे तमिल नहीं आती थी और हम 5 ऐसे थे जो सबसे कनिष्ठ थे, सो हमें लगभग बच्चों के जैसा ही रखा गया और जैसे-जैसे लोगों को पता चलता गया कि मुझे तमिल नहीं आती है वैसे-वैसे ही सभी मुझसे अंग्रेजी में बाते करने लगे और मैं भी धीरे-धीरे उन सब में रम गया।

हां मुझे कुछ लोग ऐसे भी मिले जो टूटी-फूटी हिंदी भी बोल लेते थे और उनमें सबसे प्रमुखे नाम संतोष और शिवा का है। कुछ नये और अच्छे लोगों से जान पहचान भी हो गई जिनमें प्रमुख नाम संतोष, चंद्रू, शिवा, सतीस, दिनाकरण, नंदकुमार, प्रसाद, नवीन हैं। और भी कुछ नाम हैं जो मुझे अभी ठीक से याद नहीं आ रहा है और गलत नाम लिखने से अच्छा है कि ना ही लिखूं।

हम लोग यरकौड नामक हिल स्टेशन पर घूमने गये थे जो सेलम के पास है। और ये कहा जा सकता है कि मैं इन 2-3 दिनों में बहुत आनंद लिया और साथ ही ढेर सारे अच्छे लोगों को जानने का मौका मिला। हां कहीं ना कहीं मन में ये भी आ रहा था कि मेरे मित्र जिन्हें मैं चेन्नई में छोड़ आया हूं उनसे अगली बार पता नहीं कब मिल पाऊंगा।

मैं खुद
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि चेन्नई की गर्मी से दूर किसी पहाड़ी इलाके में भ्रमन करने का आनंद उठाया।

Wednesday, January 02, 2008

मेरा नया ब्लौग तकनीक संबंधी (गूगल का डूडल)

मेरे इस नये ब्लौग का नाम है PD Tech Talk। मैंने इस ब्लौग के साथ ही नये साल कि शुरुवात की है और जैसा कि नाम से ही झलकता है कि ये पूरी तरह से तकनीक से संबंधित होगा। आप लोगों के मन में एक बात जरूर आ रही होगी कि कहने को तो ये हिंदी ब्लौग है पर इसका नाम अंग्रेजी में क्यों रखा गया है? तो इसका जवाब यह है कि अगर मैं इसका नाम प्रशान्त तकनीकी समाचार(prashanttakaneekeesamaachaar.blogspot.com) रखता तो इसकी लम्बाई कुछ ज्यादा ही हो जाती और किसी मनुष्य के स्मरण शक्ति के बाहर की बात हो जाती।

सभी अग्रीगेटरों से मेरा अनुरोध है कि इसे वे अपने-अपने साईटों पर रजिस्टर कर दें, धन्यवाद।

मेरे इस नये ब्लौग के पहले पोस्ट का नाम है गूगल का डूडल। अब आप ही बतायें की मेरा ये नया ब्लौग आपको कैसा लगा।

नया साल और दिनकर जी की कविता

मैं पिछले 3-4 दिनों से नेट की आभासी दुनिया से बाहर अपनी जीवंत दुनिया में मस्त था। सो आज सुबह-सुबह जैसे ही मैंने अपना जी-मेल का इनबाक्स खोला तो पाया कि वहां चिट्ठों और सुभकामनाओं कि बाढ सी आयी हुई है। जिसमें से सबसे बढिया सुभकामना पत्र जो मुझे प्राप्त हुआ वो यहां मैं आज के अपने पोस्ट पर डाल रहा हूं। इस कविता को लिखने वाले मेरे सबसे मनपसंद कवि हैं।

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वप्न हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं

समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शून्य की झंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं

जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसी का कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं

कली की पंखडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वप्न का संसार हूँ मैं
मुझे क्या, आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं

मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रूदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं

मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिसमें चुका सौ बार हूँ मैं

न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं

सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं

दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं

बंधा तूफान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं ।।


- रामधारी सिंह दिनकर

इसे मेरे मित्र संजीव नारायण लाल ने मुम्बई से भेजा है जो अभी पटनी कंप्यूटर साल्यूशन में कार्यरत हैं।