Friday, December 31, 2010

बधाईयों की किंकर्तव्यविमूढ़ता

पिछले कुछ दिनों से परेशान हूँ, सोशल नेट्वर्किंग साईट्स पर नववर्ष की शुभकामनाओं से.. ऑरकुट पर मेरे जितने भी मित्र हैं लगभग उन सभी को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, अगर वे मेरे वर्चुअल मित्र हैं तब भी वे आम वर्चुअल मित्र की श्रेणी में नहीं आते हैं.. मगर फेसबुक पर कई लोग ऐसे हैं जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ और वे लोग ही वर्चुअल शब्द के खांचे में फिट बैठते हैं.. अब ऐसे में जब कोई नववर्ष की शुभकामनाएं भेजते हैं तो मेरे लिए यह किंकर्तव्यविमूढ़ वाली स्थिति हो जाती है.. बधाई के उत्तर में या तो सिर्फ औपचारिकता के लिए आप भी उन्हें उसी तरह कि शुभकामनाएं भेजें, अथवा कुछ भी जवाब ना देकर खुद को एक घमंडी व्यक्ति के रूप में स्थापित कर लें..

मुझसे औपचारिकता निभाना किसी भी क्षण में बेहद दुष्कर कार्य रहा है, और उससे अच्छा खुद को एक अहंकारी व्यक्ति कहलाना अधिक आसान लगता है.. मजाक में कहूँ तो, "अगर मनुष्य एक सामजिक प्राणी है तो मुझमें शत-प्रतिशत मनुष्य वाला गुण शर्तिया तौर से नहीं है.." :)

ऐसा नहीं कि यह सिर्फ नववर्ष के समय ही होता है.. लगभग ऐसी ही स्थिति जन्मदिन की शुभकामनाएं पाते समय भी होती है, ऐसी ही स्थिति होली और दिवाली के समय भी होती है.. मेरे विचार में सभी जानते हैं कि कौन सही में उनका शुभचिंतक है, कौन नहीं है और कौन मात्र औपचारिकता निभाने के लिए बधाई सन्देश भेजते हैं.. अधिकाँश समय मैं भी बधाई सन्देश भेजता हूँ, आखिर सामाजिकता मुझे भी निभानी चाहिए, ऐसे ख्यालात में.. अब ऐसे में मुझे यह मात्र एक तरह का ढोंग जैसा लगने लगता है..

मेरे यह सब लिखने के पीछे का कारण मेरे फेसबुक पर मेरे किये गए अपडेट के उत्तर में आये सन्देश हैं.. मैंने लिखा था कि "Closing my FB for two days to escape from all virtual new year wishes." मेरे कई मित्रों ने प्यार भरी झिडकी सुनाई, उनकी कही बातें मुझे आपत्ति तो कतई नहीं लगा.. इस लेख को उसकी सफाई ही मान लें..

कई लोग मुझे यह कह सकते हैं कि मात्र एक बधाई सन्देश के आदान-प्रदान में ऐसी कंजूसी क्यों? इसके उत्तर में मेरा इतना ही मानना है कि यह मेरा व्यक्तिगत विचार है, और हर किसी के व्यक्तिगत विचार का सम्मान होना भी बेहद जरूरी है..

मित्रों, जरूरी नहीं कि अगर मैं आपसे कभी मिला नहीं, और मात्र आभासी दुनिया से जुड़ाव मात्र रहा हो तो मेरी आपके प्रति आसक्ति कम अथवा अधिक हो जाए.. अलबत्ता कई लोग तो ऐसे हैं वहाँ जिनसे मुझे असल दुनिया के कई लोगों से अधिक जुड़ाव है, जबकि मैं कभी उनसे मिला भी नहीं हूँ.. और वैसे लोगों का प्यार ही है जो मुझे इस आभासी दुनिया में बनाये रखा है.. साथ ही यह बात भी सत्य है कि किसी भी तरह के बधाई सन्देश को पाने के बाद, चाहे वह मेरी सफलता पर दिए गए बधाई सन्देश हों अथवा किसी तीज-त्यौहार पर दिए गए, मैं किंकर्तव्यविमूढावस्था में होता हूँ..

