Wednesday, November 07, 2012

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जिंदगी.
-- नशे को श्रेणीबद्ध करने पर निकला परिणाम

कुछ दिन पहले ऐसे ही आये ख्याल

Friday, October 05, 2012

प्रतीक्षानुभूति

वे दोनों मिले, एक फीके मुस्कान के साथ. फीकापन क्या होता है वह उस समय उसे देखते हुए समझने की कोशिश कर रहा था, ना समझ पाने कि झुंझलाहट भी उसके चेहरे पर थी. वह सोच रहा था वो क्या सोच रही होगी अभी?
"पास में ही एक कैंटीन है, चलो उधर ही चल कर बैठते हैं." जाने किन ख्यालों में गुम थी वो.
"चलो"
कॉफी पीते हुए वह बरबस ही पूछ बैठी, "इतने दिनों बाद आये हो, कैसा लग रहा है यहाँ?" और बेहद लापरवाही के साथ वह बोल गया "तुम्हारे पास होने से यह शहर भी हसीन लगने लगा है" बोल चुकने के बाद वह सोचने लगा "शहर तो सारे एक से ही होते हैं, बेतरतीब से. यह हसीन शहर कैसा होता होगा?" और खुद अपनी कही बातों पर भी एक फीकी मुस्कान दे बैठा.

वहाँ भीड़ बढती जा रही थी. उन्होंने वहाँ से उठना पसंद किया. बाहर निकल कर अब कहाँ जाया जाए? पास के एक चबूतरे पर बैठ गए, जहाँ लड़के को बैठने में कोई परेशानी नहीं थी वहीं लड़की नाक-भौं सिकोर रही थी.

"क्या समय हुआ है?" अब से पहले तक जो औपचारिकता और फीकापन दोनों के चेहरे पर था वह छंट चुका था. "मुझे साढ़े पांच बजे तक घर के लिए चले जाना होगा."
"दो बज कर पच्चीस मिनट" उसने कलाई घडी पर समय देखते हुए बताया.

"तुम अपनी झुल्फों को हमेशा को तो हमेशा अपनी तर्जनी में फंसा कर लपेटती रहती हो? मगर आज तो यह हवा में लहरा रहे हैं?"
ठिठक कर अपनी जुल्फों को तर्जनी से पकड़ कर इठलाती हुई अपने कानो में खोंसती हुई वह जैसे सफाई दे रही हो, अपने उस झूठ की जो उसने पिछले दफे कही थी, "जब बिना मांग के बाल संवारती हूँ तब बालों को अँगुलियों में लपेटती हूँ, वर्ना यूँ ही कानो में खोंस लेती हूँ."

"अच्छा अब समय क्या हुआ?" एक लम्बी खमोशी के बाद उसने पूछा.
"दो बज कर पैतीस मिनट"

वह उसकी तरफ देख रहा था, एकटक.. अचानक वह चीख उठी, उसके साथ वह भी चिहुंक उठा. "क्या हुआ?" लड़की ने सामने इशारा किया, एक गाय कहीं से घास चरते हुए उधर ही आ रही थी. वह हडबडा कर उठा, गाय को डरा कर भगाने की कोशिश किया. फिर वापस आकर बैठ गया. मन ही मन खुद पर हँसते हुए. वह गाय खुद ही जब तक चरते हुए वहां से नहीं चली गई तब तक लड़की उसके हाथों को पकड़ कर बैठी रही और वह उसके डरे हुए चेहरे को देख कर मुस्कुराता रहा..

अब कितने बजे? लड़का चिढ कर बोला, "जाने कि इतनी ही जल्दी है तो अभी चली जाओ."
"अरे, टाईम तो बताओ?"
"नहीं बताता! तुम जाओ. अभी." इतना सुनते उसने लड़के का हाथ पकड़ कर घड़ी में समय देख लिया.

