Friday, September 17, 2010

एक अधूरी कविता

उस दिन जब तूने छुवा था
अधरों से और किये थे
कुछ गुमनाम से वादे..
अनकहे से वादे..
चुपचाप से वादे..
कुछ वादियाँ सी घिर आयी थी तब,
जिसकी धुंध में हम गुम हुए से थे..
कुछ समय कि हमारी चुप्पी,
आदिकाल का सन्नाटा..
अपनी तर्जनी से
मुझ पर कुछ आकार बनाती सी,
फिर हवाओं में
उस आकार का घुलता जाना..
किसी धुवें की तरह..
अभी मैं भी तो अधूरा ही हूँ..


Sunday, September 12, 2010

बेवजह

धीरे-धीरे हमारे चेहरे भी एकाकार होने लगे थे.. जैसे मेरा अस्तित्व तुममे या तुम्हारा अस्तित्व मुझमे डाल्यूट होता जा रहा हो किसी केमिकल की तरह.. धीरे-धीरे हमारे द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाले शब्द भी सिमट कर एक होते जा रहे थे.. "सही है!!"... "सलीके से सब कर दिए हैं!!"... "चारपाई!!"... अगर आवाज भी एक हो जाती तो अकस्मात लोग समझ ही ना पाते कि मैं हूँ या तुम, या इसके उलट तुम हो या मैं?

एक दिन तुम चली गई.. बिलकुल अचानक.. ठीक उतना ही अचानक जितनी की मृत्यु होती है.. मैं कई दिनों तक सोचता रहा कि तुम जाने से पहले मुझे भी कोई जहर क्यों ना देती गई? अब लगता है, जहर तो तुमने दिया ही.. जीते जाने का जहर.. तुम्हारे बिना जीते चले जाने का जहर.. जो पल-पल जीने या शायद मरने को मजबूर कर दे..

छायावाद के हर उस कवि या लेखक की ही तरह शायद मेरे भीतर भी कोई नदी तुम्हारे लिए बहती होगी.. जिसमे हम दोनों के ख़्वाब अक्सर प्यास बुझाने आते रहे होंगे.. मगर अरसा हुए, जब मुझे लगने लगा कि मेरे भीतर कि वह नदी सूख चुकी है.. या धरती में विलीन हो चुकी है.. सरस्वती की तरह.. आज फिर वहाँ उस नदी से कुछ रिसता हुआ सा पाया.. आज फिर सारी रात मैं सो नहीं पाया..

जी कर रहा है एक सिगरेट जला लूं.. वही सिगरेट जिससे तुम हद दर्जे तक नफ़रत करती थी.. इतने वर्षों बाद भी मुझे याद है जब तुमने कहा था कि तुम्हारे कालेज के अधिकांश लड़के-लड़कियां फोरम के सामने बैठ कर घंटों धुवें तले जीते हैं, मगर चूंकि मैं सिगरेट नहीं पीता हूँ सो मैं तुम्हें अच्छा लगता हूँ.. ऐसे ही अनगिनत कारण तुम मुझे गिना चुकी थी, मुझे अच्छा बताने के लिए.. सोच रहा हूँ उन सारे कारणों के विरोध में ठीक उलट हो जाऊं.. सोच रहा हूँ आज एक सिगरेट भी जला ही लूँ और या तो उसी के साथ उसी रफ़्तार में धीमे-धीमे जलता रहूँ या फिर तुम्हारी याद को ही धीमे-धीमे राख कर दूँ!!! तुम क्या सलाह दोगी इस बाबत?

ऐसी सजा, देती हवा,
तन्हाई भी, तन्हा नहीं..
नींदे भी अब, सोने गई,
रातों को भी, परवाह नहीं..

ऐसे में बारिश कि बूंदों से अपनी,
साँसों को सहला भी दो..
बढती हवाओं के झोंकों से दिल को,
नगमा कोई ला भी दो..
पलकों की कोरों पे बैठी नमी को,
धीमे से पिघला भी दो..

ये जिंदगी, ऐसी ही थी,
तुमने कभी, जाना नहीं..

जीवन की राहों में आना या जाना,
बताकर नहीं होता है..
जाते कहीं हैं, मगर जान देना,
के आना वहीं होता है..
खोने की जिद में ये क्यों भूलते हो,
के पाना भी होता है..

वो पल अभी, वैसा ही है,
छोड़ा था जो जैसा वहीं..


नोट - गुलाल सिनेमा के इस गीत को पोडकास्ट में नहीं लगा रहा हूँ, उसे नेट पर ढूँढना या फिर खुद ही अपलोड करने जितना मेहनत करने का जी नहीं कर रहा..
एक और आखिरी बात, इसे दो बजिया बैराग्य का हिस्सा ना माना जाए..


