Monday, June 30, 2008

जिंदगी की छेड़-छाड़

सब पीछे छोड़ कर मैं २ साल आगे निकल चूका था..
जिंदगी कल फिर से मुझे घसीट कर वहीँ पहुंचा गई..
ऐसा लग रहा है जैसे फिर से उसी मुकाम पर खडा हूँ जहां से शुरू किया था..
ये जिंदगी भी अजीब होती है..
चिढा कर कहीं झुरमुठों में छुप सी जाती है..

आज सुबह मैं बैगलोर से वापस लौटा और वहां G Vishwanath जी से भी मिला(और उनकी रेवा कार में घूमने का मौका भी मिला :)).. एक बिलकुल नया सा और अच्छा अनुभव मिला.. शायद अगले २-३ पोस्ट उनके नाम हो जाए.. आज मन कुछ नहीं लग रहा है, सो कल मैं उनके बारे में और उनकी रेवा कार के किस्से सुनाता हूँ..

Thursday, June 26, 2008

अनाम मित्र के नाम पत्र

मेरे अनाम मित्र..

मैं ना तो कुछ साबित करना चाहता हूं और ना ही खुद को हीरो दिखाने कि कोई मंशा है.. मैं तो बस अपनी खुशी के लिये लिखता हूं और अगर कोई मेरी खुशी में खुश होना चाहता है तो उन्हें भी अपने साथ ले लेता हूं..

जहां तक आपने लिखा है कि आपने कोई ऐसी बात नहीं लिखी जिससे आप हीरो दिख सकें और दूसरी तरफ आपने उसका उत्तर भी दे दिया कि कोई और आपको हीरो कहे तो बात बने.. अब मेरे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है कि मैं वैसी कोई घटना क्यों नहीं लिखता हूं.. अपने जीवन में मैंने कुछ अच्छे काम भी किये हैं मगर उसे मैं अपने किसी करीबी मित्र से भी नहीं बांटता हूं फिर भला ब्लौग पर कैसे लिख दूं?

और हां मैं खुद को हीरो मानता ही नहीं हूं.. क्योंकि मुझे पता है कि मैंने अपने जीवन में कितने सही और कितने गलत काम किये हैं.. कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में शत-प्रतिशत कभी सही नहीं होता है.. मेरे करीबी जानते हैं कि मेरा जीवन एक खुली किताब जैसी है, जो मैंने अभी तक जिया है(सही या गलत) वो सभी के सामने है.. कुछ भी छुपा हुआ नहीं..

और रही बात कुपित होने कि तो मैं इतनी छूट तो अपने पाठकों को दे ही रखा है कि वो अनाम तत्व बन कर भी कमेंट कर सकें, मैंने तो मॉडेरेटर भी नहीं लगा रखा है.. सो मुझे इसके लिये तैयार रहना ही चाहिये कि कोई मेरी बुराई कर सके.. आज सुबह तो खुद मेरे पिताजी मेरे ब्लौग को लेकर बोल रहे थे कि आज-कल अच्छा नहीं लिख रहे हो.. हां, अगर किसी अनाम मित्र से अपशब्द मिले तो फिर ऐसा कुछ सोच सकता हूं, जो कम से कम अभी तक तो नहीं हुआ है.. वैसे अगर आप अपने नाम से भी कमेंट करते तो भी मैं आपको लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं बनाता..

जब मैंने हिंदी में ब्लौगिंग शुरू कि थी तब मैं यहां किसी को नहीं जानता था, लगभग एक साल बाद(सितम्बर 2007) मैंने पाया कि ढेर सारे लोग मेरे चिट्ठे पर अचानक से आने लग गये हैं, तब जाकर मैंने पाया कि नारद, ब्लौगवाणी और चिट्ठाजगत जैसे एग्रीगेटर ने मेरा रजिस्ट्रेसन खुद ही कर दिया है.. उसके बाद मैं हिंदी ब्लौग जगत से जुड़ा.. उससे पहले मैं अपनी खुशी के लिये लिखता था.. मैं जैसा पहले लिखता था वैसा ही आज भी लिखता हूं.. मतलब अपनी और अपनों खुशी के लिये..

30-40 लोगों कि बात अगर आप कर रहें हैं तो जब वे नहीं आते थे तब भी मैं लिखता था.. जब वे आने लगे तब भी मैं लिखता था.. जब 300-400 आने लगेंगे तब भी मैं वही कुछ लिखूंगा जो अभी लिखता हूं.. मेरे चिट्ठे का ही नाम है मेरी छोटी सी दुनिया.. मेरी दुनिया में जो कुछ भी घटता है बस उसी के लिये इस चिट्ठे पर जगह है.. दूसरी चीजों के लिये मेरे पास दूसरे चिट्ठे हैं..
धन्यवाद.


आज सुबह मुझे एक अमान मित्र का कमेंट मिला जिसका उत्तर लिखने बैठा तो पाया कि ये मेरे किसी एक पोस्ट से भी लंबा हो गया है तो मैंने इस पर एक पोस्ट ही बना डाली.. उनका कमेंट कुछ ऐसा था :

आप जो भी हो भाई मैं काफी दिनों से आपको नोटिस कर रहा हुं.
मेरा मतलब है मैं आपके ब्लौग पढ़ रहा हुं.
मैंने जो नोटिस किया है वो ये है कि आप वास्तविक जीवन में नहीं जी रहे हैं. वास्तविकता से आप काफी दूर हैं.
पता नहीं क्या साबित करना चाहते हैं आप अपनी बातों से.
भई साहब इस् तरह लिखने से हो सकता है आप 50-100 लोगों के बीच फेमस हो जायें.और हो सकता है आपकी मंशा भी यही हो. लेकिन जैसा आपने अपने सेल्फ़ इंट्रोडक्शन में लिखा है वैसा करें तो बात बने. षायद आप करते भी हों. हमे नहीं मालूम. बट आपने अभी तक ऐसा कुछ अपने ब्लौग पर नहीं शेयर किया. भाई साहब अपने आपको तो हीरो सभि मानते हैं. कोई अपने को बुरा नहीं मानता. मजा तो तब है जब दूसरे इस बात को माने. सॉरी अगर हमारी वजह से आप हर्ट हुए हों. लेकिन क्या करें हम अपना विचार व्यक्त करने से अपने आपको रोक नहीं पाये.


ये रोमण में हिंदी लिखा हुआ था जिसे मैंने देवनागरी में बदल कर लिख दिया..

अनाम मित्र को एक और वजह से धन्यवाद क्योंकि उनके कारण मैंने आज एक पोस्ट लिखा नहीं तो आज लिखने के मूड में नहीं था.. :)

Wednesday, June 25, 2008

अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ..


जो आप नहीं कर पाई,
वो दुनिया ने कर दिखाया..
अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ..

कुछ अच्छा लगता है तो
मुस्कुरा देता हूँ..
कुछ बुरा लगता है तो
मुस्कुरा देता हूँ..
अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ..

वो अछूत सी लगने वाली सब्जी,
भी अब खा लेता हूँ..
रात में अब चावल से भी
परहेज नहीं है..
अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ..

कोई अब पूछता नहीं,
की कहाँ जा रहे हो..
कोई अब पूछता नहीं
की किससे मिल के आ रहे हो..
अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ..

