Wednesday, August 24, 2011

दरवाजा

कुछ दिनों पहले एक अजीब सा वाकया हुआ.रक्षा बंधन के दिन कि बात है.. मेरे घर पे मेरे भाइयों का जमावड़ा लगा था.. उनमे मुन्ना भैया और मुक्ता भाभी भी थे.. सबने खाना खाया.. लगभग रात के साढ़े दस या एग्यारह बजे भैया और भाभी अपने घर जाने को निकले.. नीचे तक छोड़ने के लिए मैं भी साथ निकली और मेरे साथ मेरी दोनों बेटियां भी.. मैंने देखा हमारे पडोसी का ड्राईवर अपने पूरे परिवार के साथ सीढ़ी चढ रहा था.. गौर से देखा, उसकी पत्नी ने एक हैण्ड बैग भी टांग रखा था और दो लड़कियां और एक छोटा सा लड़का भी था..

उस ड्राईवर को मैं प्रतिदिन गाड़ी कि सफाई करते तो घर का सामान लाते और यहाँ तक कि उनके कुत्ते को घुमाते भी देखा था.. वो इतने लगन से गाडी कि सफाई करता है कि मैंने अपनी गाडी को साफ़ करने के लिए भी उससे पूछ लिया था, जिससे उसने नम्रतापूर्वक इनकार भी कर दिया था.. कुल मिला कर ये तो मैं जानती हूँ कि वो बरसों से उनके घर पे काम करता है..
हाँ तो अब अपनी बात पे आती हूँ.. नीचे भैया भाभी को विदा करते हुए लगभग दस पन्द्रह मिनट लग गए.. बच्चे भी खेलने के मूड में थे.. भैया कि बेटी सुर को जाने नहीं देना चाहते थे.. कुल मिला कर काफी वक्त बाद हम ऊपर अपने घर कि ओर वापस आये..

मैं हैरान रह गयी जब देखा कि इतनी देर बाद भी उन पडोसी का दरवाजा नहीं खुला था.. वो अब बेल बजाना छोड़ कर हलकी आवाज़ लगाने लगा..'मैडम...मैडम'...उसकी पत्नी और बच्चे थोड़े परेशान हो रहे थे.. अंदर से उनके कुत्ते के भौंकने कि आवाज़ भी आ रही थी.. यानी उस जानवर को भी समझ में आ गया था कि बाहर कोई है..

मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी.. मेरे पति शेखर भी दफ्तर के काम से मुंबई गए थे.. एक बार उनसे पूछने को हुई कि क्या बात है.. फिर डर गयी कि मैं तो अभी अकेली हूँ बच्चों के साथ.. फिर सोचा कि शायद अंकल-आंटी दरवाज़ा खोल ही दे.. इसी दुविधा में अपने घर के अंदर आ गई..

अब तक रात काफी हो चुकी थी, साढ़े ग्यारह से ऊपर हो चुका था.. बच्चों को सोने के लिए कहा.. काफी देर बाद पानी पीने रसोई गयी.. अभी भी वो आवाज़ लगा रहा था.. बच्चों के पास वापस आई ! काफी देर तक सो नहीं पायी ! एक ही सवाल मन में उठ रहा था कि क्या कोई अपने घरेलू नौकरों के प्रति इतना निर्दयी हो सकता है ? कम से कम दरवाज़ा खोल के उसका हाल तो ले ही सकते थे..

अपने ऊपर भी गुस्सा आया.. क्यों नहीं मैंने भी उससे इतनी रात गए सपरिवार यहाँ आने कि वज़ह पूछा.. पर मैं तो उसे ठीक से जानती भी नही..
शायद उस रात उन लोगो ने दरवाज़ा नहीं खोला था और उसे वापस जाना पड़ा था.. अब भी वो हर दिन उसी लगन से सारे काम करता दीखता है.. लेकिन मैं नहीं पूछ पाती कि उस रात क्या हुआ था..

दीदी(रश्मि प्रिया) की कलम से

दीदी से बिना पूछे ही उनके बज्ज से उठा कर छाप रहा हूँ.. सोच रहा हूँ की वो जो कुछ भी लिखे, जो मुझे अच्छा लगे, वो इधर तब-तक छापूंगा जब-तक की वो खुद ही इसे सोशल नेट्वर्किंग साईट्स से हटाकर किसी ब्लॉग पर लिखना शुरू ना कर दे..


आज शाम एक खबर सुनी, सहसा विश्वास ना हो सका.. डा.अमर कुमार जी अब हमारे बीच नहीं रहे.. क्या संयोग है, दीदी के बज्ज पर किये गए इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मैं आज ही कुछ साल पहले दीदी के ऊपर लिखी गई एक पोस्ट को देख रहा था, जिस पर डा.अमर जी ने बेहद भावुक होकर एक कविता कमेन्ट में लिखी थी.. मैंने उससे पहले कभी भी उन्हें भावुक होते नहीं देखा था.. उसी पोस्ट के बाद पहली दफ़े उनसे बातें करने का मौका भी मिला था.. फिलहाल मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं.. मुझे शब्दों में किसी का दुःख बांटना नहीं आता है, सो मूक श्रद्धांजलि ही सही.. उन पर लिखे गए यह शब्द उनके ही अंदाज में तिरछे...



2 comments:

  1. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  2. स्मृतियाँ सदा ही हृदय को छू जाती हैं।

    ReplyDelete