Tuesday, July 31, 2007

कुछ बिखरे पन्ने

कल शाम मैं अपनी पुरानी डायरीयों को पलट रहा था, तो मुझे कुछ पुरानी यादों ने घेर लिया। मैं यहां उन्ही यादों और उस डायरी के पन्नों की चर्चा करने जा रहा हूं।

जनवरी, सन २००२। कड़ाके कि सर्दी पर रही थी। मेरे पापा उस समय गोपालगंज में थे सो मैं भी उनके साथ वहाँ गया हुआ था। उन दिनों मैं चाय नहीं पीता था पर उस दिन ठंढ की मस्ती में मैंने चाय कि चुस्की के साथ मुजफ़्फ़र अली का कम्पोज किया हुआ और हज़रत अमीर खुसरो का लिखा हुआ, जिसे छाया गांगुली ने गाया है, गाना बजा कर बैठ गया। उसके बोल कुछ यूं थे :



ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ


चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ, चूँ ज़र्रा हैराँ
हमेशा गिरियाँ, ब-इश्क़ आँ माह
न नींद नैना, न अंग चैना
न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ


यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम
बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाये
प्यारे पी को हमारी बतियाँ


शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़
वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ


तभी मेरे मोबाईल की घंटी टनटना उठी। मैंने देखा तो पाया की मेरे एक बहुत ही पुराने और बेहद अच्छे मित्र का फोन आ रहा था। किसी भी दो लोगों के बीच की दोस्ती की पहचान करनी हो तो आप ये देखिये कि उनके बीच का रिश्ता औपचारिक है या अनौपचारिक। ठीक इसी तर्ज़ पर हमारी दोस्ती भी कभी औपचारिक नहीं थी। हमलोग बचपन के मित्र थे और हम जब भी मिलते थे, हमारी लड़ाई से शुरूवात होती थी और लड़ाई पर ही खत्म भी होती थी। मैं जिसकी चर्चा कर रहा हूं उसका नाम विद्योतमा है और हम बचपन से ही एक दूसरे के बहुत ही अच्छे मित्र रह चुके हैं। इनके बारे में विस्तार से फ़िर कभी बात करूंगा, अभी मैं वापस विषय पर आते हुये उस समय के घटना की बात करता हूं।

हमने बाते करना शुरू किया और इधर गाना भी बदल गया और मैं रूबी(उसके घर का नाम रूबी है) से बात करने में रूची कम दिखाना लेने लगा। उस गीत में खोया भी कुछ ऐसा था मैं उस वक़्त। वो भी मुजफ़्फ़र अली का कम्पोज किया हुआ और हज़रत अमीर खुसरो का लिखा हुआ और छाया गांगुली का गाया हुआ था। उसके बोल कुछ यूँ थे।

फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों

फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो

फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूंढे हमने बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मयख़ाने हों

फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में सांस भी हम पर भारी हो

फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो


उसने मुझसे पूछा की बात करने में रूची क्यों नहीं ले रहे हो? मैंने बातें बनाते हुए कहा, "मैं कुछ लिख रहा हूं"। उसने पूछा की मैं क्या लिख रहे हो और मैने पहला पैराग्राफ उसे सुनाया। फिर क्या था, वो फिर से झगड़ने लगी की मैं क्या-क्या अनाप-सनाप लिख रहा हूँ, लिखना आता भी है क्या और फिर से हमारी बातें झगड़ते हुये ही खत्म हुई। ५-६ दिनों बाद जब मैं पटना पहूंचा तो उसने मुझे अपनी लिखी हुई गज़ल दिखाई जो की उसी तर्ज़ पर लिखी हुई थी जो मैंने उसे सुनायी थी।

यहाँ इतनी भूमिका बांधने का कारण बस आप लोगों तक वो गज़ल पहूंचाना था जो की उसकी लिखी हुई है। और अब आप ही अपनी राय दीजीये कि उसकी लिखी हुई गज़ल कैसी थी।

फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों,
फ़र्ज़ करो दिवाने हों...
फ़र्ज़ करो ये दोनों बाते,
झुठे हों अफ़साने हों...

बस इतना तो मानो,
दिल है एक दर्द भरा...
चले आना पास हमारे,
जब दर्दे दिल आजमाने हों...