कोई अब पूछता नहीं
की खाना खाए या नहीं..
कोई अब पूछता नहीं
की खाए तो क्या खाए..
अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ..

कोई दोस्त अब कहीं
बुलाते नहीं..
उनके साथ ना जाने पर
पहले जैसे कुछ सुनाते नहीं..
हर पल ये अहसास दिलाते हैं..
अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ..

कुछ मिलने पर ना अब वो
पहले सा उत्साह आता है..
ना कुछ खोने पर आँखें
नम होती है..
अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ..

जिसकी चाहत बचपन से थी,
बड़ा होने की..
अब वो नहीं चाहता हूँ..
पर क्या करूं माँ..
अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ..

ये कविता मैंने बहुत पहले लिखी थी.. मदर्स डे पर.. मुझे याद है, मम्मी बहुत भावुक हो गई थी इसे पढ़कर..

Tuesday, June 24, 2008

एक लड़की जो छोटे शहर से निकलकर, बड़े शहर में कहीं खो सी गई..


अकसर लोग
प्यार कर बैठते हैं
किसी ऐसी लड़की से
जो छोटे से शहर
से निकल कर,
बड़े शहर की
चका-चौंध में
कहीं खो सी जाती है..
मैं भी उन चंद लोगों में से हूं..
जमाने के साथ
चलने का शौक था उसे,
मगर ना जाने किससे डरती थी..
मेरा साथ पाकर
वो डर जाता रहा
और जमाने के साथ
कदम ताल करते हुये
ना जाने किधर निकल गई..

नजरें आज भी खोजती है,
हर रिक्से पर..
शायद वो दिख जाये कहीं..
सिमटी हुई,
सकुचाती हुई,
छुई-मुई सी,
सिकुड़कर बैठी हुई..
इस डर से
कहीं कोई देख ना ले
कि वो किसी से मिलने आ रही है..
शायद मुझसे?
भ्रम भी अजीब होते हैं..
है ना?

Sunday, June 22, 2008

एक लड़की


एक लड़की,
ख्वाबों में जीने वाली लड़की,
ख्वाबों में ही मेरे पास आती,
ख्वाबों में ही मुझे गले लगाती,
ख्वाबों में ही कभी यूं ही,
मेरी राहों से होकर गुजर जाती,
ख्वाबों में अक्सर मैं उसका होता,
मुझे पाकर कभी वो चूम लेती,
कभी गले लगा लेती,
मुझे पाकर वो खुश होती,
हंसती खिल-खिलाकर,
अक्सर मैं कहता,
एक हंसी उधार दे दो,
मैं हंसता कम हूं,
वो कहती,
मैं आपकी ही हूं,
जो चाहे ले लो,
हकीकत का आभास भी था उसे,
मगर वो ख्वाबों में जीती थी..

एक लड़की,
ख्वाबों में जीने वाली लड़की,

Friday, June 20, 2008

और गधे को पहलवान बना ही डाला(अंतिम भाग)

कैंपस सेलेक्सन के दिनों में जिनका कैंपस हो जाता था वे लोग भी किसी को पार्टी नहीं देते थे.. बस इस इंतजार में कि जब मेरे सारे मित्रों का हो जाये तभी मैं पार्टी दूंगा.. सच कहूं तो पूरी कक्षा में एकता ऐसी हो गई थी जो मिशाल देने लायक थी.. मेरे साथ ये अक्सर होता आया है कि जिसकी मुझे चाह होती है वो मुझे नहीं मिलता है और जिसकी चाह नहीं होती है वो बैठे-बिठाये झोली में आ धमकता है.. मेरे साथ कैंपस के दिनों में भी यही हुआ..

21 जुलाई सन् 2006 का दिन था.. ठीक 1 महिना पहले मैं 21 जून को अपने पहले कंपनी में बैठा था(IBM).. 21 जुलाई को CSS कैंपस के लिये हमारे कालेज में आयी हुई थी.. हमारे बीच इस कंपनी कि छवि बहुत अच्छी नहीं थी और ना ही हमारे सिनीयर के बीच.. इस कारण से मुझे इस कंपनी में नौकरी करने की इच्छा भी नहीं थी.. मगर उस समय मेरे पास कोई भी नौकरी नहीं होने के कारण मेरे पास कोई और चारा भी नहीं था.. मेरे साथ मेरे कालेज के लगभग 450 विद्यार्थी भी इसके रिटेन परीक्षा में बैठे और उसमें से 18 विद्यार्थी को सेलेक्ट किया गया.. जब मैं रिटेन दे रहा था तब मन में सोच रहा था कि मेरा रिटेन में ना हो तो बढिया हो.. मगर जैसे-जैसे प्रश्न पढ़ता गया वैसे-वैसे उत्तर भी सूझता गया.. अब सही के बदले गलत उत्तर लिखना ना तो मेरी प्रकॄति है और ना ही मैं वैसा करने की स्तिथि में था क्योंकि मेरे पास कोई नौकरी नहीं थी.. हां मगर एक बात तो थी कि इसमें चोरी नहीं हुई थी और अगर हुई भी होगी तो मुझे पता नहीं चला.. Online परीक्षा हुई थी, सो चोरी के चांस बहुत काम हो गए थे..

जब रिजल्ट आने वाला था तब मैं अपने प्लेसमेंट भवन के नीचे अपने दोस्तों के साथ बैठा हुआ था.. शुरू में बस 5 लोगों का नाम भेजा गया कि इनका सेलेक्सन साक्षात्कार के लिये हो गया है.. मेरी मित्र श्रुति ने ना जाने कहा से मेरा नाम भी उसमें देख लिया और मुझे बधाई देने चली आई.. जब मैंने कहा कि मेरा नहीं हुआ है और वापस होस्टल जाने लगा तो उसने पूरे आत्मविश्वास से कहा कि कुछ देर रूक जाओ शायद कुछ और नाम आये और उसमें तुम्हारा भी हो.. थोरी देर मैं और रूक गया और अगली लिस्ट में मेरा भी नाम था.. तब उसने कहा कि होने पर पहली मिठाई मुझे ही मिलनी चाहिये..

मेरा अपना अनुभव है कि जब साक्षात्कार शुरू होता है तब जो कोई भी साक्षात्कार में पहले जाता है उसका सेलेक्सन होने की संभावना ज्यादा होती है क्योंकि उस समय साक्षात्कार लेने वाले बिलकुल फ़्रेश होते हैं और उनकी सोच सकारात्मक.. जैसे-जैसे समय बढता जाता है वैसे ही वो सुस्त होते जाते हैं और उनकी सोच भी धीरे-धीरे नकारात्मक होती जाती है..

मैं फिर से बाहर कक्ष में बैठा पेप्सी के प्रचार वाले लड़के की तरह सोच रहा था कि मेरा नंबर कब आयेगा.. जो आया बहुत बाद में.. मेरे मन में ये बैठ चुका था कि आज भी मेरा सेलेक्सन नहीं होगा और कहीं ना कहीं से मैं खुश भी था कि चलो ये अफसोस तो नहीं होगा कि मैंने जान-बूझ कर ये कंपनी छोड़ी और सच्चाई ये थी कि इस कंपनी में मैं जाना भी नहीं चाहता था..

