Friday, March 15, 2013

ज़िन्दगी जैसे अलिफ़लैला के किस्से

अभी तक इस शहर से दोस्ती नहीं हुई. कभी मैं और कभी ये शहर मुझे अजीब निगाह से घूरते हैं, मानो एक दुसरे से पूछ रहे हों उसका पता. सडकों से गुजरते हुए कुछ भी अपना सा नहीं लगता. पहचान होगी, धीरे-धीरे, समय लगेगा यह तय है.

चेन्नई को समझने के लिए कभी इतना समय नहीं मिला. ज़िन्दगी बेहद मसरूफ़ थी और मन में भी पहले से बैठे कई पूर्वाग्रह थे, और वे सभी पूर्वाग्रह मिल कर एक ऐसा कोलाज तैयार कर चुके थे जिसमें दोस्ती का कोई सवाल ही ना था. मन में यही था कि जब तक यहाँ रहना है तब तक समय गुजार लो. फिर कौन देखने आया है? यूँ भी अपनी-अपनी जड़ों से कट कर यायावरों सी ही ज़िन्दगी तो गुजार रहे हैं हम जैसे सभी लोग, जो नौकरी कि तलाश में घर से निकल आये थे कभी! अब तो ना अपनी जगह अपनी सी लगती है और ना ही वो जगह जहाँ उस वक़्त हम होते हैं. अपनी जड़ों से कटने कि भी सजा तय है मानो, उम्र कैद!!! ताउम्र ऐसे ही भटकने कि सजा.

मगर यह भ्रम तब टूटा जब चेन्नई छूट रहा था. फेसबुक पर भैया मुझे टैग करके लिखे थे "प्रशान्त का हाल बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए वाला है". लगा कि हमारी दोस्ती तो हो चुकी थी. कब कैसे ये कुछ पता नहीं. २५ जनवरी को दफ्तर में आखिरी दिन था और एक्जिट प्रोसेस का फॉर्म मेरे पास २४ को ही आ चुके थे. जैसे ही मेरे दफ्तर के ईमेल अकाउंट में एक्जिट प्रोसेस का फॉर्म आया वैसे ही लगा जैसे कुछ छूट रहा हो. मन मानने को तैयार नहीं कि जिस शहर से मैं बस भाग जाना चाहता था उस शहर के छूटने पर तकलीफ भी हो सकती थी, मगर यही सच था. वो शहर जिसने मुझे कभी दुत्कारा नहीं, हमेशा लाड-प्यार से रखा. मगर बदले में मुझसे घृणा ही पाया.

शुरू के छः महीने, या ये कहें कि पांच महीने चेन्नई में सिर्फ नाम मात्र को हम(शिवेंद्र और मैं) होते थे. ऑफिस के दिनों में मैन्सन से ऑफिस और ऑफिस से मैन्सन. बस. और जैसे ही साप्ताहांत आया वैसे ही चेन्नई से वेल्लोर. वहां शिवेंद्र होस्टल में ना रह कर बाहर एक कमरा ले रखा था, जो बाद में उसका कमरा कम और हम दोस्तों का ऐशगाह ज्यादा बना रहा. तो चेन्नईसे वेल्लोर जाने के बाद हम वहीं ठहरते थे.

अमूमन हम जब भी चेन्नई से वेल्लोर जाते थे तब शायद ही कभी हमारी टिकट चेक हुआ हो. मगर एक बार कि घटना है, हम टिकट के लिए लाइन में लगे हुए थे, और ट्रेन बस खुलने ही वाली थी. हमने देखा कि ट्रेन खुल रही है, बस उसी वक़्त हमने तय किया कि टिकट तो वैसे भी कोई चेक करता नहीं है, सो पकड़ लो, वरना अगली गाडी तीन घंटे बाद है. जीवन में सिर्फ एक ही दफे बिना टिकट यात्रा करते पकड़ा भी गया था. इन्टर्न करने वाले और उससे मिलने वाले स्टाइपेंड के पैसे से जीने वाले के पास पैसे आमतौर पर नहीं हो होते हैं, मगर संयोग से पास में पैसे थे नहीं तो खुदा ही मालिक होता.

मैं ठहरा सामिष, और शिवेंद्र निरामिष. अब इसी नॉन-वेज को लेकर भी उसी पांच महीने में दो मजेदार घटनाएं घटी. पहली घटना तब जब हमारे कुछ मित्र किसी इंटरव्यू के लिए चेन्नई आये हुए थे, और उनके जाते समय हम उन्हें छोड़ने चेन्नई सेन्ट्रल पर आये. रात के साढ़े आठ या नौ बज रहे थे. मुझे छोड़ सभी भूखे भी थे और ट्रेन खुलने में कुछ समय भी था. मैं दफ्तर के पास ही शाम में कुछ खाया था. वहीं पास के एक बिरयानी स्टाल से सभी ने अपनी-अपनी सुविधानुसार बिरयानी लिए, कोई अंडा बिरयानी तो कोई चिकेन बिरयानी और कुछ वेज बिरयानी. उन्हें देने के बाद वो स्टाल भी बंद हो गया. शिवेंद्र ने एक चम्मच ही खाया और मुझे जबरदस्ती बहुत अधिक इंसिस्ट करते हुए खाने के लिए कहा. बोला कि बहुत शानदार बिरयानी है, थोडा टेस्ट कर लो. मैंने जैसे ही टेस्ट किया मुझे चिकेन का टेस्ट आया, समझ गया कि वेज बिरयानी में चिकेन ग्रेवी डाला गया है. मैं जबरदस्ती उससे छीन कर सारा खा गया, मगर उसे कुछ बताया नहीं. इस बाबत उसकी गालियाँ मुझे तब तक सुननी पड़ी जब तक मैंने उसे सारा हाल नहीं बताया. उसे इस बात को लेकर मैं अभी तक चिढाता हूँ.

