Friday, January 07, 2011

बच्चा!!!

दीदी की बड़की बिटिया का जन्म हमारे यहाँ ही हुआ था, और बचपन में दीदी कि छुटकी बिटिया के मुकाबले मैं बड़की के ही अधिक संपर्क में रहा। उसके पैदा होने पर उसे हाथ में लेकर देखा था, मेरी हथेली में उसका पूरा धड़ और उसका सर मेरी अँगुलियों के सहारे से आराम से टिक जाता था। लगभग यही हाल भैया के बेटे का भी था। वो भी मेरी हथेलियों से बाहर नहीं निकल पाता था। दीदी कि बड़की बिटिया जब दो-ढाई साल कि हुई तब तक शैतानी उसकी शुरू हो चुकी थी, उसे शैतानी कम और नटखटपना अधिक कहा जाए तो ही ठीक रहेगा। इसी बीच पता नहीं कब मैं उसे अपना बेसबैट दिखा कर उसे बोल दिया कि बदमाशी करोगी तो इसी मोटा वाला डंडा से पिटाई लगेगी। मैं तो भला बोल दिया और वापस चेन्नई लौट आया, मगर घर में अब सभी उसे उसकी बदमाशी पर डराना शुरू कर दिए, "पछान्त! मोटा वाला डंडा लाना!!" मामा मुफ्त में बदनाम हुए। यूँ तो भैया का बेटा बहुत ही सीधा और बहुत ही अधिक नटखट है लेकिन इस बार मैंने देखा कि अगर उसकी कोई जिद्द पूरी ना हुई तो बस! सीधा जमीन पर 'ओंघराना' चालू। अब ठंढ के इस मौसम में उसे जमीन पर 'ओंघराने' से बेहतर उसकी जिद्द मान लेना लोगों ने भला समझा और यह देख कर वह उसे रामवाण!! फिर से मेरा वही नुस्खा काम आया, एक डंडा पास में रखना, जैसे ही ओंघराए वैसे ही वो डंडा दिखाना, फिर उसका मुंह बिसुराना, और जमीन से उठाकर मोटे से कालीन पर जाकर लेट जाना जिस पर ठंढ का कोई असर ना हो!! जिस दिन वह गया उसके अगले दिन सबसे पहले मैं वह डंडा अपनी नजर से दूर किया, बहुत याद दिलाता था उसकी!!

३ जनवरी की सुबह देर से उठा। अक्सर हर रोज अधिकतम साढ़े आठ से नौ के बीच उठ जाता था, बच्चे के जागने का समय सवा आठ से साढ़े आठ के बीच का होता था, और जैसे ही भक्क टूटे, बस वो, उसका सायकिल और उसके पीछे खाने का कटोरी लेकर भागती उसकी मम्मी! इसी धमाचौकड़ी में हर दिन नींद खुलती थी, अगर इससे नींद ना खुले तो बच्चा कमरे में आकर 'पापा-पापा...मोsss' करके डराने आ जाता। उसकी समझ में उसके 'मोssss' करके डराने से दुनिया के किसी भी शख्स का डरना जरूरी है, कम से कम अभी तक उसका यह विश्वास किसी ने नहीं तोड़ा। अब कोई इतने प्यार से डराए तो भला नींद कैसे ना टूटे? अगर वो डराने नहीं आया तो उसकी मम्मी/मेरी भाभी आकर मेरा कंबल जबरदस्ती खींच ले जाती थी। ३ जनवरी को जब बिस्तर छोड़ा तब तक साढ़े दस बज चुके थे, पापा-मम्मी मिलकर बच्चे से जुडी लगभग हर चीज कहीं ऐसी जगह ठिकाने लगा चुके थे जहाँ वह सुरक्षित भी रहे और नज़रों से दूर भी।

इस बच्चे के लिए आजकल हर कोई 'पापी' है। कभी "पापा पापी ऐ?" सवाल पूछता है, तो कभी "मम्मा पापी ऐ?" का सवाल! उसके इस पापी के अंतर्गत वो हर कोई आता है जिस पर यह पूरा हक जमाता है। जैसे डैडी, दादा, दादी, बुवा, हर कोई। जो कोई भी उसका अपना हो...बच्चा 'पानी' को 'पापी' बोलता है, और बहुत मासूमियत से "पापा पापी ऐ?" का सवाल आकर पूछता था। उस समय तो मैं उसे बोलता था, "तू पापी, तेरा पूरा खानदान पापी", मगर आज बहुत दिनों बाद फोन पर उससे यही सुनकर बहुत खुशी हुई। "पापा पापी ऐ"....

