मुझे आज ये विचार आया कि ये मेरी छोटी सी दुनिया तो है मगर ये मेरी दुनिया का प्रतिबिम्ब नहीं है, क्योंकि अभी तक मेरे परिवार और मित्रो के लिये जगह नहीं बनी है. तो क्यों ना इसे मैं आज संपूर्ण बना ही दूं?
शुरूवात करता हूं उनसे जिन्होंने मुझे ये जीवन दिया, और जिनकी बदौलत आज मैं कुछ हूं. आप लोग तो समझ ही गये होंगे कि मैं किनकी बात कर रहा हूं? जी हां मेरे माता-पिता. मैं इन्हें मम्मी और पापाजी कह कर बुलाता हूं. मैं इनकी तारीफ़ में ज्यादा कुछ नही कहूंगा, क्योंकी अपने माता-पिता कि तारीफ़ तो सभी करते हैं. मगर इतना तो जरूर कहूंगा की इन्होंने मेरा जिन परिस्तिथियों में साथ दिया है वैसा कम ही माता-पिता करते हैं. और सबसे जरूरी बात ये है कि, ये लोग समय के साथ चलने वालों में से हैं ना कि ये कह कर अपना पल्ला झाड़ने वालों में कि आजकल की पीढी के साथ ही समस्या है.
मैं अपने घर में सबसे छोटा हूं, और छोटा होने का मतलब सबसे बदमाश होना होता है. जिसे मैंने भी सार्थक किया है. घर में कुछ टूटा हो या कुछ बरबाद हुआ हो तो पहला शक मुझपर ही जाता था. मेरे पापाजी को मुझसे बहुत लगाव था और् है भी, और उसी कारण से मम्मी हमेशा कहती थी कि ये लड़का आपके कारण ही बिगड़ेगा. इसमें सुधरने के कोई लक्षण नहीं दिखते हैं. खैर मैं तो ऐसा नहीं सोचता मगर आज वो समझते हैं कि मैं सुधर गया हूं. वो कहते हैं ना कि इंसान जब कमाने लगता है तो सुधरा हुआ माना जाता है. कुछ ऐसी ही मुझ पर भी बीती है. :)
इसके साथ मैं अपना ये चिट्ठा बंद करता हूं और जल्द ही अगले चिट्ठे में मिलता हूं नये पात्र और अपनी नयी सच्ची कहानी लेकर.
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