साक्षात्कार लेने वाले Resume पर ज्यादा ध्यान दे रहे थे और जो भी उसमें लिखा था उसी से संबंधित प्रश्न पूछ रहे थे उससे ज्यादा कुछ भी नहीं.. मुझसे सबसे पहले उन्होंने लगभग 15-20 मिनट यूनिक्स पर प्रश्न पूछे और मैंने सारे का सही उत्तर दिया.. एक प्रश्न में अटका मगर उसका उत्तर भी दिया ये कहकर कि मैं इस उत्तर को लेकर संतुष्ट नहीं हूं मगर शायद यही होना चाहिये.. बाद में पता चला कि मैंने सही उत्तर दिया था.. फिर डाटा-स्ट्रक्चर से संबंधित प्रश्न पूछे गये जो लगभग आधे घंटे चला.. उसमें सारे का मैंने सही उत्तर दिया..

एक मजेदार घटना घटी डाटा-स्ट्रक्चर वाले राउंड में.. उन्होंने मुझसे मर्ज सार्ट बताने के लिये कहा.. मैंने बताया.. फिर उन्होंने मुझसे कहा कि इसका 'C' भाषा में प्रोग्राम लिख सकते हो क्या? मैंने कहा कि हां लिख सकता हूं.. फिर पूछा गया कि इसका अल्गोरीथ्म याद है तुम्हें? मैंने कहा कि नहीं याद है मगर मुझे इसका लाजिकल कांसेप्ट पता है सो मैं लिख दूंगा.. उन्होंने लिखने के लिये कहा.. मैंने लिखना शुरू किया.. मेरे हर एक लाईन लिखने के बाद वो मुझसे किसी दूसरे विषय पर प्रश्न पूछते फिर सॉरी कह कर आगे लिखने को कहते.. लगभग 5 मिनट के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि कितना समय लोगे? मैंने कहा कि कम से कम 20 मिनट.. उन्होंने कहा कि कंपनी में शायद इतना समय तुम्हे ना मिले.. अब चूंकि मेरे मन में कोई डर था नहीं, कि सेलेक्सन हो चाहे ना हो कोई बात नहीं, सो मैंने वैसे ही उत्तर दे दिया कि कंपनी में मेरे पास अल्गोरीथ्म होगा और नहीं भी होगा तो कम से कम उस समय अल्गोरीथ्म रटने कि मुझे कभी जरूरत नहीं होगी, मैं उसे नेट पर सर्च करूँगा और वहाँ से अल्गोरिथम ले लूँगा.. मैं तो ये सोचकर उत्तर दिया था कि शायद मेरे जवाब से वे चिढ जायेंगे मगर हुआ ठीक इसके उल्टा, वो प्रभावित हो गये.. आखिर वो एक और गधे का दिन था.. :)

एक मजेदार घटना 'C' वाले राऊंड में भी घटी.. उन्होंने प्रश्न पूछ कि बिना किसी तीसरे वैरियेबल को प्रयोग में लाये 2 वैरियेबल के वैल्यू(Value) को स्वैप(Swap) कैसे करते हैं.. अब उन्हें ये नहीं पता था कि मैंने अपने जीवन का सबसे पहला 'C' प्रोग्राम यही बनाया था सो ये प्रोग्राम तो मैं आंख मूंदकर भी लिख दूंगा.. मगर उस समय मैंने नाटक करते हुये ये दिखाया कि इसका लॉजिक मैं यहीं सोच रहा हूं.. और 3-4 बार काटने के बाद मैंने सही बना कर दिखा दिया.. कुल मिला कर मुझसे यूनिक्स, 'C', 'C++', डाटा-स्ट्रक्चर, डाटाबेस, 'VC++' और ऑपरेटिंग सिस्टम से प्रश्न पूछे गये थे..


दो राऊंड में लगभग 2-3 घंटे इंटरव्यू चला और उन्होंने मुझे सेलेक्ट कर लिया.. मैंने जो उस दिन ना जाने कितनी ही गलतियाँ की (कुछ जान बूझकर और कुछ अंजाने में) वो सभी मेरे लिये अच्छा ही साबित हुआ.. क्योंकि वो दिन मेरा था.. कुछ इसी तरह के सोच ने मुझे इसका शीर्षक जब "अल्लाह मेहरबान तो गधा पहवान" रखने के लिये प्रेरित किया.. उस दिन ये गधा भी पहलवान बन ही गया.. मेरा एक और करीबी मित्र उस दिन सेलेक्ट हुआ, शिवेन्द्र(इसके बारे में फिर कभी)..


कालेज के बाहर एक पोस्टर के साथ मस्ती करते हुये..

2006 में मेरे जन्मदिन के पार्टी की तस्वीर, ये दोनों ही चित्र मेरे कैंपस होने के महीने भर के भीतर की ही है.. :)

Thursday, June 19, 2008

I Got My First Promotion

पिछले एक सप्ताह से लगभग रोज ही मैं और मेरे कालेज कि मित्र मनस कभी एच.आर. तो कभी अपने पी.एल. से बोल रहे थे कि हमारे अप्रैजल का समय आ गया है तो हमें अभी तक अप्रैजल क्यों नहीं मिला है? एच.आर. वालों से तो मैंने लगभग झगड़ा तक कर लिया था कि जब आपको कोई काम समय पर चाहिये होता है तो हम खाना-सोना छोड़ कर बस काम करते रहते हैं, तो ये काम आप लोगों का है कि हमें समय पर अप्रैजल मिले.. हमें जो भी काम मिलता है उससे आपको भी कोई मतलब नहीं होता है कि वो काम हम कैसे खत्म करें ठीक उसी तरह मुझे भी कोई फर्क नहीं परता है कि आप इसे कैसे खत्म करते हैं.. हमें भी अपनी चीज समय पर चाहिये..

खैर हमारी मेहनत रंग लायी और आज (पूरे 1 सप्ताह देरी से ही सही) अप्रैजल मिल गया.. अपने जीवन का पहला प्रोमोशन.. मुझे जब उससे संबंधी कागजात दिये जा रहे थे तब मुझसे पूछा गया उसके बारे में.. मेरा जवाब था की मैं खुश हूं क्योंकि ये मेरा पहला प्रोमोशन है, मगर मैं संतुष्ट नहीं हूं क्योंकि सैलेरी हाईक मेरी उम्मीदों पर खड़ा नहीं उतरा है.. खैर जो भी हो.. फिलहाल तो प्रोमोशन मिल गया.. :)

मैं आजकल बहुत व्यस्त हूं इसलिये "जब अल्लाह मेहबान तो गधा पहलवान" कि अंतिम कड़ी नहीं लिख पा रहा हूं.. अगली पोस्ट में ही उसे पूरा कर दूंगा.. मगर मुझे पता नहीं कब..

Sunday, June 15, 2008

जब अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान(भाग 4)

मेरे कालेज के मित्र, जो मेरे चिट्ठे को बराबर पढ़ते रहते हैं उन्होने मुझे कहा की आज-कल तम्हारा पोस्ट पुराने दिनों की याद जेहन में ताजा कर दे रहा है.. अच्छा लगा पढ़कर-सुनकर.. अब आगे बढ़ते हैं..

