Wednesday, January 05, 2011

किस्सा किताबों का

मैं पिछले कुछ दिनों से अपने पास रखी किताबों का चित्र खींचकर अपने फेसबुक पर चिपका रहा था.. उसमें दिखावा था या नहीं ये तो पता नहीं, साधारण मनुष्य हूँ सो दिखावे के स्वभाव से अछूता नहीं हूँ, मगर एक उत्साह जरूर था कि इसे अपने उन दोस्तों से बांटता हूँ जो पढ़ने-लिखने के शौक़ीन हैं.. अक्सर पटना से घर जाते समय बेहद पुरानी किताबें, जो कभी पापा ने खरीदी थी, लेता जाता हूँ और अगली बार वापस आते समय उसे वापस लाकर दूसरी किताबें.. एक चक्र की तरह यह चलता चला जा रहा था.. किताबें पढता था, पढ़ कर अलग से सजा कर रख देता था.. पापा को भी ठीक वैसी ही किताबें वापस चाहिए होती है, जैसी की उन्होंने दी थी.. और उन्हें वैसी ही मिलती भी है.. इसी बीच मैंने एक दिन ध्यान दिया कि जितनी भी किताबें मैं घर से लाया हूँ सभी कि सभी लगभग 1982-88 के बीच की है (मम्मी बताती है कि उसके बाद के समय में अधिक व्यस्त हो जाने कि वजह से इन सब चीजों पर पापा अधिक ध्यान नहीं दे पाए).. ख़रीदे जाने कि तारीख, जिस दिन खरीदी गई थी उस समय पापा कहाँ पोस्टेड थे उस जगह का नाम और एक सीरियल नंबर पापा के हस्ताक्षर के साथ उन किताबों पर चस्पा थी.. मैंने उसी समय उन सभी किताबों कि एक तस्वीर ली और लटका दिया अपने फेसबुक की दीवार पर इस शीर्षक के साथ "वे किताबें, जिन्होंने एक पीढ़ी तक का सफर तय किया".. मुझे अब भी युनुस जी का एक कमेंट याद है जिसमें उन्होंने कहा था "मैं चाहता हूँ कई बरस बाद जादू भी ऐसी ही एक पोस्ट लिखे.." उनके वह लिखने के बाद ही मुझे उन तस्वीरों का दोस्तों के साथ साझा करने का महत्त्व समझ आया, कि कैसे एक पिता अपनी विरासत को उनके सही उत्तराधिकारी के हाथ में सौंप कर खुश होते होंगे जो उन चीजों से उतना ही प्रेम करता हो जितना वह खुद कभी करते रहे हों..

कल यूँ ही घर में भटकते समय कुछ किताबें संग-संग दिख गई.. जिनमें गीता, कुर'आन, बाइबल, कुछ योग की पुस्तकें और कुछ साहित्य के साथ-साथ इतिहास की पुस्तकें भी दिख गई.. मुझे बेहद दिलचस्प सा लगा वह कोम्बिनेशन.. मैंने बिना एक पल गँवाए उस ताखा (आज विनीत ने एक पोस्ट लिखी जिसमें उसने तख्ता की जगह ताखा लिखी, मैं भी बचपन में उसे ताखा ही कहता था मगर फेसबुक पर सभी दोस्तों को समझ में आये इस विचार से तख्ता लिख गया) पर से सभी सामानों को हटाया, सिर्फ उसकी चाभी वहीं छोड़ दी, और उसकी तस्वीर लेकर फेसबुक पर साझा करते हुए शीर्षक लगाया "मेरे घर में किताबों का एक तख्ता.."