उसका 'उम्मा' भी गजब का था। 'उम्मा' मतलब 'चुम्मा'। अगर कोई चाहता है कि बच्चा खुद उसे 'उम्मा' करे तो उसके लिए बेहद आसान तरीका यह है कि उसका होंठ छू कर अपने होंठ पर सटा ले, बस इतना ही काफी है। उसे लगता है कि उसका 'उम्मा' अब उसके पास नहीं है, कोई और लेकर भाग गया, अब क्या है, वो पूरे घर में दौड़ेगा पीछे-पीछे, अपना 'उम्मा' वापस लेने के लिए, और तब तक पीछा नहीं छोडेगा जब तक की वो अपने होंठ से होंठ सटा ना ले! ये उसका 'उम्मा' वापस लेने का तरीका है। ये बात सिर्फ 'उम्मा' तक ही नहीं था, 'सू-सू' करके पैंट पहनने में बहुत नखरे करता था, एक बार मैं उसका 'सू-सू' 'कुवा'(कौवा) को दे दिया तब से तुरत अपना पैंट पहन कर बताता था, 'नई ऐ'। मतलब अब आप नहीं ले सकते हो। उसका मुंह, नाक, कान, सबका यही किस्सा। हर चीज को 'कुवा' से बचाता फिरता था। इधर घर आने पर मैंने बहुत बड़े-बड़े मूंछ बढ़ा रखे थे, जिस दिन उसे काटे उस दिन बहुत देर तक ढूँढता रहा, जब मैंने उसे बताया कि मेरा मूंछ 'कुवा' ले गया, तब बहुत खुश...कि पापा का मूंछ भी कुवा ले जा सकता है, अकेला मैं ही नहीं हूँ।

हर किसी बच्चे कि तरह वो हर किसी पर सिर्फ और सिर्फ अपना ही हक समझता है। उसकी दादी, मेरी मम्मी, की गोद में जब कभी सर रखूं तो झट से आ जाता। पहले प्यार से समझाता "नई पापा, नई!" अगर मैं नहीं मानता तो मुझसे कुश्ती होती उसकी, कभी हाथ पाकर कर खींचता, कभी आकर नखरे मारता। अंत में ब्रह्मास्त्र तो था ही उसके पास, एक बार भोमियाना शुरू हुआ नहीं की अब क्या मजाल कि कोई भी वहाँ बैठा रह सकता है?

जिस दिन मैं पटना आया था उस दिन उसके मन में बैठ गया था कि छोटे पापा उसके लिए 'बौल' ला रहे हैं। मैं इधर नहाने गया, और उधर वो मेरे सारे सामान को पलटने लगा। जब कहीं बौल नहीं मिला तो भोमियाने लगा। नहाने के बाद जब मैं वापस आया और उसे लेकर जब तक बाजार से बौल खरीद ना दिया, तब तक बच्चे को तसल्ली नहीं। पता नहीं इतने दिनों बाद भी देखकर पहचान कैसे गया था, या शायद अहसास हो गया होगा कि कोई अपना ही है, पता नहीं कैसे!! आज सुबह घर की साफ़-सफाई के समय फिर घर के किसी कोने से एक बौल निकलकर बाहर आ गया!!!!

उसे मौसी बोलना भी नहीं आता था। उसकी मौसी हमेशा 'तार'(कार) से आती थी, और 'तार' 'पों-पों' करता है, सो उसने अपनी मौसी का नाम ही 'पों-पों' रख दिया। बच्चे के दादा एक-दो बार उसके इस मौसी को 'पों-पों' बोलने पर नापसंदगी जाहिर कर चुके थे, सो बच्चा समझता था कि दादाजी गुस्सा हो जायेंगे। अब जैसे ही उसने अपनी मौसी को 'पों-पों' बोला और देखा कि किसी ने उसकी इस बात पर ध्यान दिया है कि तुरत पलट जाता था 'तार पों-पों, ऊ नई'!! और मैं भैया-भाभी को उलाहना देता कि बच्चे ने दुनियादारी का पहला सबक सीख लिया, झूठ बोलना!!

आज मुझे सुनाया कि उसका नाम 'छाछ्वत'(शाश्वत) है और उसके डैडी का नाम 'छुछमित'(सुस्मित) है!!!

0 टिप्पणी: