Friday, December 10, 2010

एक सड़क जो कभी शुरू नहीं हुई

आज तक कभी कोई दिखा नहीं है उस घर में.. कभी उसके बरामदे में टहलते हुये भी नहीं.. नहीं-नहीं! कभी-कभी कोई दिख जाता है.. शायद गर्मियों कि शाम जब बिजली आंख-मिचौली खेल रही हो.. सर्दियों में तो शायद कभी नहीं.. गर्मियों के दिनों में पटना में बिजली कि आंख मिचौली खेलनी बेहद आम बात है.. खासतौर से उन दिनों जब मैं पटना में होता हूँ.. वर्ना तो अकसरहाँ मुझे बताया जाता रहता है कि बिजली हर समय रहती है.. हजारों बार उधर से गुजरने के बाद भी शायद ही किसी का दिखना, मगर फिर भी जाने क्यों मुझे वह सड़क अपनी ओर खींचती सी महसूस होती है.. किसी गुरूत्वाकर्षण या चुम्बकत्व के प्रभाव के समान.. मैं नहीं जाना चाहता हूं उधर.. मगर जब कभी उस सड़क के पास से गुजरता हूं मेरे मोटरसायकिल का हैंडल स्वतः ही उस ओर घूम जाता है.. मुझे अच्छे से पता होता है कि उधर कुछ भी ऐसा नहीं है जो मेरे जीवन से संबंधित है.. मगर फिर भी... ना जाने क्यों??????

पुरानी डायरी का पुराना पन्ना - दिनांक ११ जून २००७

11 comments:

  1. ऐसी बातों से बचना चाहिए.:-)

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  2. इतना तो बता दे कोई हमें क्‍या ...

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  3. डायरी का एक मासूम सा पन्ना ।

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  4. बशीर बद्र का एक शेर है

    "हम दिल्ली भी घूमे हैं और लाहौर भी हो आये हैं,
    मगर ए यार! तेरी गली, तेरी गली है."

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  5. मोटरसाइकिल का हैंडल स्वतः ही मुड़ जाता है।

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  6. kai bar mere sath bhi asa ho chuka ha.manjil par pahunchane bad hosh aata ha.yani scoter apane aap hi mudata raha ha.aapake lekh me kuchh khas chhupa sa lagata ha.

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  7. होता है...होता है...बड़े बड़े लोगों के साथ छोटे छोटे शहरों में ऐसी बातें होती रहती हैं .

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  8. होता है...होता है...बड़े बड़े लोगों के साथ छोटे छोटे शहरों में ऐसी बातें होती रहती हैं

    हा हा शिखा दी का कमेन्ट सबसे मस्त लगा :)

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  9. आपकी डायरी पढ़ने का दिल कर रहा है !! :-)

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