Friday, July 06, 2018

महुआ घटवारन - मारे गए गुलफ़ाम से

''सुनिए! आज भी परमार नदी में महुआ घटवारिन के कई पुराने घाट हैं। इसी मुलुक की थी महुआ! थी तो घटवारिन, लेकिन सौ सतवंती में एक थी। उसका बाप दारू-ताड़ी पीकर दिन-रात बेहोश पड़ा रहता। उसकी सौतेली माँ साच्छात राकसनी! बहुत बड़ी नजर-चालक। रात में गाँजा-दारू-अफीम चुराकर बेचनेवाले से लेकर तरह-तरह के लोगों से उसकी जान-पहचान थी। सबसे घुट्टा-भर हेल-मेल। महुआ कुमारी थी। लेकिन काम कराते-कराते उसकी हड्डी निकाल दी थी राकसनी ने। जवान हो गई, कहीं शादी-ब्याह की बात भी नहीं चलाई। एक रात की बात सुनिए!''

हिरामन ने धीरे-धीरे गुनगुनाकर गला साफ किया,

'हे अ-अ-अ- सावना-भादवा के, र- उमड़ल नदिया, में,मैं-यो-ओ-ओ,मैयो गे रैनि भयावनि-हो-ए-ए-ए;तड़का-तड़के धड़के करेज-आ-आ मोराकि हमहूँ जे बार-नान्ही रे-ए-ए।'


ओ माँ! सावन-भादों की उमड़ी हुई नदी, भयावनी रात, बिजली कड़कती है, मैं बारी-क्वारी नन्ही बच्ची, मेरा कलेजा धड़कता है। अकेली कैसे जाऊँ घाट पर? सो भी परदेशी राही-बटोही के पैर में तेल लगाने के लिए! सत-माँ ने अपनी बज्जर-किवाड़ी बंद कर ली। आसमान में मेघ हड़बड़ा उठे और हरहराकर बरसा होने लगी। महुआ रोने लगी, अपनी माँ को याद करके। आज उसकी माँ रहती तो ऐसे दुरदिन में कलेजे से सटाकर रखती अपनी महुआ बेटी को 'हे मइया इसी दिन के लिए, यही दिखाने के लिए तुमने कोख में रखा था? महुआ अपनी माँ पर गुस्सायी- क्यों वह अकेली मर गई, जी-भर कर कोसती हुई बोली।

हिरामन ने लक्ष्य किया, हीराबाई तकिये पर केहुनी गड़ाकर, गीत में मगन एकटक उसकी ओर देख रही है। खोई हुई सूरत कैसी भोली लगती है!

हिरामन ने गले में कँपकँपी पैदा की,

''हूँ-ऊँ-ऊँ-रे डाइनियाँ मैयो मोरी-ई-ई,नोनवा चटाई काहे नाही मारलि सौरी-घर-अ-अ।एहि दिनवाँ खातिर छिनरो धियातेंहु पोसलि कि तेनू-दूध उगटन।"

हिरामन ने दम लेते हुए पूछा, ''भाखा भी समझती हैं कुछ या खाली गीत ही सुनती हैं?''

हीरा बोली, ''समझती हूँ। उगटन माने उबटन, जो देह में लगाते हैं।''

हिरामन ने विस्मित होकर कहा, ''इस्स!'' सो रोने-धोने से क्या होए! सौदागर ने पूरा दाम चुका दिया था महुआ का। बाल पकड़कर घसीटता हुआ नाव पर चढ़ा और माँझी को हुकुम दिया, नाव खोलो, पाल बाँधी! पालवाली नाव परवाली चिड़िया की तरह उड़ चली । रात-भर महुआ रोती-छटपटाती रही। सौदागर के नौकरों ने बहुत डराया-धमकाया, 'चुप रहो, नहीं ते उठाकर पानी में फेंक देंगे।' बस, महुआ को बात सूझ गई। मोर का तारा मेघ की आड़ से जरा बाहर आया, फिर छिप गया। इधर महुआ भी छपाक से कूद पड़ी पानी में। सौदागर का एक नौकर महुआ को देखते ही मोहित हो गया था। महुआ की पीठ पर वह भी कूदा। उलटी धारा में तैरना खेल नहीं, सो भी भरी भादों की नदी में। महुआ असल घटवारिन की बेटी थी। मछली भी भला थकती है पानी में! सफरी मछली-जैसी फरफराती, पानी चीरती भागी चली जा रही है। और उसके पीछे सौदागर का नौकर पुकार-पुकारकर कहता है, ''महुआ जरा थमो, तुमको पकड़ने नहीं आ रहा, तुम्हारा साथी हूँ। जिंदगी-भर साथ रहेंगे हम लोग।'' 

लेकिन!!

1 comment:

  1. किसी फ़िल्म की स्क्रिप्ट राइटिंग का कॉन्ट्रैक्ट मिल गया है क्या? वैसे, शुरूआत धाँसू है. बधाई व शुभकामनाएँ!

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