मैं आपके बधाई का उत्तर दूँ अथवा ना दूँ, इससे आपके प्रति मेरा प्यार एवं सम्मान कम अथवा खत्म कतई नहीं होगा.. चाहे वह मेरे आभासी दुनिया के मित्र हो या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.. मैं आप सभी से बेहद प्यार करता हूँ..

Monday, December 20, 2010

केछू पप्प!!

भैया का बेटा.. उम्र दो वर्ष, तीन माह.. मुझे छोटे पापा बोलने कि कोशिश में मात्र पापा ही बोल पाता है, छोटे पापा शब्द उसके लिए कुछ अधिक ही बड़ा है.. इस गधे को, अजी बुरा ना माने मैं अक्सरहां प्यार से गधा-गधी बुलाता ही रहता हूं, अपने छोटे पापा उर्फ़ पापा से बहुत परेशानी है.. परेशानी कि हद भी बिलकुल हद्द तक है.. अब देखिये इसकी परेशानी -

१. पापा बैठे हैं तो भला बैठे क्यों हैं? (मैं कहाँ बैठूँगा? जी हाँ, जहाँ मैं बैठूँगा उसे उसी वक्त वहीं बैठना होता है..)
२. पापा खड़े हैं तो भला खड़े क्यों हैं? (अब पापा जहाँ खड़े हैं वहीं मैं भी खड़ा रहूँगा.. पापा को हटाओ वहाँ से..)
३. पापा घूम रहे हैं तो घुमते क्यों हैं? (पापा नहीं घूमेंगे, मैं घूमूँगा..)
४. पापा खाना क्यों खा रहे हैं? (पापा घर का सारा खाना खा लेंगे.. उन्हें खाने के लिए कुछ मत दो..)
५. पापा पानी क्यों पी रहे हैं? (पापा सारा पानी पी जायेंगे, तो मैं क्या पियूँगा? उन्हें मत दो पानी पीने के लिए..)

मुझे तो इसी बात का संतोष है कि चलो इसे कम से कम अभी ये तो पता नहीं है कि पापा सांस भी लेते हैं.. नहीं तो इसे आपत्ती होगी कि पापा सारा हवा खतम कर देंगे.. फिर मैं कैसे सांस लूँगा?

नखरे इतने हैं इस लड़के के कि मत पूछो.. ऐसे दादी के पास नहीं जाएगा, क्योंकि दादी गोद में लेकर घुमाती नहीं है.. लेकिन अगर इसके छोटे पापा इसकी दादी के पास जाकर बैठ जायेंगे तो इसके तन-बदन में आग लग जाती है.. "पापा पप्प.. केछू आं!! पापा पप्प.. केछू आं!! पापा नै, केछू आं!!(पापा को भप्प कर दिया, और केशू बैठेगा वहाँ.. पापा नहीं, केशू हाँ!!)"

कैसे केशू अपने पापा को 'पप्प' करता है उसका एक नमूना इस वीडियो में आप देख सकते हैं.. कभी कभी बेचारा शरमा शरमा कर भी 'पप्प' करता है..



उसके पापा और उसके बीच के वार्तालाप का एक हिस्सा आप को पेश करता हूं..
सीन 1 :
- केशू, पता है तुमको?
- आं!!
- अरे, ये तो पापा को भी नहीं पता है.. तुमको क्या पता है?
- आं!!

सीन 2 :
- केशू, पता नहीं तुमको?
- नई..
- पापा को भी नई पता है बेटा!!(उदास वाला शक्ल बना कर)
- नई.. ऊंहेंहेंहें..(ठुनकना चालू, कि पापा बताओ)

सीन 3 :
भोरे भोरे, जब केशू का उन्घी भी नहीं टूटा रहता है, भाकुवाया रहता है, तब उसे कार दिखा कर बहलाया जाता है.. पड़ोस के घर में खड़े कार.. तू तार(टू कार).. अगर आपको वो किस्सा होगा तो आप भी इस 'टू' का रहस्य जान जायेंगे.. अगर नहीं जानते हैं तो इस पन्ने से घूम आयें..
तो मुआमला आज भोरे का ही है.. आज भोरे टू कार नहीं, फोर कार लगी हुई थी.. अब केशू को पापा के साथ कार नहीं देखनी थी.. उसे तो दादा के साथ देखनी थी कारें..
- हम भी देखेंगे फोर कार..(केशू के पापा कि आवाज)..
- नई..
- आं.. पापा आं, केशू नई!!
- ऊंहेंहेंहें...
- अच्छा, पापा नई देखेंगे फोर कार.. केशू देखेगा..
अभी भी हम तीन बालकनी में खड़े हैं.. कार कि ओर तीनों ही देख रहे हैं.. मगर कार सिर्फ केशू और उसके दादा ही देख रहे हैं.. उसके पापा नहीं.. उसे डर है कि पापा कहीं सारे कार को देखकर खतम ना कर दें..

सीन 4 :
आज केशू अपने खिलौना गिटार पर सू-सू कर दिया.. उसके पैंट में उसका सू-सू लगा हुआ है उसकी चिंता नहीं.. मगर पहले उसके गिटार को पहले साफ़ करो..
सू-सू करने के बाद उसकी एक समस्या और भी रहती है.. कहीं उसके पैंट बदलने के बीच में उसका छू-छू उसके पापा कुवा(कौवा) को ना दे दें..

चलिए, इस अलिफलैला के किस्से और भी हैं सुनाने को.. अभी तो हम सुनते ही रहेंगे इन किस्सों को.. :)

Wednesday, December 15, 2010

दो बजिया बैराग का एक और संस्करण

एक जमाने के बाद इतने लंबे समय के लिए घर पर हूँ.. एक लंबे समय के बाद मैं इतने लंबे समय तक खुश भी हूँ.. खुश क्यों हूँ? सुबह-शाम, उठते-बैठते इनकी शक्लें देखने को मिल जाती है.. सिर्फ इतना ही बहुत है मेरे लिए.. इतना कि मुझे अपने Loss of Payment का भी गम नहीं.. जी हाँ, Loss of Payment पर छुट्टियाँ लेकर घर पर हूँ.. मगर फिर भी खुश.. इतने लंबे समय तक खुश रहने कि आदत भी खत्म हो चली थी, सो कभी-कभी दुःख कि कमी भी सालती है.. मगर फिर भी खुश हूँ.. मैं इन्हें देख कर खुश हूँ, और वे मुझे देख कर.. जी हाँ, मैं पापा-मम्मी कि ही बात कर रहा हूँ..

अभी-अभी मैं इधर घर आया और भैया का तबादला पटना से कहीं दूर, लगभग हजार किलोमीटर दूर, हो गया.. सो फिलवक्त यहाँ सिर्फ पापा, मम्मी और मैं ही हूँ.. ये अपने बच्चों(दीदी, भैया अथवा मैं) के पास अधिक समय नहीं रहना चाह रहे हैं, इन्हें पटना में ही रहना है.. इनके पास भी कुछ जायज वजहें हैं, जिसे मैं नकार भी नहीं सकता.. और स्वीकार करना भी बेहद कठिन जान पड़ता है.. जब तक मैं यहाँ हूँ, तभी तक.. अभी तो कुछ और दिनों तक यहीं रह कर Work From Home करने कि जुगत में हूँ.. चार कमरे, दो बड़े-बड़े हॉल वाले घर में मात्र तीन आदमी का होना ही उसे सुनसान सा बना देता है.. हाँ मुझे चिढ है इस बड़े घर से.. एक कमरे में अगर मोबाईल कि घंटी भी बजे तो दूसरे कमरे में सुनाई नहीं देता है.. ये सोचता हूँ कि जब मैं भी नहीं होऊंगा तब इन दो प्राणियों को कितना खटकेगा यह घर?

जहाँ मैं रहता हूँ वहाँ से, और जहाँ भैया नए-नए पदस्थापित हुए हैं वहाँ से भी, पटना आना एक टेढ़ी खीर(भैया के बेटे कि तोतली भाषा में खीर नहीं, 'तीर') ही है.. चेन्नई से कम से कम साढ़े आठ घंटे(वो भी तब जब आप जैसे ही एयरपोर्ट पहुंचे तभी आपको दिन में वाया मुंबई, वाया दिल्ली, फिर पटना जाने वाली एकमात्र फ्लाईट मिल जाए) लगते हैं.. भैया जहाँ गए हैं वहाँ से सबसे पास के बड़े शहर पुणे(वहाँ तक जाने में दो घंटे, फिर फ्लाईट वाया दिल्ली फिर पटना) जाकर पटना आने में भी नौ दस घंटे लगेंगे.. लब्बोलुआब यह कि कोई तुरत आना भी चाहे तो दस घंटे सबसे कम समय सीमा है..

मुझे कई दफे पापा ने कहा कि बिहार सरकार में ही अथवा बिहार में ही कम्प्युटर से सम्बंधित कोई नौकरी अथवा कोई काम शुरू कर दो.. मगर मैं अपनी कुछ व्यावसायिक मजबूरियों(स्वार्थ का ही Sophisticated शब्द मजबूरी) के चलते अभी इधर शिफ्ट नहीं होना चाहता..

इधर पिछले कुछ सालों से जब भी घर(पटना) आना हुआ है तब हमेशा मम्मी को स्वास्थ्य रुपी समस्याओं से घिरा ही पाया हूँ.. हर बार कुछ और निष्क्रियता देखता हूँ.. इस हद तक कि उन्हें अपनी पसंद कि सब्जी बनाने के लिए बोलने से पहले मैं खुद ही वह बना दूँ, उन्हें कोई कष्ट ना हो.. माँ के हाथ कि सब्जी का लालच छोड़ कर.. बाहर के सारे काम पापाजी को करते देखता हूँ.. कम से कम जब मैं नहीं होता हूँ तो कोई और चारा भी नहीं होता उनके पास.. शुरुवाती दिनों में बहुत कष्ट होता था उन्हें सब्जी लाते देख कर भी.. जिस तरह कि जिंदगी उन्होंने जिया है, उसमें उन्हें(या हमें भी) कभी भी सब्जी खरीदने तक कि जरूरत नहीं देखी.. हर वक्त कुछ लोग होते थे यह सब काम करने के लिए.. मगर वहीं उन्हें देखा कि रिटायर होने के बाद अचानक से बेहद खास से बेहद आम होते गए.. मेरे लिए आश्चर्य का विषय मगर पापा के लिए बेहद सामान्य.. शायद जड़ से जुड़ा आदमी ऐसे ही व्यक्ति को कहते हैं.. जो दस नौकर-चाकर के साथ जिंदगी गुजारने के बाद अचानक से वह सब त्याग कर, बिना किसी अहम के सारे कार्य खुद करने लग जाएँ(वे हमें बचपन से ही कहते रहे हैं, "तुम लोग अफसर के बच्चे हो, मैं तो किरानी का बेटा हूँ")..

अभी कुछ दिन पहले पापा कि तबियत जरा सी खराब होते देख मुझे कुछ भविष्य दिखने लगा.. मुझे कुछ यूँ दिखा कि अब मैं भी नहीं हूँ.. वापस अपने कार्यक्षेत्र जा चुका हूँ.. पापा कि तबियत जरा सी खराब हुई, और घर के सारे जरूरी काम ठप्प से पड़ गए अथवा उन पड़ोसियों के जिम्मे आ गए जिनसे हमारे बेहद मधुर सम्बन्ध हैं.. और उस वक्त अगर हम में से कोई आना चाह भी रहा हो तो आ नहीं पा रहा हो..

इधर इन्हें अपने पोते का मोह भी खिंच रहा है.. खैर, जब तक मैं हूँ तब तक फिर भी ठीक है.. कमी कुछ कम खलेगी.. मेरे बाद?? ऐसा पोता जो जन्म से लेकर अभी तक(दो साल से ऊपर तक) इन्हीं के लाड-प्यार के साथ बड़ा हुआ हो.. दिन में एक बार उसकी आवाज सुनने तक को छटपटाते देखा हूँ(जबकि अभी उसे जाने में पन्द्रह दिन बाकी है).. मोह माया का शायद कभी अंत नहीं..

बहुत कठिन जान पड़ता है ये सब अब!!! खुद पर भी, या ऐसे कहूँ कि अपने स्वार्थ पर बेहद शर्मिन्दा भी हूँ.. मगर फिर भी उसे छोड़ नहीं सकता हूँ..