(क्रमशः से आगे...)
मेरे बगल में मेरे कुछ मित्र बैठे हुए थे.. अगर मिनट के हिसाब से गिनती करें तो जितने मिनट की परीक्षा थी उससे ज्यादा सवाल थे(जैसा की हर कंपटीटीव परीक्षा में होता है).. सवाल कुल 125 थे और समय डेढ़ घंटे, यानी 90 मिनट.. मगर मेरी रफ़्तार उससे ज्यादा थी और समय पूरा होने से लगभग ५-७ मिनट पहले ही मैंने उसे पूरा बना डाला.. अब मैंने अपने बगल में बैठे हुए मित्र के तरह मुडा.. मैंने पाया की उसके अधिकांश उत्तर मेरे उत्तर से पूरी तरह भिन्न थे मगर मुझे भरोसा था की मेरे उत्तर सही थे.. मैंने उसे कहा की मेरे सारे उत्तर कापी कर लो और जहाँ तक संभव हो सका उसने कर लिया और फिर उसने अपने बगल में बैठे हुए हमारे एक और मित्र को भी यही करने को कहा.. बाहर निकल कर अब पूरी तरह से मेरी जिम्मेदारी बन गयी थी, की अगर उनका नहीं निकला तो मुझे ही कहा जाएगा की तूने सारा गलत दिखाया था.. मगर ऐसा नहीं हुआ.. कट-आफ बहुत ऊपर गया था मगर फिर भी हम तीनो का रिटेन में सेलेक्सन हो गया था..

वहाँ इंटरव्यू से पहले एक ग्रुप डिस्कसन था.. मैं जिस ग्रुप में था उसका टापिक था "कैपिटल पनिशमेंट".. जब जी.डी. शुरू हुआ तब मुझे ऐसा लगा की अधिकतर लड़के समझ भी नहीं पा रहे थे इस टापिक का सही मतलब.. मैंने ही शुरूवात की.. और जिंदगी की पहली जी.डी. में असफल भी रहा.. हुआ कुछ ऐसा, की जैसे ही मैंने बोलना शुरू किया वैसे ही सभी लोग मेरी तरफ देखने लग गए.. थोडी देर बाद मैं कुछ असहज महसूस करने लगा और फिर घबराहट इतनी अधिक बढ़ गई की मैं कुछ बोल ही नहीं सका.. खैर, इसमे मैं शत-प्रतिशत अपनी ही गलती मानता हूँ.. पी.सी.एस. में फिर से मेरे कुछ और करीबी मित्रों का सेलेक्सन हो गया जैसे अर्चना, संजीव, अनुज, श्रुति.. अफ़सोस तब हुआ जब अच्छे से जी.डी. देने के बाद भी मैंने अपने जिन दो दोस्तों को अपना पेपर दिखाया था, वे भी जी.डी. क्लियर नहीं कर पाए..

अगली कम्पनी मेरे लिए Hexaware थी.. उसमे भी खूब चोरी चली, मगर मैं इस बार न तो किसी प्रकार का कोई व्यूह बनाया और ना ही चोरी की.. खैर इस बार मैं रिटेन में भी सेलेक्ट नहीं हो पाया मगर पी.सी.एस. का रिटेन निकालने के बाद मेरे आत्मविश्वास में बहुत इजाफा हुआ था.. जब पता चला की Hexaware आने वाली है तो एक रात पहले मैंने संजीव को कहा की कल से मैं भी बैडमिन्टन खेलने आ रहा हूँ, घबराओ मत.. और जब इसमे नहीं हुआ तो अगली कम्पनी में भी मैंने यही बात कही जो सही हो गया.. :) दरअसल होता यह था कि मेरे जिन दोस्तों का सेलेक्शन हो चुका था वे सभी दिन के 6-7 घंटे बैडमिंटन खेलने में बिताने लगे थे, और मेरे जैसा बैडमिंटन का प्रेमी कुछ तैयारी के चक्कर में और कुछ अवसाद में पड़कर खेलने नहीं जाता था..

(अगला अन्तिम भाग...)


मेरे होस्टल के बगल वाला हिस्सा.. इसे आप पार्क नहीं कह सकते हैं मगर था पार्क जैसा ही कुछ.. पूरे वेल्लोर में अगर कुछ हरियाली देखनी हो तो बस VIT आ जाइए :)..


मेरा होस्टल, वाणी के कैमरा से लिया हुआ.. उस समय मेरे पास कैमरा नहीं था सो वाणी से कुछ दिनों के लिए उधार लिया था.. उसके कैमरे से बहुत अच्छी तस्वीर आती है.. :)

Friday, June 13, 2008

जब अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान(भाग 3)

कैंपस सेलेक्सन के दिनों में हर दिन एक नई अफवाह सुनने को मिलता कि आज ये कंपनी आने वाली है.. प्राईवेट कालेज होने के कारण कालेज प्रशासन कभी सही खबर का खुलासा नहीं करती थी.. हर दिन उड़ते-उड़ते खबर मिलती थी कि आज शाम तक या कल सुबह तक फलाना कंपनी आ रही है और ये खबर ना सिर्फ उनके लिये महत्वपूर्ण होता था जिनका कैंपस सेलेक्सन नहीं हुआ था बल्की वे भी खुश होते थे जिनका कैंपस हो चुका था.. कारण के ,सभी अपने साथ-साथ अपने सभी दोस्तों को भी नौकरी के साथ देखना चाहते थे.. सबसे बरी बात तो ये थी कि कैंपस के समय में क्या दोस्त और क्या दुश्मन.. बस पूरी कक्षा एक थी.. जिनसे कोई मदद कि उम्मीद भी नहीं कर सकते थे वे भी हर समय मदद के लिये तैयार रहते थे.. हां, अपवाद हर जगह होता है और यहां भी थे.. कुछ ऐसे भी थे जो कैंपस सेलेक्सन के साथ ही बदल गये थे.. अपने पास कि एक नयी दुनिया को पहचानने का ये मौका था सभी के लिये.. सफलता के साथ लोगों को बदलते देखने का ये एक अलग अनुभव था.. जिंदगी हर रोज कुछ नया सिखाती है और ये सबक कुछ ज्यादा ही कठोर था..

(पिछले भाग से जारी...)
आई.बी.एम. में भले ही मेरा सेलेक्सन नहीं हुआ था मगर मेरे कई प्रिय मित्रों जैसे चंदन, वाणी, प्रियंका, प्रियदर्शीनी का सेलेक्सन आई.बी.एम. में हो गया था.. सच कहूं तो मन थोड़ा उदास तो था मगर ये उदासी अपने उन मित्रों के चेहरे कि खुशी के सामने बहुत कम थी.. बस ये अफसोस रह गया कि अगर मैं भी इसमें सेलेक्ट हो गया रहता तो इन्हीं के साथ आफिस में भी कुछ दिन और गुजारने का मौका मिल जाता..