फ़र्ज़ करो कि उनकी आँखों में,
इल्तजाओं के सामियाने हों...
फ़र्ज़ करो कि उनको मनाने के,
यही सारे बहाने हों...

मगर दिल कहता है कि,
बस यही आलम रह जाए...
शायद उनकी इसी अदा के,
हम और भी दिवाने हों...

फ़र्ज़ करो कि वो,
खुद की अदाओं से बेगाने हों...
फ़र्ज़ करो कि उनकी आँखे,
सचमुच के मयखाने हों...

कभी राह में मिल जाएँ तो,
कहना कि हम प्यासे हैं...
चले आएँ वो पास हमारे,
उन्हें जिस क़दर भी पिलाने हों...


पढकर ऐसा लगा मानो, जो अमीर खुसरो से छुट गया था उसे इसने पूरा कर दिया। आज रूबी की शादी हो चुकी है और वो कहाँ है ये मुझे पता नहीं है, पर मुझे पता है की हम अगर फिर कभी मिलेंगे तो उस समय भी हमारी दोस्ती वैसी ही रहेगी जैसी की अब-तक थी।

खैर ये चिट्ठा काफी लम्बा हो चुका है और मैं अब अनुमति चाहूंगा।
धन्यवाद...

Monday, July 30, 2007

'प्यासा' एक नजर


कल मैंने फिर से प्यासा देखी, ये एक ऐसी फ़िल्म है जिसे मैं जितनी बार देखता हूं उतनी बार एक बार और देखने का जी चाहता है। मेरा ऐसा मानना है कि अगर कोई भी डायरेक्टर अपने जीवन में इस तरह का फ़िल्म बनाता है तो फिर उसे कोई और फ़िल्म बनाने कि जरूरत ही नहीं है, क्योंकि वो फ़िल्म व्यवसाय को इससे अच्छा उपहार दे ही नहीं सकता है। मगर जैसा कि अपवाद हर जगह होता है, बिलकुल वैसे ही गुरूदत्त जैसा अपवाद हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री को भी मिला। उन्होंने हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री को एक से बढकर एक कई अच्छे और दिल को छू जाने वाले फ़िल्म दिये। जैसे ‘कागज़ के फूल’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘साहिब, बीवी और गुलाम’, ‘मिस्टर एंड मिसेस 55’, ‘बाज़ी’, इत्यादी।

यहाँ मैं बस प्यासा फ़िल्म की चर्चा करने जा रहा हूं। मेरे मुताबिक ये फ़िल्म अपने आप में एक विशिष्ठ श्रेणी की फ़िल्म थी, क्योंकि यह फ़िल्म तब बनी थी जब जवाहर लाल नेहरू के सपनों के भारत का जन्म हो रहा था। और उस समय गुरूदत्त ने जो समाज का चित्रन किया था वो आज कि परिदृष्य में भी सही बैठता है।

प्यासा, जो सन १९५७ में बनी थी, में वह सबकुछ है जो किसी फ़िल्म के अर्से तक प्रभावी व जादुई बने रहने के लिए ज़रुरी होता है। सामान्य दर्शक के लिए एक अच्छी, कसी हुई, सामयिक कहानी का संतोष (फ़िल्म के सभी, सातों गाने सुपर हिट)। और सुलझे हुए दर्शक के लिए फ़िल्म हर व्यूईंग में जैसे कुछ नया खोलती है। अपनी समझ व संवेदना के अनुरुप दर्शक प्यासा में कई सारी परतों की पहचान कर सकता है, और हर परत जैसे एक स्वतंत्र कहानी कहती चलती है। परिवार, प्रेम, व्यक्ति की समाज में जगह, एक कलाकार का द्वंद्व व उसका भीषण अकेलापन, पैसे का सर्वव्यापी बर्चस्व और उसके जुडे संबंधों के आगे बाकी सारे संबंधों का बेमतलब होते जाना।

मैं यहां प्यासा फ़िल्म का एक गाना लिख रहा हूं जो कि आज के समाज पर भी उतना ही बड़ा कटाक्ष कर रहा है जैसा उस समय पर था। ये मेरे अब-तक के सबसे पसंदीदा गानों में से भी है।

ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया..
ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया..
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी..
निगाहों में उलझन दिलों में उदासी..
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

यहां एक खिलौना है इंसान की हस्ती..
ये बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती..
यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

जवानी भटकती है बदकार बनकर..
जवां जिस्म सजते हैं बाजार बनकर..
यहां प्यार होता है व्यापार बनकर..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

ये दुनिया, जहां आदमी कुछ नहीं है..
वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है..
जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

जला दो इसे फ़ूंक डालो ये दुनिया..
मेरे सामने से हटा दो ये दुनिया..
तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया..
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है??