Friday, December 10, 2010

एक सड़क जो कभी शुरू नहीं हुई

आज तक कभी कोई दिखा नहीं है उस घर में.. कभी उसके बरामदे में टहलते हुये भी नहीं.. नहीं-नहीं! कभी-कभी कोई दिख जाता है.. शायद गर्मियों कि शाम जब बिजली आंख-मिचौली खेल रही हो.. सर्दियों में तो शायद कभी नहीं.. गर्मियों के दिनों में पटना में बिजली कि आंख मिचौली खेलनी बेहद आम बात है.. खासतौर से उन दिनों जब मैं पटना में होता हूँ.. वर्ना तो अकसरहाँ मुझे बताया जाता रहता है कि बिजली हर समय रहती है.. हजारों बार उधर से गुजरने के बाद भी शायद ही किसी का दिखना, मगर फिर भी जाने क्यों मुझे वह सड़क अपनी ओर खींचती सी महसूस होती है.. किसी गुरूत्वाकर्षण या चुम्बकत्व के प्रभाव के समान.. मैं नहीं जाना चाहता हूं उधर.. मगर जब कभी उस सड़क के पास से गुजरता हूं मेरे मोटरसायकिल का हैंडल स्वतः ही उस ओर घूम जाता है.. मुझे अच्छे से पता होता है कि उधर कुछ भी ऐसा नहीं है जो मेरे जीवन से संबंधित है.. मगर फिर भी... ना जाने क्यों??????

पुरानी डायरी का पुराना पन्ना - दिनांक ११ जून २००७

Tuesday, December 07, 2010

घंटा हिंदी ब्लॉगजगत!!

हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगजगत!!
हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगजगत!!
हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगजगत!!
हिंदी ब्लॉगिंग, हिंदी ब्लॉगिंग, घंटा हिंदी ब्लॉगजगत!!
अधिकाँश हिंदी में ब्लॉग लिखने वाले पता नहीं कब तक हिंदी ब्लॉगिंग को शैशव अवस्था में मान कर एक्सक्यूज देते रहेंगे.. ब्लॉग लिखने कि शुरुवात हुए बामुश्किल १०-१२ साल हुए हैं, और हिंदी ब्लॉग लिखने कि शुरुवात हुए लगभग ६-७ साल, मगर अभी तक यह शैशव अवस्था में ही है.. हद्द है ये.. अपनी गलती छुपाने का अचूक उपाय.. इसे शैशव अवस्था का बता दो.. बस्स.. ये नहीं सोचते कि अभी खुद ही हम शैशव अवस्था से आगे कि नहीं सोच पा रहे हैं, बस कहने को बड़ी-बड़ी बातें हैं पास में..

अब तो कभी-कभी लगता है कि अच्छा ही हुआ जो ब्लॉगवाणी बंद हो गया.. कम से कम उतनी चिल्लपों तो अब नहीं होती है.. और ना ही पहले जितने "बधाई, कृपया मेरे यहाँ भी पधारें" जैसा कमेन्ट मिलता है अथवा "अच्छा लगने पर पसंद जरूर करें" जैसा मैसेज पोस्ट के नीचे चिपका हुआ मिलता है.. अब भले ही कमेन्ट कि संख्या कुछ कम हो, मगर जो भी आते हैं कुछ पढ़ने के लिए ही आते हैं.. कहीं कुछ हंगामा बरपा भी तो कम ही लोग आपस में झौं-झौं करते हैं, जब तक बहुतों को पता चले उससे पहले ही लोग लड़ने के बाद अपना फटा कुरता समेट कर जा चुके होते हैं..

लोग बात बात में कहते हैं "हिंदी ब्लॉगजगत", मानो अपनी मानसिकता बना लिए हों कि जो ब्लॉग लिखते हैं बस वही उनके ब्लॉग पढ़ें और कमेन्ट लिखें.. अगर कोई बाहरी पढ़ भी ले तो कमेन्ट करने से पहले अपना प्रोफाईल बनाए तभी कुछ लिखे, नहीं तो हम उसे बेनामी कह कर गालियाँ भी देंगे और अगर मेरा ब्लॉग मोडेरेटेड है तो बेनामी कहकर उसे पब्लिश भी नहीं करेंगे.. मतलब पूरी बात यह कि अगर आप ब्लॉग लिखते हो तो ही मुझे पढ़ो, और अगर पढ़ भी लिए तो जबान बंद रखो!! तिस पर यह रोना कि यहाँ सिर्फ ब्लॉगर ही लिखते हैं और ब्लॉगर ही पढते हैं.. अब कोई खुद ही कुवें में रहना चाहे और बाहर ना निकले तो रोना किस बात का भला?