मेरे लिये अगली कंपनी थी एच.पी... हम सारे लोग, जो बचे हुये थे, पूरे जोर शोर के साथ उसका रिटेन देने के लिये गये.. वहां पी.पी.टी.(प्री प्लेसमेंट टॉक) में ही कुछ नकारात्मक बातें उभर कर आ गई थी.. फिर भी सभी परीक्षा दिये.. हमारे वे सभी मित्र जिनका सेलेक्सन किसी और कंपनी में हो चुका था वो परीक्षा भवन के बाहर चक्कर लगाते रहे.. और ये सिलसिला लगभग पूरे सेमेस्टर चला.. जब मैं नहीं बैठता था तब मैं भी बाहर चक्कर लगाता रहता था.. मन में ये सोचते हुये कि इस बार सभी दोस्तों का कहीं ना कहीं सेलेक्सन हो जाये.. जब एच.पी. का रिजल्ट आया तब हमने पाया कि वो बस एम.टेक. के विद्यार्थियों का ही सेलेक्सन किये थे.. किसी भी बी.टेक. या एम.सी.ए. के विद्यार्थी रिटेन के बाद साक्षात्कार के लिये नहीं चुने गये थे.. चूंकि पेपर बहुत ही आसान था सो सभी ये उम्मीद लग कर बैठे थे कि इंटरव्यू के लिये तो हम चुन ही लिये जायेंगे.. बाद में पता चला कि उन्होंने बी.टेक. और एम.सी.ए. के विद्यार्थियों का पेपर चेक ही नहीं किया था..

वैसे मैं जब बाहर आया था तब मेरा सोचना दूसरों से कुछ अलग था और मैंने बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं लगा रखी थी.. क्योंकि पेपर बहुत आसान आया था और मेरा मानना था कि कट-ऑफ बहुत ऊपर जायेगा.. ये कुछ बातें मैंने उस समय सीखी थी जब मैं बैंक पी.ओ. कि तैयारी करता था.. उस समय मैंने जाना था कि किस प्रश्न को कब हल किया जाये और किस प्रश्न को कब छोड़ दिया जाये.. मेरा किसी बैंक में तो नहीं हुआ(क्योंकि मैं एम.सी.ए. करने वेल्लोर आ गया था), मगर उस समय कि गई तैयारी का फायद मुझे अभी तक मिल रहा है.. कहते हैं न, परिश्रम कभी निष्फल नहीं जाता है..

मेरे लिये अगली कंपनी पटनी कंप्यूटर साल्यूसन PCS थी.. इसमें मैं और मेरे कई और साथी रिटेन के लिये बैठे.. सभी अपने लिये एक व्यूह तैयार करके आये थे और जिहोंने व्यूह नहीं बनाया था वो परीक्षा हॉल में आकर किसी ना किसी व्यूह में शामिल हो गये.. व्यूह कुछ ऐसा कि थोड़ा-थोड़ा सभी उस तरह के प्रश्न हल करेंगे जिसे हल करने में उन्हें महारत हाशिल है और उसे सभी से बांट लिया जायेगा.. मेरे पास पहले से कोई इस तरह की योजना नहीं थी मगर वहां पहूंचकर और ये माहौल देखकर अपने लिये मैं भी व्यूह तैयार करने लगा.. आमतौर पर कई कंपनी इस तरह की परीक्षा में कालेज प्रशासन का सहयोग नहीं चाहती है और किसी तीसरे पक्ष पर ज्यादा भरोसा करती है.. पी.सी.एस. ने भी माईंड ट्रैक नामक तीसरी कंपनी पर भरोसा किया था जो इस तरह के काम में एक्सपर्ट मानी जाती है..

मैं भी अपने कुछ चुनिंदा दोस्तों के साथ व्यूह बना कर बैठ गया.. मगर ठीक परीक्षा शुरू होने से पहले मुझे जगह बदल देने के लिये कहा गया और मुझे दूसरे छोड़ पर बैठ जाने के लिये कहा गया.. पहले तो लगा कि ये मेरे साथ ठीक नही हुआ, मगर फिर ये भी ख्याल आया कि पहले भी मैं अपने भरोसे ही आया था और फिर से अपने भरोसे ही परीक्षा दूंगा.. उस परीक्षा में खूब चोरी चली और किसी को भी उससे ऐतराज नहीं था.. ना लड़कों को और ना ही कालेज प्रसाशन को..

(क्रमशः...)


ELECTRIFYING PERFORMANCE: VIT University students perform at a Western music programme at `Riviera '07' in Vellore on Monday. — Photo: D. Gopalakrishnan
साभार द हिंदू


Thursday, June 12, 2008

जब अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान(भाग 2)

मैंने अपने इस पोस्ट श्रृंखला का नाम रखा है "जब अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान".. क्योंकि अभी तक के अनुभव से यही सीखा है कि जब किसी कालेज में कोई कंपनी कैंपस के लिये जाती है तो कई गधों को पहलवान बना कर वापस लौटती है और कई सच के पहलवान गधों कि तरह मुंह बाये ताकते रह जाते हैं.. कुल मिला कर उस वक्त उस श्लोक का सार समझ आता है जिसके अनुसार "समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता है.." कैंपस सेलेक्सन के बारे में मेरा ये ख्याल है कि अगर वो दिन आपका है तो आप कितनी भी गलती करें मगर आपका सेलेक्सन होना ही है.. आपकी हर गलती साक्षात्कार लेने वाले को आपकी खूबी के रूप में ही दर्शाएगा.. हां मगर आपके पास इतना ज्ञान होना ही चाहिये जिससे आप साक्षातकार लेने वाले को प्रभावित कर सकें..

(पिछले भाग से जारी...)
मैं इंटरव्यू रूम के बाहर बैठ कर पेप्सी के प्रचार वाले लड़के की तरह सोच रहा था कि मेरा नंबर कब आयेगा.. खैर वो भी आया.. आई.बी.एम. वाले लगभग 10-15 इंटरव्यू पैनेल लेकर आये हुये थे.. मेरा इंटरव्यू जिस पैनेल ने लिया वो बैठकर बर्गर खा रहे थे.. ठीक उसी समय मुझे बुला भेजा.. मुझे बर्गर भी ऑफर किया जिसे मैंने औपचारिकता वश मना कर दिया और बाद में अफ़सोस हुआ कि क्यों मना किया.. :) छीन कर खा लेना चाहिए था.. :)

वे पूरी तरह से नकारात्मक भाव लेकर इंटरव्यू ले रहे थे.. मुझसे कुछ तकनिकी प्रश्न पूछे गये जिनका मैंने सही-सही उत्तर देने लगा.. जब उन्हें लगता कि ये उत्तर दे देगा तो तुरत प्रश्न बदल कर कुछ और पूछने लग जाते.. लगभग आधे घंटे तक ऐसा ही चलता रहा.. और फिर वो तकनिकी प्रश्न छोड़ कर एच.आर. वालों कि तरह सवाल-जवाब करने लगे.. कुछ देर तक मैं उत्तर देता रहा मगर एक अनुभव प्राप्त व्यक्ति और मुझ जैसे अनुभवहीन व्यक्ति का अंतर नजर आने लगा.. और जैसे ही मैं किसी प्रश्न में फंसा वैसे ही उन्होंने मुझे बाहर जाने के लिये बोल दिया..

बाद में पता चला कि उस पैनेल वाले ने जिस किसी का इंटरव्यू लिया था उन सभी के साथ उसने यही किया था.. बाद में किसी सीनियर ने बताया कि जहां भारी मात्रा में सेलेक्सन किया जाता है वहां कंपनियां रिजेक्सन पैनेल भी लेकर जाती है जिनका काम होता है बस जिसका भी इंटरव्यू लो उसे रिजेक्ट कर दो.. शायद ये वैसा ही पैनेल था..
चलो कोई बात नहीं, दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है के तर्ज पर मुझे भी कुछ चाहिए था दिल को समझाने के लिए..
मुझे अफ़सोस बस इस बात का रहा कि मैंने उनका बर्गर छीन कर क्यों नहीं खा लिया.. :)

(क्रमशः...)