लड़की ने एक कहानी को याद किया, जिसमें नायक-नायिका इसी प्रकार मिलते हैं. घंटो साथ बैठने के बाद भी एक-दूसरे से एक फीट की दूरी बनाए हुए थे. फिर उन दोनों ने उस कहानी को याद किया.
"क्या किसी दूसरे की कहानी को जीने के लिए हम अभिसप्त हैं?" कहकर वह मुस्कुराया और खिसक कर जरा पास बैठ गया और वह भी झिझक कर दूसरी दिशा में खिसक गई. यह देख वह वापस अपनी जगह पुनः आ बैठा. किसी अपराधबोध से वह मुस्कान अब तक विलुप्त हो चुकी थी. यह देख वो मुस्कुराई और उसके पास उसके बाहों को पकड़ कर बैठ गई और फिर शरारत से पूछ बैठी, "समय क्या हुआ"? इस दफ़े वह चिढा नहीं, उसके हाथ को इस तरह पकड़ कर बैठा रहा जैसे जिंदगी को मुट्ठी में बंद करना चाह रहा हो!

शाम ढलने को थी, दोनों थके हुए से कदमों से टेम्पो स्टैण्ड की ओर बढ़ रहे थे. भविष्य की कोई चिंता किये बिना.

मरा हुआ प्रेम अक्सर पेड़ पर बैठे प्रेत की तरह होता है, आप चाहे कितना भी दुनिया से कह लें की बात बीत चुकी है, अब आप याद नहीं करते उन बातों को, मगर आप अपनी अंतरात्मा के वेताल से वही शब्द नहीं कह पाते हैं, अगर कहेंगे तो आपके सर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे, और यदि सच कहेंगे तो वह वेताल पुनः उसी पेड़ पर जा बैठेगा! - गीत चतुर्वेदी जी से उत्प्रेरित यह पंक्ति.

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हमारा प्यार बहुत-कुछ हमारी ज़िन्दगी की तरह है. आदमी जानता है कि वह बुरी तरह ख़त्म होगी, काफी जल्दी ख़त्म होगी, वह हमेशा रह सकेगी, इसकी उसे रत्तीभर उम्मीद नहीं है, फिर भी, सब जानते हुए भी- वह जिये चला जाता है. प्यार भी वह इसी तरह करता है, इस आकांक्षा में कि वह स्थायी रहेगा, हालांकि उसके 'स्थायित्व' में उसे ज़रा भी विश्वास नहीं है. वह आँखें मूंदकर प्यार करता है...एक अनिश्चित आशंका को मन में दबाकर- ऐसी आशंका, जिसमें सुख धीरे-धीरे छनता रहता है और वह इसके बारे में सोचता भी नहीं.
- आखिरी पंक्ति "ईवान क्लिमा" की लिखी हुई


Wednesday, August 15, 2012

लोनलिनेस इज द बेस्ट फ्रेंड ऑफ़ ओनली ह्युमनस

हम हों चाहे किसी जलसे में
अकेलापन का साथी
कभी साथ नहीं छोड़ता हमारा

हम हों चाहे प्रेमिका के बाहों में
अकेलापन का साथी
कभी साथ नहीं छोड़ता हमारा

हम पा लिए हों चाहे मनुष्यता का शिरोबिंदु
अकेलापन का साथी
कभी साथ नहीं छोड़ता हमारा

हम बैठे हों किसी प्रयाग में
अकेलापन का साथी
कभी साथ नहीं छोड़ता हमारा

बुद्ध ने भी ज्ञान प्राप्त किया था
अकेलेपन में ही
हिटलर ने की थी आत्महत्या
अकेलेपन में ही
बड़ी वैज्ञानिक खोजे भी होती हैं
अकेलेपन में ही

जाने क्यों लेमिंग करता है
सामूहिक आत्महत्या?

मेरी समझ में तो
लोनलिनेस इज द बेस्ट फ्रेंड ऑफ़ ओनली ह्युमनस

Wednesday, August 01, 2012

अतीत का समय यात्री

हम मिले. पुराने दिनों को याद किया. मैंने उसके बेटे कि तस्वीरें देखी, उसने मेरे वर्तमान कि पूछ-ताछ की. सात-आठ मिनटों में हमने पिछले छः-सात सालों को समेटने की नाकाम कोशिश की.

- तुम मोटी हो गई हो!
- मम्मी जैसी हो गई हूँ ना? मम्मी बन भी तो गई हूँ.
और एक बेतक्कलुफ़ सी हंसी...