मुझे अच्छे से पता है कि मेरे इस पोस्ट को ब्लॉगर के अलावा और कोई नहीं पढ़ने वाला है, अगर कोई पढता भी है तो उसे समझ में नहीं आएगा कि मैं क्या और क्यों लिख रहा हूँ ये सब, अगर यह उसके समझ में आ भी जाता है तो यह उसके किसी काम का नहीं होगा.. कुल मिलाकर यह कि ब्लॉग के ऊपर लिख कर कोई भी अपने पाठक वर्ग को निराश ही करता है, कम से कम मेरा अनुभव तो यही कहता है..

कुल मिलाकर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि हिंदी में लिखे जाने वाले ब्लॉगस को शैशव अवस्था में मानना बंद करें, अगर दस साल के अंग्रेजी ब्लॉगिंग को सौ बरस का माना जाए तो हिंदी ब्लॉगिंग सठियाने कि अवस्था में आ चुका है.. हिंदी ब्लॉग नामक छोटे दायरे से बाहर निकल कर समूचे अंतरजाल के बारे में सोचना शुरू करें.. सबसे अहम बात, अगर आप चाहते हैं कि आपके लिखे पोस्ट को ब्लॉग से बाहर के लोग भी पढ़ें तो ब्लॉग और ब्लॉगरों के बारे में लिखना बंद ना भी करें तो कम अवश्य करें..

अपने उन पाठकों से क्षमा सहित जो ब्लॉग जगत से बतौर लेखक जुड़े हुए नहीं हैं..

डिस्क्लेमर - यह पोस्ट कुछ महीने पहले लिखी गई थी, जिसे मैंने उस वक्त गुस्से में लिखी थी.. इसलिए भाषा भी बेहद तल्ख़ है.. मगर आज इसे पोस्ट करते समय भी मैंने इसकी तल्खियत घटाने कि जरूरत महसूस नहीं की.. किसी को इस भाषा से कष्ट पहुंचे तो अग्रिम माफ़ी ही मांग लेता हूँ..

Monday, December 06, 2010

6 दिसंबर, डा.आम्बेडकर जी और बावरी मस्जिद

छः दिसंबर को भारत देश के लिए गौरवपूर्ण क्षण के साथ शर्मनाक क्षण एक साथ आते हैं.. शर्मनाक क्षण ऐसे जिसे हमें याद ना करना चाहिए, उसे हमारी मीडिया चिल्ला चिल्ला कर उत्तेजित आवाज में खबरें बांचती है, साथ में एक सवाल भी किसी जुमले जैसे उछाल देती है जिसमें हिंदू-मुसलिम सहिष्णुता पर सवाल इस कदर हावी होता है जैसे अगर किसी के मन में कोई राग-द्वेष नहीं है तो क्यों नहीं है? होना चाहिए.. जैसे भाव होते हैं..

गौरवपूर्ण क्षण, यानी डा.आंबेडकर जी का महापरिनिर्वाण दिवस.. एवं शर्मनाक क्षण, यानी बावरी मस्जिद का गिरना..

गौरवपूर्ण क्षण को लेकर मीडिया में कोई हलचल नहीं, ये उनके लिए शर्मनाक क्षण हों जैसे और बावरी मस्जिद का गिरना किसी तरह का गौरव प्रदान करने जैसा.. खैर, इस पर(मीडिया पर) कुछ भी लिखना अपना ही समय बर्बाद करने जैसा है.. मगर फिर भी जब किसी ऐसे व्यक्ति कि तरफ से कोई अजीबोगरीब किस्म का सवाल उछलता है तो उसके जवाब में मन में कई तरह के अन्य प्रश्न पैदा हो जाते हैं.. फिलहाल दो उदाहरण देना चाहूँगा..