शुरू से ही घर में पुरानी बेकार पड़ी किताबों को बेचने कि प्रथा कभी नहीं रही.. आज भी जब किताबों से भरे आलमीरा को खोलता हूँ तो पांचवीं-छठी कक्षा से लेकर अभी तक कि लगभग सभी किताबें वहाँ सुरक्षित पाता हूँ.. नौवीं-दसवीं कक्षा कि CBSE की किताबें अभी भी किसी तरह के सरकारी नौकरी की परीक्षा में बैठूं तो शायद काम आ जाए.. ग्रैजुएशन और पोस्ट ग्रैजुएशन के दिनों में भी अपने दोस्तों के बीच सबसे अधिक किताबें मेरे पास ही रही.. मुझे अब भी याद है कि एक समय सिर्फ 'C' Language कि आठ किताबें मेरे पास थी, अलग-अलग लेखकों कि, अलग-अलग खास विषयों पर.. होस्टल छोड़ते समय अधिकतर दोस्त उन किताबों को फ़ेंक आये थे अथवा बेच आये थे, और मैं एक बेवकूफ कि तरह उन हर किताबों को ढो कर लेता चला आया जिनके बारे में पता था कि अब जीवन भर यह मेरे किसी काम का नहीं है, मैं कभी भी उन्हें पलट कर भी नहीं देखने वाला हूँ.. मगर फिर भी.. सीनियर से लिए गए वैसे कई किताब भी पास ही में हैं जो मेरे जूनियरों के किसी काम का नहीं रह गया था और मैं उसे किसी को दे नहीं पाया था.. बस किसी ऐसे विद्यार्थी को ढूँढता रहा जिसके यह काम आ सके.. सिर्फ चंद किताबें ही ऐसी हैं जिन्हें मैं अमूमन हमेशा पलट कर देखता हूँ, जिसमें 'C++ With OOPs Concept', 'DBMS', 'Networking' और 'Software Engineering' कि किताबें ही शामिल हैं.. बाकी किताबें शायद ही कभी खोलने वाला हूँ.. मगर फेंकने या बेचने का ना तो जिगर है और ना ही इच्छा.. यहाँ तक कि बचपन में पढ़ी हुई कहानी और कामिक्स भी सभी कि सभी संभाल कर रखी हुई है..

ग्रैजुएशन के दिनों तक पापा अपने सभी उपन्यास को हमें छूने भी नहीं देते थे.. उन सभी उपन्यासों का रहस्य गली के नुक्कड़ पर बिकने वाले पीली किताब से कम नहीं थी (कुछ ऐसा ही विनीत ने भी अपने घर में रखी उन बही खातों के बारे में लिख रखी है).. किताबों वाले आलमीरा को खोलने से पहले हजार बार सोचना पड़ता था.. किसी बहाने से उसे खोलता था.. सिर्फ एक झलक, जिसमें कई उपन्यास कि एक झलक दिख जाती थी.. बस!! बच्चे कोर्स कि किताबों में कामिक्स छुपकर पढते हैं, जबकि मैं उन किताबों को छुपकर पढ़ने में अपने कई रिजल्ट खराब किये हैं.. 'चंद्रकांता' अपने सातों भाग के साथ भी इसी उत्सुकता की भेंट चढ़ा..

पापा अक्सर मुझे बताते हैं कि उन्होंने मेरा नाम "प्रशान्त" रेणु जी कि "मैला आँचल" वाले डाक्टर प्रशान्त के नाम पर ही रखा था.. साथ में जब यह जोड़ते थे कि वह किताब वे चौदह-पन्द्रह साल कि उम्र में पढ़े थे तो मन में बहुत चिढ होती थी की खुद तो बचपन से ही उपन्यास पढते आ रहे हैं और मुझे रोकते रहते हैं हमेशा.. वैसे अब सोचता हूँ तो लगता है कि ठीक ही किया उन्होंने, सही समय पर सही किताब हाथ में पकड़ाई..

बस यही डर लगता है कि जब कभी चेन्नई छोड़ कर कहीं जाने कि नौबत आयी तो इन किताबों को ले जाना कितना कठिन होगा!! खैर जो भी हो, मैं तो ना ही इन बेकार पड़ी किताबों को ना तो फेंकने वाला हूँ और ना ही बेचने वाला हूँ.. किसी जरूरतमंद को कुछ समय के भले ही दे दूँ पढ़ने के लिए, मगर किसी को भी इसी शर्त पर देता हूँ कि पढ़ कर वापस कर जाए.. और अपनी किताबों को लेकर मैं हद दर्जे का जलील इंसान हूँ, अगर कोई वापस ना करे तो किसी भी हद तक जलील करके वापस ले ही लेता हूँ.. इसी तर्ज पर अगर मैं किसी कि किताब लेता हूँ पढ़ने के लिए तो हर संभव प्रयास भी करता हूँ कि एक समय सीमा के भीतर ही उसे लौटा भी दूँ.. सबूत के तौर पर हमारे ब्लॉगजगत की ही विभा जी हैं ना!! :)