- तुम शादी कब कर रहे हो? बूढ़े हो जाओगे तब कोई शादी भी नहीं करेगी तुमसे..
मैं बस मुस्कुरा भर दिया... चार साल पहले कि हमारी बात याद आ गई, जब उसने यही सवाल पूछा था और मेरे यह कहने पर की "थोड़े पैसे तो जमा कर लूं" के जवाब में वह पलट कर बोली थी "बोल तो ऐसे रहे हो जैसे दुल्हन खरीदनी है तुम्हें"

हमें जनकपुरी मेट्रो स्टेशन में बैठने के लिए कोई जगह नहीं मिली थी, सो हम सीढियों पर ही बैठ गए थे...और वहाँ से गुजरने वाले मुसाफिरों की आँखों में चुभ भी रहे थे. कुछ हमारे बगल से बुदबुदाते हुए भी, हमें कोसते हुए, वहाँ से गुजरे....और हम बेपरवाह अपनी ही बातों में मगन.

- कैसा मेट्रो बनाई हो तुमलोग? देखो सीढी हिल रहा है!
लोगों के वहाँ से गुजरने से सीढियों में होने वाले कंपन को महसूस करते हुए मैंने उसे उलाहना दिया, सनद रहे की मेरी मित्र दिल्ली मेट्रो में ही उच्च पद पर आसीन है.
- अब क्या करें, ऐसा ही है..
आँखें नचाते हुए उसने ऐसे जवाब दिया कि मैं हंसने लगा..

- समय कैसे गुजर जाता है, लगता है कल की ही बात है और हम सीतामढ़ी में अपनी कॉलोनी में हंगामा मचाते फिरते थे..
- हाँ, और मैं तुमको एक रूपया दिया था...चुकिया वाली गुल्लक लाने के लिए.. जो तुम्हारे स्कूल वाले रास्ते में बिकता था.
- और मैं ले ली थी?
विस्मयकारी भाव चेहरे पर लाते हुए उसने पूछा
- हाँ...
- मैं भी ना..पता नहीं कैसे ले ली थी?
- लेकिन अगले दिन वापस कर दी थी..शायद आंटी डांटी होगी..
इस दफे दोनों ही साथ-साथ हँसे...

- पता है? मैं भी कार चलाना सीख ली..लेकिन अभी स्टेशन से घर तक पहुँचते-पहुँचते मैं पसीने से भींग जाती हूँ..
- कार में एसी नहीं है क्या?
- है ना...लेकिन सीसा चढा रहेगा तो हाथ निकाल कर "हटो-हटो" कैसे चिल्लायेंगे?
"हटो-हटो" कहते समय उसका हाथ भी ऐसे ही हिल रहा था जैसे सामने वाले कार को हटने के लिए बोल रही हो...
- साफ़-साफ़ बोल दो ना कि मेरे घर के आस-पास मत दिखना नहीं तो तुम्हारे एक्सीडेंट के जिम्मेदार हम नहीं होंगे.. इशारों में क्यों धमका रही हो?
फिर से एक हंसी..दोनों कि ही साथ-साथ..

फिर वो अपने घर के लिए निकल ली.. कुछ देर बार उसका एस.एम.एस. आया, "इतने दिनों बाद मिलकर लगा कि कुछ रिश्ते कभी नहीं बदलते. लगा कि तुम पूछोगे की इंस्टीट्यूट जाना है क्या? ऐसे ही रहना." मुझे सहसा याद हो आया, जब पटना में किन्हीं वजहों से लगभग सात-आठ महीने उसे रोजाना एल.एन.मिश्रा इंस्टीट्यूट उसे छोड़ने जाता था.. भले ही मुझे कितना भी जरूरी काम क्यों ना रहा हो, उसकी प्राथमिकता को बाद में रखकर.. मैंने जवाब में लिखा "कुछ चीजों को नहीं ही बदलना चाहिए"

कुछ लोगों से मिलते वक्त हम अपना चोंगा उतार कर मिलते हैं.. मगर ऐसे लोग जिंदगी में कम ही होते हैं... जिंदगी कि भी अपनी ही रफ़्तार होती है.. सामने देखो तो वक्त कटता नहीं रहता है, पीछे देखो तो वक्त मानो लाईट-स्पीड को भी मात देती दिखती है.. जनकपुरी पश्चिम मेट्रो स्टेशन से हम दोनों की ही मेट्रो अलग दिशाओं में भागती चली जा रही थी...
"27-July-2012"

Tuesday, July 03, 2012

यह तोता आज भी पिंजड़े में बंद छटपटा रहा है


बचपन में एक तोता हुआ करता था. यूँ तो कई तोते हमने एक-एक करके पाले, और एक-एक करके सभी भाग गए. वह तोता भी जिसके बारे में लिख रहा हूँ. मगर यह तोता हमारे यहाँ सबसे अधिक समय तक रहा, तक़रीबन 8-9 साल. पापा के कई मातहत और हम बच्चे भी उसे कुछ बोलना सिखा-सिखा कर थक गए, मगर उसे ना कुछ सीखना था, और ना ही सीखा! 