मेरा होस्टल

Wednesday, June 11, 2008

जब अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान(भाग 1)

आज प्रसिद्ध हिंदी ब्लॉग लेखक अरुण जी पंगेबाज से बातें हो रही थी.. वो मेरा पिछला पोस्ट पढने के बाद बता रहे थे कि उन्हें भी पहली नौकरी कैंपस सेलेक्शन से ही प्राप्त हुई थी(शायद बकलम-खुद में बताना भूल गये होंगें :)).. कल से ही मुझे अपने कैम्पस सेलेक्शन के दिन यादों में बेहद कचोट रहे थे, सोचा कि इसे एक किस्से बतौर लिख डालूं, शायद भविष्य में इसे दुबारा पलटने का मजा ही कुछ और निकले..

सन् 2006 जून की बात है.. हमारे कालेज में कंपनियां कैंपस के लिये आने लगी थी.. मगर मैं और मेरे जैसे मेरे कई मित्र जिनके सारे डिग्रियों में(दशवीं, बारहवीं, ग्रैजुएसन) 60% से अधिक नहीं थे बस तमाशा देख रहे थे.. एक एक करके कई कंपनी आई और आकर चली गई थी.. मेरी पहली कंपनी आई.बी.एम. थी जिसने डिग्रीयों में कोई अंको का मानदंड निर्धारित नहीं कर रखा था.. उसकी लिखित परीक्षा हुई.. बाहर निकलने के बाद सभी बोल रहे थे कि पेपर बहुत टफ था और मेरा नहीं होने वाला है.. सभी बोल रहे थे सो मैं भी यही दोहरा रहा था.. रिजल्ट आने में 1-2 घंटा लगना था सो सभी होस्टल आ गये.. होस्टल आकर मैंने बस विकास को पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा कि दूसरों को चाहे जो भी मैं कहूं मगर मैं जानता हूं कि मेरा रीटेन क्लीयर हो रहा है.. उस समय तक विकास का कैंपस काग्निजेंट नामक कंपनी में हो चुका था.. मैं भले ही किसी को कुछ और बताऊं मगर विकास से अपनी समझ में आज तक कभी झूठ नहीं बोला हूं.. जो मन की बात होती है बस वही कहता हूं.. थोड़ी देर बाद रिजल्ट आया और मेरा कहना सही निकला..
बाद में मुझे पता चला था कि लिखित परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वालों में से एक मैं भी था..
कैंपस सेलेक्सन के समय कुछ भौतिक चीजों का बहुत महत्व हो जाता है.. जैसे किसी लड़के की टाई, किसी की कलम, तो किसी का कुछ और.. ये एक तरह का अंधविश्वास होता है जिसे नहीं नहीं करते हुये भी सभी मानने लगते हैं.. मेरे पास एक टाई थी.. जिसे अभी तक मेरे दो दोस्तों ने पहन कर इंटरव्यू दिया था.. सबसे पहले नीरज ने टी.सी.एस. के लिये पहना था और फिर विकास ने काग्निजेंट के लिये.. और दोनों ही का सेलेक्सन भी हुआ था.. अब मुझे ये तो याद नहीं है कि मुझपर उस अंधविश्वास का प्रभाव हुआ था या नहीं मगर वो मेरी ही टाई थी सो मैंने ही उसे पहना..

इंटरव्यू पहूंचने से पहले मन में कुछ भी भय नहीं था, जबकी मेरे जीवन का ये पहला इंटरव्यू था.. मगर इंटरव्यू हॉल के सामने का तो अलग ही माहौल था.. सभी के चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी.. थोड़ा मुझे भी भय सा हुआ.. मगर अपने तकनिकी ज्ञान पर थोड़ा भरोसा था और सीनियरों से सुना था कि आई.बी.एम. में तकनिकी सवाल ज्यादा महत्व रखते हैं.. सो मन को थोड़ा भरोसा था.. हां मगर उन दिनों अंग्रेजी बहुत अच्छी नहीं होने के कारण मुझे एच.आर. इंटरव्यू से घबराहट जरूर थी..

(क्रमशः...)

VIT पुस्तकालय


अभी तक मैं जितनी भी तस्वीर अपने कालेज की लगाता था वो सभी नेट से लिया हुआ रहता था.. कोशिश करूंगा कि आगे से अपने कैमरे की तस्वीर आपको दिखाऊं.. :)

Monday, June 09, 2008

अकेले TCS ने 1075 लड़कों को VIT कैंपस से चुना


VIT का मुख्य द्वार

आज जब मैं आफिस में बैठा हुआ था तब मेरे मित्र शिवेन्द्र ने मुझे एक साईट का पता दिया.. जब मैंने उसे खोल तो देखता हूं कि मेरे कालेज के लड़कों ने इस बार तो बस कमाल ही कर दिखाया.. TCS ने इस बार वहां से 1075 विद्यार्थीयों का कैंपस सेलेक्सन किया है..

मुझे याद है मेरे समय में (2007 में) TCS ने 575 लड़कों को लिया था जो एक रिकार्ड सा बन गया था.. जिसे बाद में अन्ना यूनिवर्सिटी ने तोड़ा था.. वहां इंफ़ोसिस ने 600+ लड़को को लिया था.. फिर पिछले साल TCS ने मेरे जूनियरों में से 788 विद्यार्थीयों को लिया जो एक नया रिकार्ड बन गया था और मेरी जानकारी में अभी तक ये रिकार्ड ही था.. और अबकी बार तो TCS ने एक ऐसा किर्तिमान स्थापित कर दिया है जिसे आने वाले 2-3 सालों तक कोई भी अन्य यूनिवर्सिटी तोड़ने की स्थिति में नहीं दिख रहा है..

मैंने वहां से एम.सी.ए. किया था सो अपने ब्रांच पर ज्यादा ध्यान रहता है.. एम.सी.ए. से इस बार TCS ने 60 विद्यार्थीयों को लिया है..

ज्यादा जानने के लिये आप यहां देखे.. यहां मगर एक जानकारी गलत है.. वो ये कि पी.जी. से बस 166 विद्यार्थियों का सेलेक्सन हुआ है.. क्योंकि अगर ऐसा होता तो एम.सी.ए. से 60 विद्यार्थी नहीं चुने जाते..

VIT के विद्यार्थी एक और बात के लिये गर्व कर सकते हैं कि इंडिया टूडे ने VIT को भारत का सबसे अच्छा प्राईवेट कालेज का दर्जा दे रखा है..

टेक्नोलॉजी टॉवर

Sunday, June 08, 2008

अन्दर नही जाऊंगा, अन्दर अमरीश पुरी सो रहा है

अन्दर नही जाऊंगा, अन्दर अमरीश पुरी सो रहा है.. ये मुझे मेरे पहले रूम मेट ने कहा था पहले सेमेस्टर मी.. जब वो मेरा रूम मेट बना था तब मैंने पहले दिन ही उसे साफ साफ बता दिया था की अगर तुम दारू पीते हो तो पियो, मगर मुझे अपने रूम मे नौटंकी नही चाहिए.. कम्प्यूटर पर जो करना है करो, मगर मेरी उपस्तिथि मे अपना रूम होम थियेटर नही दिखना चाहिए और भी ना जाने क्या क्या..

