Tuesday, April 17, 2007

उद्देश्यहीन जीवन

जी रहा था यूँ,
कि मानो जिन्दगी बसर कर रहा था,
उद्देश्यहीन जीवन,
तब तुम आयी,
जीवन में बहार बनकर,
धड़कन लेकर,
चाहा था तुम्हें,
हमेशा खुश रखने की चाहत थी,
एक उद्देश्य मिला था जीवन को।
अब आज
जब तुम नहीं हो,
जीवन पुनः
उदास झरने के जैसे
बही जा रही है,
मानो उद्देश्यहीन जिन्दगी ही,
जीवन का अंतहीन सत्य हो॥

4 comments:

  1. haan bhai.. but mere liye suitable hai.. tum kahe pareshan ho raha hai..
    waise aachi kavita hai.. agar humko pehle bhejta to hum use karte dusro ko imress karne ke liye..
    aab se mere jab bhi naya kavita likhna to mere ko pehle mail kar dena..

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  2. Thik hai bhai... abse ayesa hi karoonga.. :D

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  3. उद्देश्‍यहीन पटनहिया प्रहरी, बड़ी मार्मिक पंक्तियां लिखते हो, गुरु! कौन बेवकूफ बाला है जो बिलाकर तुम्‍हारे जीवन को उदासी का झरना बना रही है? है कहां की- मीठापुर की कि कंकड़बाग वाली? और झरना बहती है कि बहता है? कि झरना बहेलेएए?.. चलो, इसी बहाने हमारे चिंतन की निरुद्देश्‍यता को तुमने उद्देश्‍यपूर्ण रस्‍ता दे दिया! जय जीवन..

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  4. प्रमोद भैया, अब क्या बताऊं कि कहां की है। इसे नेपथ्य में ही रहने दिया जाये तो अच्छा है। :D
    और रही बात झरने की तो यहां झरना नहीं जीवन बह रही है, वैसे आप गूरू लोग हैं सो आप बेहतर जानते होंगें।
    :)

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