शुरुवाती दिनों में वह पिंजड़ा तोड़ने का अथक प्रयास करता था. अपनी चोंच से जितनी कोशिश कर सकता था, वह करता था. लहुलुहान होने तक! खाने को छूता तक नहीं था. "कहीं भली है कटुक निबोरी कनक-कटोरी की मैदा से" वाली कविता शायद ऐसे ही दृश्य देख कर लिखी गई हो! फिर धीरे-धीरे उसने प्रयास करना छोड़ दिया.

शायद उसे समझ आ गया हो कि वह उसे तोड़ नहीं सकता है, मगर उससे अधिक संभव यह है की वह धीरे-धीरे उसे ही नियति समझ लिया हो! इतने विश्वास के साथ मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि बाद के दिनों में, तीन-चार साल बाद, जब कभी गलती से पिंजड़ा खुला भी रह जाता था तो वह बजाय दरवाजे से बाहर निकलने के बजाये डर कर और अंदर घुस जाता था. 

पहले भैया से, और बाद में मुझसे उसे बहुत लगाव हो गया था. चाहे कितने भी गुस्से में हो, मगर कभी हमें काटता नहीं था. हम ही उसे खाना देते थे, उसके लिए हम भले इंसान थे. बहुत नासमझ था वो बेचारा. इतनी समझने की शक्ति नहीं थी उसमें की हम उसका भला चाहने वाले होते तो यूँ कैद में नहीं रखते! हम तो उसके लिए ऐसे थे जैसे, कैद में रखो और खूब भला चाहो!

फिर एक दिन वह उड़ गया! तब तक हम दोनों ही रोजी की तलाश में घर छोड़ चुके थे... मगर, मैं अभी तक इस पिंजड़े में बंद छटपटा रहा हूँ....

Tuesday, June 26, 2012

होने अथवा ना होने के बीच का एक सिनेमा


कुछ चीजें अच्छी-बुरी, सच-झूठ के परे होती है. वे या तो होनी चाहिए होती हैं अथवा नहीं होनी चाहिए होती हैं. गैंग्स ऑफ वासेपुर भी इसी कैटेगरी में आता है.. हमारे उन भारतीय दर्शकों को, जो विदेशी सिनेमा देख कर आहें भरते हैं कि ऐसा कुछ यहाँ क्यों नहीं बनता, संतुष्टि जरूर मिलेगी इसे देखकर. और वे आगे उम्मीदें भी पाल सकते हैं की आगे भी ऐसे सिनेमा बनते रहेंगे..

कहानी तेजी से बढती है, ठिठककर रूकती है, फिर बढती है, फिर रूकती है..जैसे कि जिंदगी!! जिंदगी की ही तो महागाथा है यह. 

मैं कोई बहुत बड़ा सिनेमा का ज्ञानी नहीं हूँ, मगर फिर भी इतना समझ में तो जरूर आया कि सिनेमा के हर छात्र को यह जरूर देखना चाहिए. इसके अभिनेता-अभिनेत्रियों से अभिनय सिखने के लिए, कैमरामैन से कैमरे कि कला सिखने के लिए, निर्देशक से निर्देशन की बारीकियां सिखने के लिए..

हाथ के बुने हुए हाफ स्वेटर पहन कर पहलवान दोनों हाथो में मुर्गा टांग कर गली से जाते हुए दिखाना, या फिर मीट की नली वाली हड्डी सूंss कि आवाज के साथ चूसना, या फिर गोल गले के लोटे से स्नान करते हुए दिखाना, या फिर आइसक्रीम के लिए बच्चों कि शैतानी, या फिर सरदार खान का गिरिडीह के बदले गिरडी..गिरडी..गिरडी..गिरडी की आवाज लगा कर सवारी बटोरना. रात का खाना चीनी मिट्टी के प्लेट में परोसना क्योंकि मुसलमान घर आया है.. जाने कितनी ही हत्या सरदार खान कर चुका हो मगर जवान बेटे को लगी छर्रे से लगभग पागल सा हो उठना. फ्रिज के आने के बाद सब बच्चों का उचक-उचक कर उसे देखना और गृहणी का यह देखना की उसमें कोई खाली बर्तन तो नहीं रखा हुआ है! 

