एक दिन तुम चली गई.. बिलकुल अचानक.. ठीक उतना ही अचानक जितनी की मृत्यु होती है.. मैं कई दिनों तक सोचता रहा कि तुम जाने से पहले मुझे भी कोई जहर क्यों ना देती गई? अब लगता है, जहर तो तुमने दिया ही.. जीते जाने का जहर.. तुम्हारे बिना जीते चले जाने का जहर.. जो पल-पल जीने या शायद मरने को मजबूर कर दे..
छायावाद के हर उस कवि या लेखक की ही तरह शायद मेरे भीतर भी कोई नदी तुम्हारे लिए बहती होगी.. जिसमे हम दोनों के ख़्वाब अक्सर प्यास बुझाने आते रहे होंगे.. मगर अरसा हुए, जब मुझे लगने लगा कि मेरे भीतर कि वह नदी सूख चुकी है.. या धरती में विलीन हो चुकी है.. सरस्वती की तरह.. आज फिर वहाँ उस नदी से कुछ रिसता हुआ सा पाया.. आज फिर सारी रात मैं सो नहीं पाया..
जी कर रहा है एक सिगरेट जला लूं.. वही सिगरेट जिससे तुम हद दर्जे तक नफ़रत करती थी.. इतने वर्षों बाद भी मुझे याद है जब तुमने कहा था कि तुम्हारे कालेज के अधिकांश लड़के-लड़कियां फोरम के सामने बैठ कर घंटों धुवें तले जीते हैं, मगर चूंकि मैं सिगरेट नहीं पीता हूँ सो मैं तुम्हें अच्छा लगता हूँ.. ऐसे ही अनगिनत कारण तुम मुझे गिना चुकी थी, मुझे अच्छा बताने के लिए.. सोच रहा हूँ उन सारे कारणों के विरोध में ठीक उलट हो जाऊं.. सोच रहा हूँ आज एक सिगरेट भी जला ही लूँ और या तो उसी के साथ उसी रफ़्तार में धीमे-धीमे जलता रहूँ या फिर तुम्हारी याद को ही धीमे-धीमे राख कर दूँ!!! तुम क्या सलाह दोगी इस बाबत?
ऐसी सजा, देती हवा,
तन्हाई भी, तन्हा नहीं..
नींदे भी अब, सोने गई,
रातों को भी, परवाह नहीं..
ऐसे में बारिश कि बूंदों से अपनी,
साँसों को सहला भी दो..
बढती हवाओं के झोंकों से दिल को,
नगमा कोई ला भी दो..
पलकों की कोरों पे बैठी नमी को,
धीमे से पिघला भी दो..
ये जिंदगी, ऐसी ही थी,
तुमने कभी, जाना नहीं..
जीवन की राहों में आना या जाना,
बताकर नहीं होता है..
जाते कहीं हैं, मगर जान देना,
के आना वहीं होता है..
खोने की जिद में ये क्यों भूलते हो,
के पाना भी होता है..
वो पल अभी, वैसा ही है,
छोड़ा था जो जैसा वहीं..
नोट - गुलाल सिनेमा के इस गीत को पोडकास्ट में नहीं लगा रहा हूँ, उसे नेट पर ढूँढना या फिर खुद ही अपलोड करने जितना मेहनत करने का जी नहीं कर रहा..
एक और आखिरी बात, इसे दो बजिया बैराग्य का हिस्सा ना माना जाए..
ठीक है जी, नहीं मानेंगे :)
ReplyDelete’गुनाहों का देवता’ के चन्दर की याद आ गयी.. सुधा के जाते ही वो भी देवता से गुनाहों का देवता बन जाता था और सुधा के उसके पास वापस ही पहले जैसा मासूम देवता...