Monday, July 23, 2007

भैया और भाभी

मेरी प्यारी सी दुनिया - भाग २
समय है भैया और भाभी की चर्चा करने की। सबसे पहले तो मैं इन दोनों को ढेर सारी शुभकामनाए देने के साथ आप लोगों को ये बताना चाहूंगा कि ये दोनों अभी-अभी २२ जून को शादी के बंधन में बंधे हैं।

हां तो सबसे पहले मैं अपने प्यारे भैया के बारे में बताना चाहूंगा कि ये मेरे बहुत ही अच्छे मित्र हैं पर जब कभी बड़े भाई का पात्र निभाने का मौका मिला है, तो इन्होंने उसे बहुत ही अच्छे तरीके से निभाया है. जब हम बच्चे थे तब खूब लड़ा करते थे, मुझे याद भी नहीं है की मैंने कितनी बार उनको मारा होगा (वैसे मैं भी कम मार नहीं खाता :)) । पर आज हालात ये है की अगर वो मुझे कि किसी बात के भी मारें तो यह हाथ नहीं उठने वाला है. कारण आप अच्छी तरह समझ रहे होंगे कि बात शारीरिक शक्ती या पशु-बल की नहीं है, बल्कि आदर और सम्मान की है जो समय के साथ बढता ही जा रहा है।

जैसा मैं अपने पिछले चिट्ठे में लिख चुका हूं, "मैं बचपन से ही अपने घर में सबसे बदमाश रहा हूं" और कभी पढता-लिखता नहीं था. मगर भैया इसके ठीक विपरीत जन्म से ही असीमित प्रतिभा वाले रहें हैं. अब अगर मैं इनके बारे में ये कहूं कि ये IIT Roorkee के Topper भी रह चुके हैं तो आगे इनकी क्षमता के बारे में चर्चा करने की जरूरत नही होनी चाहिये।

एक बात बताता हूं जो मैंने आज तक किसी से भी नही कही है। "मुझे उन दिनों कि याद अभी भी है जब मेरी उनसे बिलकुल भी नहीं बनती थी पर जब कभी भी मैं इनके साथ कहीं बाहर जाता था तो खुद को बहुत सुरक्षित महसूस करता था." भैया मुझसे इतने ज्यादा बड़े नहीं हैं कि कोई मुसीबत आने पर उस समय अपनी भी रक्षा कर पाते, फिर भी मुझे लगता था कि मैं भैया के साथ हूं, कौन मेरा क्या बिगाड़ लेगा।

खैर अतीत से बाहर आता हूं और कुछ वर्तमान की चर्चा करता हूं। अभी ये भारतीय अभियंता सेवा में कार्यरत हैं। इन्होंने सिंदरी से जानपद अभियंता की उपाधि प्राप्त की है और इन्होंने M.Tech. IIT Roorkee से की है। ज्ञान और दर्प से दमकता चेहरा, जिस पर आत्मविश्वास सोने पे सुहागा जैसे कहावत को सच करता है।

कुछ भाभी की बातें:
मुझे कार्यालय से ज्यादा दिनों की छुट्टी नहीं मिल पाने की वजह से इनके साथ ज्यादा दिन नही बिता पाया था सो बहुत ज्यादा कुछ पता नहीं है, लेकिन फिर भी इतना तो बता ही सकता हूं कि मेरी भाभी बहुत प्यारी सी और भोली सी है। मुझे इनको चिढाने में बहुत मजा आता है, मैं इनको हमेशा अपनी बात इस् अंदाज में कहता हूं की इन्हें समझ में ना आये और जब मेरी बात इनके समझ में नहीं आती है तब बस मजा आ जाता है। :D
वैसे मेरी भाभी की हंसी बिलकुल बच्चों जैसी मासूम है, अगर भरोसा ना हो रहा हो तो आप खुद ही इनसे मिल लें। इनके बारे में कभी मैं फुरसत में बताउंगा, जब मैं खुद इनके बारे में अच्छी तरह जान जाउंगा। तब-तक के लिये विदा चाहूंगा।
अलविदा

Friday, July 20, 2007

मेरी प्यारी सी दुनिया

मुझे आज ये विचार आया कि ये मेरी छोटी सी दुनिया तो है मगर ये मेरी दुनिया का प्रतिबिम्ब नहीं है, क्योंकि अभी तक मेरे परिवार और मित्रो के लिये जगह नहीं बनी है. तो क्यों ना इसे मैं आज संपूर्ण बना ही दूं?