वैसे दिल्ली के लड़कों का बिहार के लड़कों को लेकर ये सोचना होता है की वो थोड़े उजड्ड किस्म के होंगे और बिहार के लड़के दिल्ली के लड़कों के बारे मे सोचते हैं की दिल्ली के लड़के बहुत स्वार्थी होते हैं.. इसे आप पूर्वाग्रह ही कह सकते हैं और सच्चा भी.. क्योंकि अधिकतर प्रतिशत लड़के ऐसे ही होते भी हैं.. मगर हम दोनों ही इस तरह के नही थे.. मैं ना तो उजड्ड था और ना ही वो स्वार्थी.. हाँ था एक नंबर का नौटंकी बाज.. अभी वो मुम्बई मे TCS मे है और हमारे बीच काफ़ी दिनों से कोई संवाद नही है.. हमारे बीच एक औपचारिक रिश्ता तब भी था और अभी भी है.. मगर एक इंसान के तौर पर मैं हमेशा उसे दिल का बहुत ही साफ पाया था..

एक बार वह देर रात होस्टल वापस आया.. मैं अपने रूम का दरवाजा सटा कर सो गया था जिससे वो जब भी आए तो आराम से आए और सो जाए.. मेरी नींद मे कोई दखल न परे.. जब मैं सुबह उठा तो उसकी करतूत पता चली, और नशे मे जो कुछ उसने बरबराया था उसने मेरा नया नामांकरण कर दिया था.. अमरीश पुरी..

वो नशे मे धुत पूरी तरह से बेकाबू था.. लोग उसे काबू मे लाने के लिए ना जाने क्या क्या कर रहे थे.. मगर कभी वो बाथरूम मे गुलाटी मारता, कभी कोरिडोर मे.. कभी कुछ नौटंकी करता, कभी कुछ.. कुछ लड़के उसे समझा बुझा कर मेरे रूम तक लाये और बोले की तू जाकर सो जाओ.. मगर उसने मुझे रूम मे सोया हुआ देखा.. उतने नशे मे भी उसे ये याद था की मैंने रूम मे दारू पी कर नौटंकी करने से मना कर रखा है.. जब सभी उसे बहुत कहे तो उसने कहा की अन्दर अमरीश पुरी सो रहा है.. मैं नही जाऊंगा..

आपकी सूचना के लिए, मेरे सर पर बाल नही है.. मैंने कृत्रिम रूप से बाल लगवा रखे हैं जो उस समय नही थे.. एक तो गंजा और दूसरा फिल्मी अमरीश पुरी की तरह कड़क.. दोनों का तड़का मिला कर कुछ ऐसा पकवान बन गया था.. जब मैंने नकली बाल लगवाये तो मेरे एक कालेज के साथी ने मेरा नाम बदल कर जान अब्राहिम पुकारने लगा था.. और अभी भी पुकारता है..

Friday, June 06, 2008

खिंचाव! कुछ रिश्तों का और कुछ...!

मुझे इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स और बाईक्स का बहुत शौक है.. इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स में भी अगर वो संगीत से जुड़ा हो तो फिर क्या कहना.. मेरे हाथ जो भी नया मोबाईल फोन या आई पॉड या फिर एक हेडफोन ही लग जाये, बस सबसे पहले यही देखता हूं कि इसे किस अधिकतम सीमा तक प्रयोग में लाया जा सकता है.. मेरे पास एक सोनी का ईयर फोन है, जिसे मैंने 2003 में खरीदा था लगभग 1700 रूपये में.. उस पर तो ना जाने क्या-क्या प्रयोग करके देख चुका हूं.. कंप्यूटर में तरह-तरह के साफ्टवेयर से अधिकतम आवाज में लगा कर.. बस ये जानने के लिये कि किस सीमा पर खराब आवाज देना शुरू करे.. मगर वो अभी तक किसी भी प्रयोग में अनुत्तीर्ण नहीं हुआ है.. हां उसके अलावा मेरे पास ना जाने कितने ही हेड फोन हैं जो मेरे इस जुल्म का शिकार होकर दम तोड़ चुके हैं..

कुछ साल पहले भैया ने एक बाईक खरीदी थी.. एवेंजर.. जहां तक मुझे पता है ये बाईक अभी तक बिहार में लांच नहीं हुआ है.. भैया ने ये लखनऊ में खरीदी थी.. जब उन्हें पुना किसी ट्रेनिंग के लिये जाना था और उसी समय मैं कुछ दिनों के लिये पटना जाने वाला था तब उन्होंने अपनी बाईक पटना में लाकर रख दिया.. मेरे चलाने के लिये.. पटना में उस समय ये गाड़ी एक अलग ही चीज की तरह देखी जाती थी.. सबसे अलग जो थी.. शान से उस पर मैं घूमता था.. फिर ये बाईक भी मेरे जुल्म का शिकार हुआ.. कितने कम सेकेण्ड में ये 60 कि गति पकड़ेगा, 10 सेकेण्ड में कितने की अधिकतम गति पर पहूंच सकता है और भी ना जाने क्या-क्या प्रयोग मैंने उस पर किया.. अधिकतम गति के मामले में उसने मुझे 125 के लगभग कि गति दी.. इसने भी मुझे निराश नहीं किया.. हां मैं बस उसी चीज पर ये प्रयोग करता हूं, जिसे अपना समझता हूं.. एक-दो बार कुछ अपनों की वस्तुओं को भी अपना समझने की भूल करके एक सबक सीख चुका हूं.... कहते हैं ना, जिंदगी हर दिन कुछ सिखाती है.. मैं भी निरंतर सीखता गया.. कुछ सही, कुछ गलत..

कभी-कभी लगता है मैं रिश्तों के मामले में भी यही गलती कर जाता हूं.. जिसे अपना समझता हूं, उस पर पूरा अधिकार दिखा जाता हूं.. इतना, जितना कि नहीं दिखाना चाहिये.. चाहे ये रिश्ता कोई सा भी क्यों ना हो(दोस्ती का भी).. भूल जाता हूं कि ये कोई भौतिक चीज नहीं है जो अगर अच्छे गुणवत्ता कि हो तो अपने अधिकतम खिंचाव पर भी आपका साथ नहीं छोड़ती है.. और अगर साथ छोड़ भी दे तो आपके पास विकल्प होता है कि आप उसे त्याग कर वैसा ही एक नया ले आयें.. जो कि आप रिश्तों के साथ नहीं कर सकते हैं..

जिंदगी ने जो ताजातरीन सबक सिखाया है वो कुछ यूं है.. जो आपके पास है वो भी आपका है या नहीं ये पूरी तरह आपके विवेक पर और आपकी किस्मत पर निर्भर करता है.. मैंने किस्मत कि बात इसलिये कि क्योंकि आप कभी मानव स्वभाव को नहीं समझ सकते कि कौन कब और कैसा रूप आपको दिखा जाये..

कोई हाथ भी ना मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से..
ये नए मिजाज का शहर है, जरा फासलों से मिला करो..

-----------बसीर बद्र

Thursday, June 05, 2008

पेट्रोल पंप के बाहर का नजारा

कल रात में लगभग 10:30 में घर पहूंचने के बाद मैंने जो नजारा देखा वो कुछ ऐसा था..



