घर से निकलते समय पहले ही पंकज ने बता दिया था की दिल्ली उतर कर मेट्रो लेकर हुडा सिटी सेंटर आ जाना.. मेट्रो के रूट का अता पता ना होते भी पता लगाते हुए मेट्रो में चढ़ ही गए और वहाँ से मालिक को फोन किये.. मालिक सोये हुए थे.. मुझे बोले कि मैं आ रहा हूँ, जब मैं वहाँ स्टेशन पर उतरा तो पता चला की मालिक मुझे इंस्ट्रक्शन देकर फिर सो गए थे..खैर सेक्टर 41(शायद) मार्केट बुलाया गया और मैं वहाँ पहुँच गया.. पहले कभी मिला नहीं था इस लड़के से, फिर भी पहचानने में कोई गलती नहीं हुई.. उलटे इसी ने मुझे पहले देखा, नहीं पहचाना होता तो फिर मैं लफड़े में पड़ जाता ;).. फिर वहाँ से घर.. घर का बनावट बिलकुल मस्त.. बोले तो एकदम रापचिक टाइप.. ग्राउंड फ्लोर पर एक हॉल और अंदरग्राउंड दो कमरे बने हुए, वो भी इतने अच्छे से दिख रहा था की कोई चोरी-चपाटी करके छुपने के लिए प्रयोग ना कर सके.. हाँ मगर चोरों को भुलावे में रखने के लिए बेहद उम्दा.. अगर अंदर घर में बत्ती ना जल रही हो तो पक्के से चोर ही इनपर केस कर दे और उसका मसौदा कुछ ऐसा तैयार होगा "इनके घर में चोरी करने जैसे ही घुसा तो अंदर घर में घुप्प अँधेरा था.. और बत्ती जलाने के लिए स्विच ढूँढने के लिए दीवाल पर हाथ से टटोलते हुए जैसे ही दो कदम आगे बढ़ा वैसे ही मानो मेरे पैरों टेल जमीन ही खिसक गई.. और मैं नीचे जाने वाली सीढियों से लुढकते हुए सीधा नीचे जा गिरा.. अब आप ही कहिये जज साहब, ये कोई तरीका है? ऐसा घर इन्होंने किराए पर क्यों लिया? मेरे टूटे हाथ-पैर के साथ मानसिक तकलीफ का हर्जाना भी इन्हें देना होगा."
खैर.. घर तो मैं पहुँच ही गया था.. पापा ने जो तिलकुट दिया था वह मैंने इसके हाथों में थमाया.. साला, बहुत मन कर रहा था की इसको देने से पहले दो-चार तिलकुट खा ही लें, क्या पता बाद में देखने को भी नसीब ना हो!! मगर जब दे ही दिया तो फिर क्या!! ;)
अब आते हैं इनके साथ रहने वाले मित्रों पर.. एक रवि और एक देवांशु.. रवि तो बड़े ही सीधे टाईप के लगे.. नहीं-नहीं, गाली नहीं दे रहा हूँ.. सच्ची में सीधे लगे.. :) देवांशु के बारे में अभी नहीं, वे बाद में पिक्चर में आयेंगे.. जब मैं घर में घुसा तब इनके कुछ और मित्र नीचे वाले कमरों में सोये हुए थे.. मुझसे जैसे ही परिचय कराया गया उसके पाँच मिनट के भीतर सब निकल भागे, बाद में पता चला की मुझसे डर कर नहीं भागे, दरअसल उनमें से किसी को दफ्तर और किसी को किसी इंटरव्यू में जाना था.. उनके जाने के बाद गहरी नींद में सोये रवि को पंकज ने मेरे मना करने के बावजूद जगाया, पता नहीं मन ही मन में कितनी गालियाँ मिली होगी मुझे, और पंकज खुद सो गया.. इसके पीछे एक छोटी कहानी है(लंबी नहीं), जो मैं नहीं बताने वाला हूँ.. ;)
