मैं इस क्रांति को एक असाधारण क्रांति मानता हूँ, और इसका सबसे बड़ा कारण यह की यह क्रांति पूर्णरूपेण ना भी सही मगर अधिकाँश हिस्सा किसी नेता के बगैर आम जनता के द्वारा की गई क्रांति थी.. अंदर की वजहें कई हो सकती है, विदेशी साजिश से लेकर अंदरूनी साजिश तक.. कई अनगिनत वजहें.. मगर इस क्रांति के मूल में निर्विवाद रूप से वैसी जनता थी जिन्हें पिछले तीस साल से दबाया जा रहा था.. उन्हें कोई ऐसा मौका नहीं मिल रहा था जिससे उन्हें 'मुबारक' होने का मौका मिले.. भ्रष्टाचार, अनियमितता, बेरोजगारी, भुखमरी से जनता परेशान थी और उन्होंने यह आंदोलन शुरू किया.. सबसे आश्चर्यजनक बात तो मेरे लिए यह रही की लोगों को जोड़ने का काम एक ऐसी चीज ने किया जिसे आम समाज बेकार लोगों का सगल मानती रही है.. सोशल नेट्वर्किंग, ट्विटर, ब्लोगिंग!!
मगर कमोबेश यही हालात तो भारत में भी है.. हर दिन एक नए घोटाले का पर्दाफाश होता है जो पुराने से कई गुना बड़ा होता है.. अपने होश संभालने के बाद सबसे बड़ा घोटाला हर्षद मेहता के "शेयर घोटाले" के रूप में देखा था.. अच्छा हुआ जो हर्षद मेहता गुजर गए, नहीं तो आज भयानक अवसाद में घिरे होते, क्योंकि जितनी रकम के लिए उन्होंने अपना सब कुछ गंवाया उससे कई गुना अधिक रकम हजम करके कई लोग छुट्टे घूम रहे हैं.. चारा घोटाले की हवा ने लालू का राजनितिक जीवन लगभग बर्बाद सा कर दिया, उन्हें भी कुछ अफ़सोस जरूर होगा.. यहाँ घोटालों से सम्बंधित कई बातें गोपनीय रहती है, जैसे यहाँ तमिलनाडु में कई लोगों से सुना है जो बेहद आत्मविश्वास के साथ बताते हैं कि एक राजनेता ने न्यूजीलैंड के पास कोई पूरा आइलैंड ही खरीद रखा है.. जैसे बिहार में हर किसी को पता है कि चारा घोटाले के उजागर के समय कौन सड़कों पर रूपये से भरे बोरे को फ़ेंक जाता था.. "गोपनीय बातें अक्सर उतनी ही गोपनीय होती है जिसकी खबर हर किसी को होती है, मगर सबूत किसी के पास नहीं होता है.." अनियमितता से लेकर भुखमरी, महंगाई और बेरोजगारी भी उतनी ही है.. हम अंदर से किस हद तक भ्रष्टाचार को स्वीकार कर चुके हैं वह इस बात से पता चलता है की हम महाभ्रष्ट पुलिसवाले को सिल्वर स्क्रीन पर देख कर खुश होकर सीटियाँ और तालियाँ बजाते हैं..
मुझे तो कई दफ़े यह अहसास हुआ है कि हम भारतीय भी उतने ही करप्ट हैं जितने कि यहाँ के राजनेता.. जैसे सिग्नल पर अगर कोई पुलिस वाला नहीं है तो सिग्नल तोड़ने का हक सभी को मिल जाता है.. जैसे रेलवे रिजर्वेशन काउंटर पर लाइन में लगने के झंझट से बचने के लिए कुछ रूपये हम आराम से काउंटर पर बैठे व्यक्ति को दे देते हैं.. जैसे अगर किसी कारणवश पुलिस के हाथों पकडे जाने पर हम 300 रूपये जुर्माना भरने के बजाये 50 रूपये घूस देकर छूटना पसंद करते हैं.. जैसे अब हमारी आदत में यह शुमार हो चुका है कि कुछ मुसीबत आने पर अपनी काबिलियत पर भरोसा रखने के बजाये हम जुगाड़ ढूंढते हैं..
मगर इतना कुछ होने पर भी मैं बेहद आशावादी होकर यह सोचता हूँ कि भारत का "तहरीर" कौन सा चौक होगा? जहाँ आम जनता अपने अधिकारों के लिए दूसरों का मुंह ताकना छोड़ कर खुद लड़ने निकलेगी?
बज में किसी युवा ने यह बात तो उठाई
ReplyDeleteबधाई प्रशांत
सिस्टम ही ख़राब है पछांत मामु.. अपने काम से काम रखने वाली पद्धति के चलते देश अभी भी रेंग रहा है..
ReplyDeleteजिस देश मे ९९% लोग बेईमान हो, उन मे इतना दम कहां जो ईमानदारी की बाते कर सके, क्योकि यहां सब को अपनी पडी हे, चिल्लते सब हे, आगे कोई नही आना चाहता....
ReplyDeleteमुझे लगता है गांधी के इस देश में, छोटी और सार्थक लड़ाइयां कई चौकों पर होती रहती है, बिना गोली-बारूद.
ReplyDeleteमेरा मानना है भारत का तहरीरी चौक कोई जंतर मंतर नहीं होगा ...होगा कोई....ऊंघता सा चौक जो बुलंद करेगा ,.दबी हुई आवाजों को ... जिन्हें नेतावो ने ठन्डे होने के लिए बर्फ के बक्सों में दफन किया है..लेकिन वे ठन्डे होने की जगह और गर्म हो रहे हैं...इतने गर्म होंगे की एक रोज ....बक्सा खुद ब खुद पिघल जायेगा...और सारी जन्गिरे उसका रास्ता रोकने में नाकाम होंगी....
ReplyDeleteतहरीर सोचने के पहले ये सोच लें कि कोई है जो इससे अच्छा प्रशासन दे पायेगा, कोई औऱ राजा आयेगा, वह भी लूटेगा। व्यक्तित्व बने, तहरीर हो जायेगा।
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ReplyDeleteतहरीर की नौबत शायद ही आये, यहाँ के लोगों कि घुट्टी मे मिला है.. कोऊ नृप होंहिं हमें का हानि
बकिया नयी बिन्दास पौध का नारा है.. अपना काम बनता भाड़ में जाये जनता
जहाँ भर्ती के लिये इकट्ठी भीड़ में भगदड़ से मौत हो जाती हो वहाँ तहरीर जैसे परिवर्तन अहिंसात्मक तरीके से हों, सँभावना कम ही है ।
मेरी समझ में यही है कि कोई भी क्रान्ति अहिंसक नहीं हो सकती है क्योंकि भीड़ के पास अपनी कोई बुद्धि नहीं होती है..
ReplyDeleteह्म्म्म...!
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