Tuesday, September 07, 2010

मेरे घर के बच्चों को डराने के नायाब नुस्खे

बात अधिक पुरानी नहीं है.. इसकी शुरुवात सन 2004 के कुछ साल बाद हुई, जब दीदी कि बड़ी बिटिया को यह समझ आने लगा कि डरना क्या होता है.. फिर शुरू हुई यह दास्तान.. मेरी आवाज गूंजने लगी घर में, "अरे, मेरा मोटा वाला डंडा और रस्सी लाना जरा.. अभी सोमू को बाँध कर पिटाई करते हैं.." (दीदी कि बिटिया को ननिहाल में दिया गया नाम सोमू है..) यह दीगर बात है कि ना तो कभी उसे रस्सी से बाँधा गया और ना ही कभी मोटा वाला डंडा से पिटाई हुई.. कुछ दिनों के साथ के बाद वो प्यारी बिटिया अपने घर चली गई.. मगर उसे वो रस्सी और डंडा भुलाए भी ना भूल पायी.. उसे समझ में आ गया था जिसकी लाठी, उसी की भैंस.. अब वो दीदी और पाहुनजी को हूल देने लगी "पछांत, मोटा बाला डंडा और रच्छी लाना, अभी पिटाई करते हैं".. मेरे लिए तो इतना ही काफी था कि मोटा वाला डंडा के भय से ही सही, कम से कम पछांत मामू उसे याद तो रह गए..

कुछ समय बाद दीदी कि छोटी बिटिया भी हुई.. और उसकी सोमू दीदी उसके बदमाशी करने पर उसे भी पछांत मामू के डंडा से ही डराती रही.. छोटी बिटिया के साथ अधिक समय गुजारने का मौका कभी नहीं मिला.. मेरे लिए वो अप्पू से गप्पू कब बन गई, मुझे भी पता नहीं चला.. सभी के लिए अप्पू, और मेरे लिए गप्पू.. दोनों गाल खूब फुले हुए.. देखते ही खींचने का मन करने लगे, कुछ ऐसा..

इस बार के पटना यात्रा में कुछ अधिक समय गुजारने का मौका मिला जिसे मेरे बुखार ने बर्बाद कर दिया.. किसी को गोद नहीं ले सकता हूँ, कहीं उसे भी बुखार ना हो जाए.. मगर दूर से तो डरा ही सकता हूँ.. है कि नहीं?? :)

कुछ दिनों बाद एक और बच्चे का आगमन हुआ घर में.. भैया-भाभी को बेटा और मुझे भतीजा मिला.. पापा-मम्मी अब नाना-नानी के अलावा दादा-दादी भी बन गए.. उधर दीदी-पाहुनजी का भी प्रोमोशन हो गया इन रिश्तों में.. 24 अगस्त को भैया के बेटे केशू का दूसरा जन्मदिन था..



अब जन्मदिन बच्चों का हो और बैलून ना आये, ये भी कभी होता है भला? नहीं ना!! तो ढेर सारे बैलून भी आये.. और मैंने ऐसे ही मस्ती में एक बैलून फोड़ दिया.. तीनों बच्चे हैरान-परेशान.. ये क्या आवाज किया.. सोमू रानी अब साढ़े छः साल कि थी, सो तुरत समझ गई कि बैलून फूटा.. गप्पू रानी को बताया गया कि बैलून फूटा.. और केशू लाला सोच में कि हुआ तो आखिर क्या हुआ? फिर उसे इतना ही समझ में आया कि बैलून से खेलने पर वो फूट जाता है और उससे डरावनी आवाज आती है..

अब तीनों बच्चों को इकठ्ठा करके, एक बैलून हाथ में लेकर खेलने पर तीनों कि प्रतिक्रिया के बारे में सुने :
सोमू बिना कुछ बोले अपने कान पर हाथ रख कर इन्तजार में रहती कि बैलून अब फूटा तो तब फूटा..

गप्पू बिटिया बिना किसी भाव को चेहरे पर लाये कुछ वाक्य लगातार बोलने लगती है, "मामू.. बैलून मत फोडो मामू.. प्लीज मामू.. बैलून मत फोडो मामू.. हम्फ(लंबी सांस लेने कि आवाज).. मामू.. बैलून मत फोडो मामू.. प्लीज मामू.. बैलून मत फोडो मामू.." यह मंत्र जाप तब तक चलता है जब तक कि उसके मामू, यानी मेरे हाथ से बैलून ना निकल जाए..

अब बचा सबसे छोटा बच्चा.. केशू.. वो तो जैसे ही अपने छोटे पापा के हाथ में बैलून देखता है वैसे ही दहाड़े मर-मर कर रोना चालू.. शुरू शुरू में तो किसी के भी हाथ में बैलून देख कर रोता था, बाद में उसकी समझ में आ गया कि बैलून से खेलते तो सभी हैं मगर फोड़ने का काम बस छोटे पापा का ही है..

कुछ और भी किस्से हैं जिसे मैं संभाल कर लेता आया हूँ.. मौका मिलते ही सुनाता हूँ.. :)