फ्रेश होकर और मुंह हाथ धोकर नाश्ते के जुगाड़ बारे में सोचा गया और तब पता चला की रात में ही लगभग बारह अंडे ये सब मिलकर कब खा गए यह इन्हें भी नहीं पता.. खैर हम निकले नाश्ता करने.. घर के पास ही वाले मार्केट में एक आलू-पराठे वाले के यहाँ के लिए.. बीच में देवांशु के बारे में बताया गया.. कि कैसे नेट पर ही उनसे पंकज की मुलाक़ात हुई थी, और संयोग से दोनों एक ही शहर के, लखीमपुर के.. बाद में अच्छे दोस्त भी हो लिए, और अभी कहीं इंटरव्यू के लिए निकले हुए हैं.. रास्ते में ही उनसे मुलाक़ात हुई, हमने हाथ भी मिलाया.. उन्होंने "चाय" के लिए भी पूछा और हमने मना कर दिया.. यहाँ गौर किया जाए, "चाय" बहुत महत्वपूर्ण शब्द है.. इसकी महत्ता से ही यह पोस्ट भी है.. वापस लौटने पर देखा की रवि व्यायाम में लगे हुए हैं और देवांशु बड़े गौर से रजाई लपेट कर बिस्तर पर पालथी मार कर बैठे हुए हैं और लगातार उन्हें देखे जा रहे हैं.. हम दोनों(पंकज और मैं) ही सोफे पर बैठ कर कभी इनको देख रहे हैं तो कभी उनको.. थोड़ी देर बाद पंकज से रहा नहीं गया, उसने पूछ ही लिया कि क्या देख रहे हो? देवांशु बाबू का जवाब था "सोचते हैं कि हम भी एक्सरसाइज शुरू कर दें".. कहीं से एक जुमला उछला "एक्सरसाइज करने के लिए आदमी रख लो भाई"... और लगे हाथों भाईसाब(देवांशु) ने फिर से पूछ लिया "चाय पियोगे?" मैंने ना कहा, बाकि दोनों ने हाँ.. देवांशु ने मुझे थोडा दवाब देते हुए कहा कि पी लो यार, और तब उन्हें पता चला कि मैं चाय नहीं पीता हूँ.. फिर देवांशु बाबू उन दोनों की ओर मुखातिब होते हुए बोले "ठीक है तीन कप ही बनाना".. ;) अब समझ में आया की वे तभी से, सभी से चाय के लिए क्यों पूछ रहे थे?
खैर चाय भी बनी, उन दोनों ने पीया भी.. पंकज की बारी के समय जब चाय नीचे गिर गई तब उसे पता चला की कप का हैंडल टूटा हुआ है.. और उसी समय पता चला की देवांशु को पहले से यह बात पता थी, और उसने कप की खूबसूरती खत्म ना हो इसलिए उसे इस तरह रख छोड़ा था कि उसका टूटा हैंडल पता भी ना चले.. स्टेटस का सवाल है आखिर, नहीं तो लोग कहेंगे की IT वालों के घर में चाय के कप तक टूटे-फूटे होते हैं. खैर अपन को क्या? अपन चाय पीते थोड़े ही ना हैं! है की नहीं? :)
शाम ढलते ना ढलते फिर से देवांशु "चाय" के लिए सबसे पूछने लगा.. इसी बीच पंकज का एक और मित्र आ गया, पवन.. देखते ही देखते कहीं चला जाए कह कर प्लान भी बन गया एम्बिएंस मॉल घूमने का.. वहाँ कुछ तफरी करके और चंद किताबें खरीद कर रात नौ बजे वापस लौटते हुए घर के पास ही खाना कर पैदल ही घर का रास्ता नापने का प्लान भी बना.. खाना भी खा लिए और वापस भी चले, मगर रात गए सभी कन्फ्यूज, की सही रास्ता कौन सा है? कोई बुजुर्ग भी आस-पास नहीं जो हम भटके हुए नौजवानों को सही रास्ता बताये!!
खैर, एक नौजवान ही मिल गया जिससे हमने रास्ते के बारे में पूछा.. उसने एक तरफ दिखाते हुए बोला की यह रास्ता आपके घर को जाता है.. फिर हमारा सवाल था, कितनी देर में हम पहुंचेंगे? अब वो भाई साहब को लगा कि इन्हें विस्तार से समझाया जाए, सो पहले धीरे-धीरे चल कर बोले "ऐसे जाओगे तो आधा घंटा लगेगा" फिर जल्दी-जल्दी चल कर दिखा कर बोले "ऐसे जाओगे तो दस मिनट में पहुँच जाओगे".. पहले तो हम हक्के-बक्के की भाईसाब कर क्या रहे हैं? फिर ठहाके लगाते हुए उसके बताये रास्ते पर चल लिए..