पहला उदहारण :
कल रात विनीत ने फेसबुक पर एक प्रश्न पूछा :

आज की रात आपको बाबरी मस्जिद याद आ रहे हैं या फिर आरएसएस के गुंडे?
18 hours ago · ·

उनका यह सवाल मैंने आज सुबह देखा, और लिखा "कोई भी नहीं.. चैन से सोकर उठे हैं अभी.." मगर मन में जो सबसे पहली बात आयी वह यह थी, "यहाँ हर कोई अपनी निजी समस्या से घिरा हुआ है, किसे फुरसत है इन बातों को इतने सालों बाद याद रखने की और समस्या किसी का धर्म देखकर नहीं आता है?" वैसे भी मेरे ख्याल से इन बातों को याद रखने से फायदा भी क्या है? सिवाय नफरत के और क्या मिलेगा इन बातों को याद रख कर?

दूसरा उदहारण :
कुछ बातें मैं डा.आंबेडकर जी के बारे में भी लिखना चाहूँगा.. आज के समय में अगर कोई डा.आम्बेडकर जी को याद ना करे तो तुरत-फुरत में उसे दलित विरोधी बता दिया जाता है, मगर अगर वही व्यक्ति लाल बहादुर शास्त्री जी को याद ना करे तो उसे सवर्ण विरोधी नहीं बताया जाता है!! मैं यहाँ किसी तरह की तुलना नहीं कर रहा हूँ.. हमारे यहाँ कि शिक्षा पद्धति ही ऐसी है जिसमें इन महापुरुषों के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया है.. इसमें किसी को याद रखना और याद ना रखना मैं उसकी अज्ञानता ही समझता हूँ.. आज ही अभय तिवारी जी ने लिखा :

एक समाज सुधारक, दलित समाज के नेता के तौर पर तो सवर्ण समाज उन्हे गुटक लेता है लेकिन विद्वान के रूप में अम्बेडकर की प्रतिष्ठा अभी सीमित है। उसका सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही कारण है कि वे दलित हैं..
7 hours ago · ·

यहाँ मैंने एक और मुद्दे कि ओर बात खींचने कि कोशिश की.. जिसके बारे मैं मैं अभी भी बात कर रहा था, हमारी शिक्षा पद्धति.. ये दीगर बात है कि उसके बनाने वालों में भी अधिकाँश सवर्ण ही रहे होंगे(यह मेरा मत है, मेरे पास कोई सबूत नहीं).. मैंने वहाँ लिखा था, "एक कारण और भी है, सवर्ण समाज कि अज्ञानता.."

तीसरा उदहारण :
दिलीप मंडल जी आम्बेडकर जी कि बात पिछले दो-तीन दिनों से कह रहे हैं.. मगर उनके कहने के तरीके से मुझे सख्त ऐतराज है.. क्योंकि मेरी नजर में यह नफरत को और बढाने जैसी ही बात है.. वे कहते हैं :

डॉ. अंबेडकर के निजी संग्रह में 50,000 से ज्यादा किताबें थीं। उन्होंने जो लिखा है वह करोड़ों शब्दों में है। वे अपने समय के सबसे ज्यादा पढ़-लिखे लोगों में थे (गांधी-नेहरू की तरह नहीं)। खासकर अर्थव्यवस्था पर उनके लेखन को दोबारा पढ़ने की जरूरत है।
10 hours ago · ·

मैंने उनसे इस बाबत सवाल भी पूछे, जिसका जवाब अभी तक नहीं मिला.. मेरा सवाल था "गाँधी-नेहरू की तरह नहीं" से उनका क्या मतलब है? या फिर कैसा मतलब साधना चाह रहे हैं? मेरी इस बात को कुछ अच्छे तरीके से अशोक कुमार पांडे जी कहा :

Ashok Kumar Pandey इस () की कोई ज़रूरत नहीं थी…किसी को चमकदार सफ़ेद बनाने के लिये दूसरे पर स्याही पोतना, दरअसल उसकी सफ़ेदी पर शक़ करना है।
6 hours ago · · 5 people


नोट - फिलहाल इसे पोस्ट से पहले सोच रहा हूँ कि इतने दिनों बाद कुछ लिख रहा हूँ और किन-किन बातों में दिमाग को उलझाए रखे हुए हूँ.. (मुद्दों पर जीने वाले बुद्धिजीवी हो सकता है मेरे इस "किन-किन" शब्दों पर आपत्ती जताए, मगर आम भारतीय ऐसे ही सोचता है यह उन्हें स्वीकार करना ही पड़ेगा)