शुरूवात करता हूं उनसे जिन्होंने मुझे ये जीवन दिया, और जिनकी बदौलत आज मैं कुछ हूं. आप लोग तो समझ ही गये होंगे कि मैं किनकी बात कर रहा हूं? जी हां मेरे माता-पिता. मैं इन्हें मम्मी और पापाजी कह कर बुलाता हूं. मैं इनकी तारीफ़ में ज्यादा कुछ नही कहूंगा, क्योंकी अपने माता-पिता कि तारीफ़ तो सभी करते हैं. मगर इतना तो जरूर कहूंगा की इन्होंने मेरा जिन परिस्तिथियों में साथ दिया है वैसा कम ही माता-पिता करते हैं. और सबसे जरूरी बात ये है कि, ये लोग समय के साथ चलने वालों में से हैं ना कि ये कह कर अपना पल्ला झाड़ने वालों में कि आजकल की पीढी के साथ ही समस्या है.


मैं अपने घर में सबसे छोटा हूं, और छोटा होने का मतलब सबसे बदमाश होना होता है. जिसे मैंने भी सार्थक किया है. घर में कुछ टूटा हो या कुछ बरबाद हुआ हो तो पहला शक मुझपर ही जाता था. मेरे पापाजी को मुझसे बहुत लगाव था और् है भी, और उसी कारण से मम्मी हमेशा कहती थी कि ये लड़का आपके कारण ही बिगड़ेगा. इसमें सुधरने के कोई लक्षण नहीं दिखते हैं. खैर मैं तो ऐसा नहीं सोचता मगर आज वो समझते हैं कि मैं सुधर गया हूं. वो कहते हैं ना कि इंसान जब कमाने लगता है तो सुधरा हुआ माना जाता है. कुछ ऐसी ही मुझ पर भी बीती है. :)


इसके साथ मैं अपना ये चिट्ठा बंद करता हूं और जल्द ही अगले चिट्ठे में मिलता हूं नये पात्र और अपनी नयी सच्ची कहानी लेकर.

Monday, July 02, 2007

बचपन की याद

आज मेरी एक मित्र ने मुझे ये कुछ पंक्तियां ईपत्र के द्वारा भेजा तो बचपन कि कुछ याद ताजा हो गयी और सोचा की क्यों ना आप लोगों को भी वापस बचपन में लौटने का मौका दूं। सो मैं ये पत्र यहां भेज रहा हूँ। वंदना जी को पत्र भेजने के लिये सह्रिदय धन्यवाद।
मछली जल की रानी है,
जीवन उसका पानी है।
हाथ लगाओ डर जायेगी
बाहर निकालो मर जायेगी।

पोशम्पा भाई पोशम्पा,
सौ रुपये की घडी चुराई।
अब तो जेल मे जाना पडेगा,
जेल की रोटी खानी पडेगी,
जेल का पानी पीना पडेगा।
थै थैयाप्पा थुश
मदारी बाबा खुश।

झूठ बोलना पाप है,
नदी किनारे सांप है।
काली माई आयेगी,
तुमको उठा ले जायेगी।

आज सोमवार है,
चूहे को बुखार है।
चूहा गया डाक्टर के पास,
डाक्टर ने लगायी सुई,
चूहा बोला उईईईईई।

आलू-कचालू बेटा कहा गये थे,
बन्दर की झोपडी मे सो रहे थे।
बन्दर ने लात मारी रो रहे थे,
मम्मी ने पैसे दिये हंस रहे थे।

तितली उडी, बस मे चढी।
सीट ना मिली,तो रोने लगी।
driver बोला आजा मेरे पास,
तितली बोली " हट बदमाश "।

चन्दा मामा दूर के,
पूए पकाये गूड़ के।
आप खाएं थाली मे,
मुन्ने को दे प्याली मे।