भाईसाब का आधा घंटा होने को था, मगर घर का तो छोडिये जनाब, घर के पास की गली का कुत्ता भी नजर नहीं आ रहा था.. हमें सब समझ में आ गया, इस नौजवान पीढ़ी से रास्ता दिखाने की उम्मीद करना ही गलत है.. सो अबकी ऑटो लेकर वापस लौटे तो वह वापस उसी रास्ते पर ले आया जहाँ से अभी-अभी गुजरे थे.. हम भी मुंह छिपा कर वहाँ से निकल लिए की कहीं कोई देख कर बेवकूफ ना समझ ले..
अब तक रात हो चुकी थी, और सुबह-सुबह दीदी के यहाँ भिवाडी जाने के लिए भी निकलना था, सो जल्दी सोना था, और बाक़ी सभी को सलीमा देखना था.. तो वे सभी गए लैपटॉप पर सलीमा देखने, और हम चले निन्नी करने.. उन लोगों को सिनेमा देखते-देखते चार बज गया, जिस वक्त मैं खर्राटे मार कर सो रहा था, ठीक उसी वक्त फिर से देवांशु को फिर से चाय का सरूर चढा.. उसने फिर सभी से पूछा की "चाय पियोगे?" सभी ने मना कर दिया. अब उसका कहना था की PD से भी पूछ लेता हूँ, शायद हाँ कह दे और बना भी लाये.. सबने उसे मना कर दिया कि अभी उसे मत उठाओ.. और मैंने भोरे चार बजे की चाय मिस कर दी..
तो दोस्त, तुम्हारी वो सुबह चार बजे की चाय अब भी उधार है!! ;-)
पंकज का तो चाय प्रेम पता है...दस मिनट के अंदर वे अगर ये ना कहे कि 'चाय बना रहा था'...या 'चाय पी रहा हूँ'...या 'अभी चाय बनाने जाऊँगा'...तो एक बार नाम पूछ कर तस्कीद कर लेना चाहिए कि आप पंकज से ही बात कर रहे हैं या किसी और से...
ReplyDeleteइस चहास की चाहत ने ही पंकज और देवांशु की दोस्ती करवाई होगी...और देवांशु का एक्सरसाइज़ के लिए एक आदमी रख लेने का आइडिया तो जबरदस्त है..पहले किसी के दिमाग में क्यूँ नहीं आया??...हाँ, वो सुबह चार बजे चाय बनाने के लिए कोई मुर्गा नहीं ढुंढता होगा ना :)
कप का हैंडल भले ही टूटा हुआ था ...पर घर में सोफा तो है....क्या बात है...
वे पल नहीं लौट के आयेगें बस यादों के होके रह जायेगें!
ReplyDeleteMujhe to wo naujawaan hi is post ka sabse interesting character laga... specially uska duri batane ka andaaz.. baaki sab ki aukaat ka uidea h.. to chai kam pani zaada h... :) :P
ReplyDeleteBt maza aaya padh k.. :D
चाय की उधारी कभी न छोड़ो प्रशान्त, वापस नहीं मिलती है..
ReplyDeleteसबसे मजेदार तो 'कितने देर में पहुंचेंगे?' का जवाब लगा.
ReplyDeleteगर्दा लिखे हो जी...भोरे भोरे हंस हंस के बुरा हाल है. ऐसा सब नौटंकी ई छोरा सब पहले से है या तुमरे साथ मिल कर हो जाता है? बतलाओ टूटा हुआ हैंडल का कप भी कोई घर में रखता है ऊ तो तुमरे आने का प्रोग्राम था इसलिए चिपकाये हुए थे निगम साहब.
ReplyDeleteमस्त पोस्ट है रे...एकदम झकास.
खतरनाक!!!!
ReplyDeleteबाबू इसका कुछ अंश तो तुमसे हम सुन चुके हैं...
लेकिन पंकज साहब अभी तक कमेन्ट में नज़र नहीं आये?? :P
bahut khoob, mast likha hai PD, aur tumhare is likhne se hi pankaj aur uske doston ko jan ne ka mauka mila..
ReplyDeleteचकाचक चाय कथा है।
ReplyDeleteपंकज और देवांशु से मिलने पर अच्छा रहेगा कि चाय के लिये खुदै ये पूछते रहेंगे। अपन भी चाय प्रेमी हैं। कब्भी इनको निराश न करेंगे।
दूरी वाली बात सही में गजब है।