अब जितनी भीड़ इस तस्वीर में दिखाई दे रही है, भीड़ दरअसल इससे कई गुना ज्यादा थी.. वैसे इस पेट्रोल पंप पर हर समय वाहनों का जमावड़ा लगा ही रहता है, मगर इतनी भीड़ मैंने इससे पहले कभी नहीं देखी थी.. मैंने अपने दोस्तों को इस बारे में कहा तो उन्होंने याद दिलाया की रात 12 बजे से पेट्रोल का दाम बढने वाला है, इसी कारण ये भीड़ है.. मैं थोड़ी देर उस भीड़ को देखता रहा.. मन में एक ख्याल के साथ कि एक बाईक वाला अधिकतम 10-15 लीटर पेट्रोल ले सकता है और कार वाले 35-40 लीटर.. कितने दिन तक चलेगा ये? कितने दिनों तक ये लोग पेट्रोल के बढे हुये दाम से बचे रहेंगे? खैर अपने पास ना तो बाईक है और ना ही कार.. सो अपन को कोई टेंसन नहीं है.. मैं MTC बस से सफर करता हूं, और उसका दाम भारत में किसी भी बस सर्विस से कम है.. मगर कब तक? कभी तो ऑटो की जरूरत परेगी फिर मैं भी इसके चपेटे में आ जाऊंगा..

वैसे भी भीड़ इतनी अधिक थी कि मुझे कम ही उम्मीद है की सभी लोग 12 बजे से पहले पेट्रोल ले पाये होंगे.. फिर 2 घंटे रात में लाईन लगाने का उनको क्या लाभ?

Wednesday, June 04, 2008

मम्मी का रोना और मेरा ना रोना..

कल वट सावित्री पूजा थी.. रात में मुझे पता चला.. मैं रात में लगभग 10:20 में घर पहूंचा तब मम्मी ने फोन किया और मुझे ये पता चला कि आज वट साविती पूजा है.. मैं पूजा नहीं करता हूं.. पिछली बार भगवान के सामने कब हाथ जोड़ा था वो वर्ष भी अब याद नहीं है.. इस पूजा का महत्व मेरे लिये बहुत ज्यादा है, क्योंकि हम मम्मी का जन्मदिन इसी पूजा वाले दिन मनाते हैं.. मम्मी अक्सर कहती थी कि वो जब पैदा हुई थी उस दिन वट सावित्री का पूजा था और नानी ने भी इसकी पुष्टी कि थी.. रोमण कैलेंडर से तिथी उन्हें याद नहीं..

घर एक बार छूटने पर ऐसा लगता है कि सभी कुछ छूट जाता है.. शुरू-शुरू में आजादी बहुत अच्छी लगती है फिर वो भी एकरस सा महसूस होने लगता है.. उबाऊ सा.. मुझे ये तो याद है कि मैं मम्मी को याद करके पहली बार कब रोया था, मगर अब गिनती याद नहीं है कि कितनी बार रोया हूं.. कल जब मम्मी से बात हुई तो मम्मी ने पूछा कि खाना खा कर आये हो या घर में बना होगा? मैंने कहा खा कर नहीं आया हूं और घर में कोई है नहीं जो बनाया होगा.. देखता हूं क्या खाना है.. नहीं तो एक दिन नहीं खाऊंगा तो कुछ होने जाने वाला नहीं है..

फिर किसी बात पर मम्मी रोने लगी.. मैंने उन्हें समझाया क्यों रो रही हैं आप(आमतौर पर हर घर में मम्मी को तुम करके ही संबोधित किया जाता है.. मेरे घर में भी है.. मगर मैं मम्मी को आप ही कहता हूं)? देखो मम्मी मैं अब नहीं रोता हूं.. आपका बेटा अब बड़ा हो गया है.. दुनिया से लड़ना सीख रहा है.. कहते-कहते गला रूंध सा गया.. आंखों के कोर में कुछ पानी जैसा भी महसूस हुआ.. लगा रो रहा हूं, मगर तभी मैंने पाया कि मेरे भीतर का पुरूष मुझ पर हंस रहा है.. मैंने उस पानी की बूंद को नीचे नहीं टपकने दिया..


इस पोस्ट में अगर आपको मेरे शब्द बिखरे हुये लगे, बिना किसी तारतम्य के तो उसके लिये क्षमा चाहूंगा.. ये बस मां कि याद में बिना सामंजस्य बिठाये लिखा गया है.. जैसे-जैसे भाव मन में आते गये लिखता गया..

ये मैंने अर्चू के चिट्ठे पर कमेंट करने के लिये लिखा था, मगर ये इतना बड़ा हो गया कि मैंने इसे अपने चिट्ठे पर पोस्ट कर दिया..

Tuesday, June 03, 2008

मैं बदल गया हूं शायद

पिछले 2 साल में मेरे भीतर जितना परिवर्तन आया है वो परिवर्तन शायद उससे पहले के 24 सालों में भी नहीं आया था.. जिंदगी को करीब से देखने का मौका मिला.. दुनिया की अच्छाई-बुराई से परिचित हुआ.. काफी कुछ मिलने पर संघर्ष के रंगों को भी बदलते देखा और अपने आस-पास के लोगों को भी..

एक क्षण में लोग कैसे अपनी बात से पलट कर आरोप-प्रत्यारोप करने लगते हैं ये भी समझ में आने लगा(मैं ब्लौग के लोगों कि बात नहीं कर रहा हूं).. कई बार मैंने सोचा कि शायद मैं ही गलत हूं, कई बार होता भी था.. कई बार हीन भावना घर कर गई, कि मैं ही सबसे गया गुजरा हूं तभी इस तरह की घटनाऐं मेरे साथ होती रही है.. कई बार खुद को सर्वश्रेष्ठ मान कर किसी भी चुनौती का सामना करने के लिये भिड़ जाता..

मुझमें सबसे बड़ा परिवर्तन जो आया है वो ये कि मैं बहुत ज्यादा आक्रामक हो गया हूं.. यूं तो पहले भी कम नहीं था मगर जब कभी आक्रामक होता था तो सभी को पता चल जाता था.. पर आज वो मन के किसी कोने में ही छुप कर बैठा रहता है और उचित समय का इंतजार करता रहता है.. कह सकते हैं की मुझमें लोमड़ी जैसी चालाकी और मक्कारी भी आती जा रही है.. जीवन हर रोज कुछ नया सिखाती है, मगर ये पाठ नहीं पढना है मुझे..

मैं नहीं चाहता हूं ये परिवर्तन.. मैं भागना चाहता हूं.. कहां जाऊं समझ में नहीं आता है.. मैं चीखना चाहता हूं, मगर आवाज साथ नहीं दे रही है.. कहीं घुट कर रह जाती है आवाज.. मैं छटपटा कर रह जाता हूं.. चाह कर भी कुछ कर नहीं पाता.. अंदर ही कुछ घुट कर रह जाता हूं..

Monday, June 02, 2008

ये तस्वीर देखिये और बताइये की ये कहाँ की है?


ये तस्वीर देखिये और बताइये की ये कहाँ की है? मुझे पता है की यह बहुत कठिन प्रश्न है.. सो मैं हिंट देता जाता हूँ.. ये झारखण्ड में स्थित है.. साथ में मुझे मेरी फोटोग्राफी के लिए बधाई भी देते जाइयेगा.. :)