इसे देखने से पहले मैं कोई भी रिव्यू नहीं पढ़ रहा था. किसी तरह का पूर्वाग्रह लेकर नहीं देखना चाहता था. और मुझे सबसे अधिक अचंभित "जियs हे बिहार के लाला" गीत ने किया. जिस गीत को मैं फ़िल्म के शुरुवात में देखने कि उम्मीद कर रहा था उसे जिंदगी कि खुशी में नहीं, मृत्यु के जश्न के तौर पर लाया गया!

हो सकता है कि अनुराग जी ने कई लोगों को निराश किया होगा इस सिनेमा में गाली-गोली दिखा कर, मगर हर चीज को इतनी बारीकी से उन्होंने फिल्माया है जिसको कोई भी सिने छात्र देखना-सीखना चाहेगा. थैंक्स अनुराग जी को, हमें ऐसी सिनेमा देने के लिए!!

मैं अपनी पसंद के पिछले तीन देखे हुए सिनेमा कि बात करूँ तो मुझे वाकई आश्चर्य हो रहा है कि हम कैसे समाज में जी रहे हैं? मैं यह आकलन करने में विफल हो रहा हूँ की हमारा समाज बेशर्म है या असंवेदनशील? उन तीन सिनेमा का नाम है: १. पान सिंह तोमर, २. शंघाई एवं ३. गैंग्स ऑफ वासेपुर. मेरे मन में ऐसे प्रश्न इसलिए आये क्योंकि जिन चीजों पर खुद से घिन आनी चाहिए उन चीजों पर सिनेमा हाल में हंसी के फुहारें छूट रही थी!

अंत में अगर तिग्मांशु धुलिया की तारीफ़ नहीं करूँ तो ये नाइंसाफी होगी. जहाँ मनोज वाजपेयी अपने किरदार को मेहनत से निभाते दिखे हैं वहीं तिग्मांशु धुलिया बिना किसी एक्स्ट्रा एफर्ट के अपने किरदार को जिए चले गए हैं!!

चलते-चलते इस सिनेमा का एक डायलॉग पढते जाइए: 
पुलिस एक अपराधी के बच्चे से पूछती है, जो अपने बाप के लिए खाने का टिफिन लेकर आया है - डिब्बे में क्या है?
लड़का - अब डिब्बा खोल के औंगली से छौंका लगाईयेगा का?

नोट - यह संभव है कि बिहारी परिवेश को फिल्माने कि वजह से मुझे यह सिनेमा नॉस्टैल्जिक कर रही हो..

Wednesday, June 06, 2012

जन्म और मृत्यु

मेरे जन्म को लेकर 
अफवाहें अपनी चरम पर हैं
मगर मेरा जन्म 
ठीक उसी दिन हुआ था
जब मिला था 
तुमसे पहली दफे
अब मौत का दिन भी मुक़र्रर हुआ है
ये वही दिन होगा
जब यकीन होगा
अब ना होगी मुलाक़ात तुमसे
फिर कभी!!!

Thursday, May 31, 2012

लव यू मम्मी - दो बजिया वैराग्य

जब छोटा था तब...कहीं भी जाऊं, मम्मी का आँचल पकड़ के चलता था.. गाँव हो या कोई और जगह, अधिकतर गाँव ही हुआ करती थी, भैया-दीदी पूरा गाँव नापते रहते थे, मगर मैं, मम्मी कहीं भी जाए, उनकी साडी का एक छोड़ पकड़ कर चुपचाप खड़ा रहता था.. मम्मी कितना भी डांटे, या मना करे, मगर चाहे कुछ भी हो, मैं अपना कर्म नहीं भूलता था.. उनकी साडी पकडे खड़ा रहता या रोता रहता था.. अगर उनके साथ नहीं हूँ तो पापा की धोती, जिसे वह आराम के क्षणों में लुंगी की तरह पहनते थे, उसे पकड़ कर उनके साथ रहता.. पापा यदि बैठे हुए हों तो उनकी गोद में मैं भी बैठा रहता था..

