यूँ तो मेरे पास तीन-चार जानवरों वाले थे, मगर मुझे जिराफ अधिक पसंद था. लम्बा गर्दन, गर्दन में भी तीन लोच जो किसी और जानवर के खिलौने में नहीं था. हलके से दोनों लीवर को दबाओ तो सिर्फ गर्दन हल्का सा झुकता था, मानो सलामी दे रहा हो. मुझे उसका एक खेल बहुत पसंद था, बाएं लीवर को आधा दबाना, और जब पीछे का पैर आधा झुक जाए तो खिलखिला कर हँसते हुए सबको दिखाना, देखो पॉटी कर रहा है. अब भी याद है जब पापा चक्रधरपुर से कुछ दिनों के लिए गए तो वो खिलौना लेकर गए, जब भी हमारी याद आती तो उस खिलौने को देख लेते.
बहुत सी चीजें बचपन की तरह ही ख़त्म हो जाया करती है, वह खिलौना भी. अब किसी बाज़ार में वह नहीं दिखता. किसी खिलौने के दूकान में जाने पर सबसे पहले मैं वही खिलौना ढूंढता हूँ. उसका परिष्कृत रूप कई जगह दिखते भी हैं, मगर मन तो वही पुराने नौस्तैल्जिया में रहता है. कुछ बचपन की बच्चों सी जिद भी, चाहिए तो बस वही चाहिए. और एक दिन हमें पता भी नहीं चलता और हर कुछ ख़त्म हो जाता है. बचपन, भरोसा, खिलौना, उस किस्म का मेला और हाँ, ज़िन्दगी भी.
हम अपने पसंदीदा खिलौने जैसे ही होते हैं. वे अपने तमाम अच्छाइयों-बुराइयों के बाद भी कभी बुरी नहीं लगती. ठीक वैसे ही जैसे हम खुद को कभी गलत नहीं मानते. हम जानते हैं, खिलौने में किस जगह दरार है. किधर से जरा सा टूट गया है. बाएं वाले लीवर को जरा आहिस्ते से दबाना है नहीं तो धागा टूट जाएगा, वह निष्प्राण करने वाला खेल अब और नहीं. लेकिन फिर भी वह हमारा फेवरेट होता है, सालों साल बचा कर रखना चाहते हैं. उससे ना भी खेलें तो भी सही सलामत हमारे शोकेस में टंगा रखना चाहते हैं. क्योंकि हम ऐसे ही हैं. चीजें ऐसी ही होती हैं.
इत्तेफाक देखिये, हम भी आज अपने बीते बचपन और खिलौनों के बारे में ही सोच रहे थे.... वो बचपन किसी गुजरे से जन्म की बात लगती है न...
ReplyDeleteकितने साधारण से पर प्यारे खिलौने हुआ करते थे,और मेले में तो लगता था ये भी ले लें वो भी ले लें!
ReplyDeleteएक अलग ही दुनिया थी उनके साथ।