10 comments:

  1. पीडी,बहुत बढ़िया संस्मरण और डॉ प्रशांत..। तुम इतने मासूम हो क्या कि सिंदूर डालना भी नहीं जानते कि जैसे इ्जेक्शन दे रहे हों डॉ प्रशांत। लेकिन जो भी कहो,पापा ने बहुत ही संजीदा चरित्र के नाम पर तुम्हारा नाम रखा था। किताबों को लेकर संस्मरण का ये सिलसिला आगे भी जारी रखो,मैं इसकी अगली किस्त लिख रहा हूं।..

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  2. स्‍क्रीन पर समय बिताते किताबें अक्‍सर याद आती हैं लेकिन हाथ में कम ही ली जाती हैं(मैंने यह सिर्फ अपने लिए कहा है.)

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  3. दोस्त मैं तो अपने कॉलेज के दिनों में किताबें खरीदता बहुत कम था, लाइब्ररी से छः किताबें हर सेमेस्टर में दी जाती थीं पढ़ने के लिए...पुरे सेमेस्टर उन्ही किताबों को पढता था...और जो बाकी काम की किताबें होती थीं, उनके जेरोक्स ले लेता था :)

    वैसे जो किताबें मैंने खरीदी हैं, बहुत हुए तो चालीस ही होंगे, वो सब मैंने अपने पास रख ली है...यहाँ पिछली बार चेतन भगत के दो नोवेल दीवाल पे सील लगने के कारण खराब हो गए थे...मुझे बहुत बुरा लगा था...
    तब से किताबें पढ़ के उन्हें घर पे रख आता हूँ...

    मम्मी बताती है की लोग पहले किताबों के साथ साथ मैग्जीन को जमा कर के भी रख लेते थे..

    वैसे किताबों को तुम बहुत सहेज कर रखते हो, अंकल की विरासत एकदम सही हाथों में है :)

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  4. मुझे भी अपनी पुस्तकें पुनः याद आ रही हैं, बहुत दिनों से अलग हैं।

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  5. सच किसी का किरदार दिल को इतना छू जाता है कि हम वही नाम अपनो का रख देते है...खैर किताबों से अपनी यारी कालेज टाईम से ही है। कभी अमृता प्रीतम जी की किताबों की फोटोकापी कराकर पढा करते थे क्योंकि किताबें मंहगी आती थी। और फिर अमृता जी ऐसा बिगाड़ा कि हर तरह की किताबें पढने लगे। किताबें अकेलेपन मेंसाथ निभाती है और दिमाग में नए नए विचारों की ज्योति जगाती है..

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  6. किताबों के प्रति दीवानगी कभी हमारे यहाँ भी हुआ करती थी जो मुझ में अभी तक है..सन साठ से खरीदी किताबों का ढेर है घर में...बच्चों की रूचि पढ़ने में इतनी नहीं है...लेकिन किताबों की मौजूदगी मन को सुकून देती है...


    नीरज

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  7. लम्बी टिप्पणी मेल कर दी गयी है, अब झेलो :)

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  8. अरे बाबू ! तुम तो बिल्कुल मेरी तरह हो. मैं भी अपनी किताबों को लेकर बहुत पज़ेशिव हूँ. मेरे पास भी अकादमिक पढ़ाई से लेकर कम्पटीशन की तैयारी तक सबसे अधिक किताबें होती थीं और किताबें बेचना तो हमारे घर में पाप समझा जाता था :-)
    मेरे पिताजी की थाती बहुत सी किताबें घर पर रखी हैं. पर घर छूटा, तो वो भी छूट गयीं... अब तो बस यादें हैं.

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