मम्मी हमेशा पापा को कहती थी कि अगर ये बिगड गया तो सारा कसूर आपका ही होगा, और पापा उसी समय पलट कर कहते थे, और अगर सुधरा तो सारा श्री भी मेरा ही होगा.. मम्मी कभी इस बात का विरोध नहीं करती थी, बस इतना ही बोलती थी, अगर सुधरा तो ना?

बचपन में मम्मी अगर मारती भी थी(मुझे याद नहीं की मम्मी कभी मारी हो मुझे, मगर ऐसा ही सुना है), या डांटती भी थी तो भी बचाने के लिए मम्मी को ही पुकारता था.."मम्मीsssss"!!!! पापा हमेशा मेरे साथ खड़े रहे हैं कदम-कदम पर.. मगर कभी बचाने के लिए उनका नाम नहीं पुकारा हूँ...

उनसे दूर होने के बाद जब कभी किसी बड़े कष्ट में रहा हूँ, जैसे की वायरल बुखार, जैसे की पैर का टूटना, तो भी कराहते हुए "मम्मी" ही पुकारता रहा हूँ.. ये जानते हुए भी की बचपन से ही पापा की "जान" रहा हूँ मैं.. पन्द्रह-सोलह साल तक की उम्र तक उनकी गोद में बैठ कर खेला हूँ, जो कई लोगों को अतिशयोक्ति लग सकती है..

मुझे वह दिन भी याद है जब कई अन्य वजहों से मैं जितनी दफे दिल्ली से पटना जाता था और पड़ोस से चाभी लेकर घर खोलता था, फिर अगले दिन वह चाभी उसी पड़ोस में देकर गोपालगंज के लिए निकल जाता था..M.C.A. पहले सेमेस्टर की परीक्षा के बाद जब घर लौट रहा था तब मन में इस विकार के साथ यात्रा की थी कि अगर इस दफे भी घर में कोई ना हुआ तो पूरे तीन साल बाद ही घर जाऊँगा.. जी हाँ, वह विकार ही था, और इसे आज महसूस करता हूँ.. मम्मी आज तक सिर्फ एक ही इंसान को लेने के लिए रेलवे स्टेशन गई है, और वह मैं ही था, जब पहले सेमेस्टर की परीक्षा के बाद घर लौटा था..

अब ये तो पता नहीं की कितना सुधरा, इसका हिसाब-किताब उन्हें ही करने दिया जाए.......

Friday, April 06, 2012

और वह मरने कि हद तक जिन्दा रहा!!

दो लोग अनिश्चितता की स्थिति में बैठे हुए थे.. एक ही बेंच पर.. दोनों अपने कोने को पकड़ कर, जैसे किसी समानांतर रेखा कि ही तरह कभी ना मिलने वाले.. यह एक लंबी बेंच थी जिस पर कोई भी बैठ सकता था, और अभी वे दोनों बैठे हुए थे.. आम सामान्य दिनों में शायद कोई बुजुर्ग यहाँ बैठते हों.. प्रेमियों के बैठने के लिए यह बेंच ठीक नहीं कही जा सकती थी, क्योंकि सड़क से यह जगह साफ़ दिखाई दे जाती थी.. सामने दूर तक पेड़ पौधे थे जहाँ कुछ प्रेमी जोड़े, सरकारी दफ्तरों में काम करने के बाद आराम फरमाने या शायद कामचोरी करने आये कुछ लोग, कुछ आवारा कुत्तों के अलावा और कुछ भी ना था.. बादल छाये हुए थे और गर्मी इतनी भी नहीं की पसीने बेतरतीब बहे!!

"देखो हमारे शहर के लोग किस तरह प्यार करते हैं!" लड़की ने आँखों से इशारा करते हुए प्रेम में डूबे जोड़े कि तरफ दिखाया.. "क्या तुम ऐसे कर सकते हो?" उसके कहने के तरीके में भी एक व्यंग्य छुपा हुआ था.. या शायद उसे चिढा रही थी.. या शायद उसका हौसला परख रही थी!!