ReplyDeleteसुंदर आलेख बस डर रहा हूँ कि ’दिल से’ लिखी बात न हो :-।
शुरू में ही गड़बड़ हो गयी -हमारे चेहरे एकाकार के बजाय सही अभिव्यक्ति होती -हमारे चेहरे एक दुसरे को बहुत धुंधले दिखने लगे थे जिसके चलते दोष तो बिलकुल अछन्नछन्न से हो गए थे......... :)
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद पढ़ने को मिला है।
ReplyDeleteसुंदर बहुत सुंदर है।
ढाई बजिया माने तो चलेगा ? :)
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर टिप्पणी के लिए शुक्रिया PD जी. आप मेरे ब्लॉग के रेगुलर पाठक हैं, ये तो मैं जानता हूँ और अक्सर आपकी टिप्पणियाँ भी आती रहती हैं. इसी तरह स्नेह बनाए रखें.
ReplyDeleteभाई थोड़ी कंजूसी हो गई हो जैसे...भूमिका थोड़ी और लिखनी थी...उस फ्लो की बात ही कुछ और है..कविता भली लगी..सुलगा लूँ सिगरेट..पी नही पाउँगा..सुलगती चली जायेगी...!
ReplyDeleteबाद में जोड़ा गया :
ReplyDeleteछायावाद के हर उस कवि या लेखक की ही तरह शायद मेरे भीतर भी कोई नदी तुम्हारे लिए बहती होगी.. जिसमे हम दोनों के ख़्वाब अक्सर प्यास बुझाने आते रहे होंगे.. मगर अरसा हुए, जब मुझे लगने लगा कि मेरे भीतर कि वह नदी सूख चुकी है.. या धरती में विलीन हो चुकी है.. सरस्वती की तरह.. आज फिर वहाँ उस नदी से कुछ रिसता हुआ सा पाया.. आज फिर सारी रात मैं सो नहीं पाया..
जो बाद में जोड़ा गया ..वो सबसे सुन्दर लगा..बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteगजब भई गजब!!
ReplyDeleteकुछ पर समय के प्रवाह में ठहर से जाते हैं।
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteस्वास्थ्य संबधी जानकारी के लिए इस ब्लॉग को देखे.
http://prakriti-shobha.blogspot.com/
ढाई बजिया वैराग्य है यह? लेकिन यह तो अभिषेक लिख चुके हैं सो तीन बजिया वैराग्य मान लेते हैं। :)
ReplyDeleteसुन्दर लिखा है।
हाय मेरे लल्लू, तुम्हें ये क्या हो गया??? बढ़िया लिखे हो...
ReplyDelete@आराधना:
ReplyDeletehahahahahahaha!!
सही है, पर "बेवजह" आजकल तुम्हें कुछ हो रहा है, क्या हो रहा है.... जबाब नहीं मिला अभी तक..
ReplyDeleteदिन-दिहारे कहे सेठिया रहे हो... (चूँकि हम दिन में पढ़ रहे हैं) अब देखो बात है साफ़ कि जदी (यदि) हम सिरिअस होके सोचें तो सेंटी हैं वरना तुम सेठिया गए हो... जाओ कोई सिनेमा देख आओ... साऊथ कि फिलिम वैसे भी ....
ReplyDeleteहाँ छायावाद वाला हिस्सा ज्यादा सेंटियाने का परिणाम लग रहा है.
पढते पढते... इजाजत फ़िल्म की गजल.. :मेरा कुछ सामान... " याद आ गई..
ReplyDeleteतुम जब इस रंग में लिखते हो तो बस कहर ढाते हो...एक ही बात...समझ नहीं आता कि लेखनी पर बधाई दूं कि लेखक के लिए परेशां होऊं.
ReplyDeleteवो कहा है न...
वियोगी होगा पहला कवि वैसा ही कुछ. या बेहतर उदहारण है अमिताभ की फिल्म का एक डायलोग...जिसमें शेर में वजन तब आता है जब इश्क हो जाता है.
behad khubsurat....tarif jitni ki jaye kam hai....
ReplyDelete