दूसरी घटना उस जगह कि थी जहाँ हम रोज रात में खाना खाने जाते थे. वहीं पास में स्टेडियम था जहाँ अक्सरहां क्रिकेट मैच हुआ करता है. हम जहाँ खाते थे वो छोटा सा होटल एक पंजाबी दम्पति का था. बाद में उन्होंने ने ही बताया कि वो निःसंतान भी थे, सो ढेर सारे पैसे का कोई मोह नहीं था और इसलिए वो सिर्फ रात में ही होटल खोलते थे. वर्ना उनका होटल हम जैसे उत्तर भारत से आये लड़कों कि वजह से खूब चलता था. वहां फुल्के वाली रोटी तीन रुपये कि थी और कोई भी दाल या सब्जी पंद्रह रुपये की. लगभग एक समय का भोजन तीस रुपये में अच्छे से हो जाता था. नॉन-वेज के नाम पर वो सिर्फ अंडाकड़ी रखते थे. वो तीस रुपये में दो अंडे के साथ मिलता था. वो शायद २००७ का अप्रैल का महिना था. हमें एक-डेढ़ महीने में ही अपना इन्टरन का प्रोजेक्ट ख़त्म करके वापस घर जाना था और फिर जून में वापस आना था. शिवेंद्र बहुत तृप्त होकर मुझसे कहता है, "अंकल-आंटी के खाने का एक और फायदा है, ये लोग साफ़-सफाई पर बहुत ध्यान देते हैं. वेज और नॉन-वेज को कभी मिक्स नहीं करते हैं." उस दिन मैंने खुद के लिए अंडाकड़ी मंगाया था. हमारे ठीक सामने अंकल सब्जी और अंडाकड़ी निकाल रहे थे और आंटी रोटी बना रही थी. अंकल ने पहले अंडाकड़ी निकाला और फिर उसी चम्मच से सब्जी भी निकाल कर सामने रख दिए..बेचारा शिवेंद्र कहे तो क्या कहे? बस अंकल को बोला सब्जी दुसरे चम्मच से निकाल कर दो. मगर यह भी समझ गया कि पता नहीं कितनी बार वो ऐसे ही खा चुका होगा.

खैर, ज़िन्दगी के ये किस्से भी तो अलिफ़लैला के किस्सों से अलग नहीं ही होते हैं. हर दिन हम गर गौर से देखें तो एक नया किस्सा निकल आता है. फिलवक्त के लिए अलविदा.

9 comments:

  1. interesting likhte raho ham padh rahe hai

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    1. मतलब इंटेरेस्टिंग नहीं लिखेंगे तो आप नहीं पढ़ेंगी, है ना? :)

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  2. Jaisa bhi likho .... hum padh rahe hain :P

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  3. सच में, नगर का व्यक्तित्व होता है, अंकल के यहाँ जाकर खाना खाया जायेगा, यदि अवसर मिला तो।

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  4. चेन्नई घूमने का बड़ा मन था मेरा. सोच रखा था कि अपना रुकने का अच्छा ठिकाना है, लेकिन देखो, प्लान बनने से पहले ही तुम्हें वो शहर छोड़ना पड़ा. खैर, कोई बात नहीं, बंगलुरु सही.
    शहर चाहे जैसा हो, उससे लगाव हो ही जाता है. तुम्हारी पोस्ट्स देखकर लग रहा है कि तुम्हें चेन्नई बहुत याद आ रहा है. कुछ दिन तक ऐसा ही होगा.

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  5. :-) ghrina kyun dee ? Badi galat baat hai :( Baaki kissa badhiya tha:-)

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  6. ऐसे ही कई सारे किस्से मिलकर ज़िन्दगी बन जाती है...
    बंगलौर मुझे कभी अपना सा नहीं लगा लेकिन इतना पता है जब ये शहर छूटेगा तो पीछे कई किस्से छूट जायेंगे.. कहते हैं एक जन्म बाद अगर जहन्नुम भी छोडो तो उसकी भी याद आती है, और ये तो अच्छा खासा शहर है जहाँ कई यादगार पल मिलते हैं...
    खैर जब हम २ दिन के लिए चेन्नई गए थे तो वहां स्टेशन से थोड़ी दूर पर अग्रवाल भोजनालय है, इतना बेहतरीन नार्थ इंडियन खाना तो मैंने नार्थ इंडिया में भी नहीं खाया...

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  7. कुछ दिन बाद बंगलौर भी प्यारा लगने लगेगा। :)

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  8. दोस्ती और बैचलरहुड के दिनों के क्या कहने ?!

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