Sunday, February 03, 2008

समय और रेत

मुट्ठी बंद करने से,
हाथ से फिसल जाती हैं रेत..
मैंने तो हाथ खोल दिये थे,
फिर भी एक कण ना बचा सपनों का..
एक आंधी सी आयी थी,
जो उसे उड़ा ले गई..
हां वो आंधी समय की ही थी..
और मैं अब तक,
हवा में उड़ते उन कणों के इंतजार में हूं..
कभी तो हवा की दिशा बदलेगी...

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5 comments:

  1. हवा में उड़ते उन कणों के इंतजार में हूं..
    कभी तो हवा की दिशा बदलेगी

    जरुर ..... उम्मीद पर दुनिया कायम है।

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  2. स्वप्न साकार हुये के पहले पकड़ेंगे तो फुर्र ही होंगे। मुठ्ठी बन्द हो या खुली।
    साकार होने पर वे और सुन्दर लगेंगे।

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  3. बहुत सुन्दर!
    घुघूती बासूती

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  4. सुन्दर आशावादी रचना-बधाई!!!

    हाथ से फिसल जाती है रेत...शायद टंकण में भूलवश जाते लिख गया है. :)

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  5. ठीक कर लिया जी.. :)

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