"मैं इन..." छिछोरे शब्द कहने से पहले वह थोडा अटका, प्रेम में डूबे लोगों के लिए छिछोरा शब्द कहना उसे अच्छा नहीं लगे या शायद मुझे खुद ही अच्छा नहीं लगा वह शब्द कहना, भले ही उनका वह प्रेम किसी पल्प साहित्य के किरदारों सा ही हो, भले ही वही जोड़े मात्र चंद दिनों बाद किन्ही और बाहों में उसी जगह देखने को मिलें.. ठीक वैसे ही जैसे प्रेम में बार-बार पड़ने वाले लोगों को कुछ बुरा कहने की हिम्मत वह अभी तक नहीं जुटा सका है, प्रेम हर हाल में पवित्र ही होता है, चाहे वह क्षण भर का ही हो, जब तक उसमें सिर्फ और सिर्फ वासना का ही अंश ना हो, उस हद तक "...लोगों से कहीं पवित्र प्रेम कर सकता हूँ.. या यूँ कहो कि कर रहा हूँ.." आगे ना लड़की ने कोई सवाल किया और ना ही लड़के ने कुछ कहा, एक मूक संवाद मात्र या शायद वह भी नहीं.. गहरा सन्नाटा...

बगल जमीन पर बैठे उस कुत्ते ने उठ कर अपनी जगह बदली और उसी बेंच के नीचे आकर बैठ गया.. कुत्ते ने उसके पैरों को सूंघ कर देखा, वह चौंक गई और दोनों ने ही ठहाके लगा दिए.. दो-तीन गिलहरियां भी तब तक आस-पास फुदकने लगी थी, कुछ खाने के लिए तलाश कर रही थी.. बगल में कम ही दिखने वाली एक-दो गौरैयों के साथ कुछ कौवे भी फुदक रहे थे.. गिलहरियों और गौरैयों को देख दोनों के बीच के सन्नाटे में मुस्कराहट घुल गई! कुछ और समय वहाँ गुजारने के बाद समय का ख्याल कर चल दिए..

"हम इतनी देर से साथ रहे, तुम मुझसे मिलने क्यों आते हो यह भी हम दोनों जानते हैं.. मगर फिर भी पूरे समय तक एक दूरी बना कर बैठे रहे.. एक दफे हाथ तो पकड़ ही सकते थे.." तब तक वे दोनों ऑटोरिक्शे में बैठ चुके थे, जो कुछ ही समय बाद दोनों को अलग-अलग रास्तों पर भेजने के लिए क्षण भर के लिए रुकने वाली थी.. बेचैनी का ग्राफ दोनों ही तरफ ऊपर कि ओर चढ रहा था, जब लड़की ने यह कहा.. उसने उसकी तरफ देखा और धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया.. वह थोड़ी झिझकी, हाथ छुड़ाने कि कोशिश की फिर शायद यह सोचकर कि यह वक़्त भी निकल ना जाए, कोशिश बंद कर दी उसने!!

काश के जिंदगी भी किसी सिल्वर स्क्रीन की ही तरह होती, एक फंतासी ताउम्र बनी रहती, वे दोनों जब उसी ऑटोरिक्शा में जब आखिरी बार कुछ लम्हों के लिए हाथ पकड़े बैठे रहे थे, बस उसी छण कैमरे का क्लोज अप उन हाथो पर जाकर खत्म हो जाता.. आगे क्या हुआ, किसी को पता नहीं.. सभी किसी कयास में ही डूबे रहते.. किसी हैप्पी इन्डिंग की तरह सभी खुश रहते हैं..

मगर यह यथार्थ है, असली जिंदगी.. इतना सब कुछ होते हुए भी वह मरने की हद तक जिन्दा था..


Tuesday, March 27, 2012

इकबालिया बयान ! - भाग एक

बयान एक -
मेरा नाम अदिति है. अब वो क्या है ना कि, जब भी मेरे प्रछांत मामू मेरे यहाँ आते हैं दिल्ली में तो ज्यादा टाईम मेरे साथ नहीं रहते हैं. बहुत थोड़े समय के लिए ही आते हैं. और उनको कितना भी समझाते हैं कि बालकनी के नीचे वाले पार्क में कोई डौगी नहीं है, लेकिन हमेशा वो डर कर मेरे साथ नीचे पार्क में नहीं जाते हैं. :(

अभी पता है क्या हुआ था? जनवरी में जब वो आये थे ना, तब वो रात में आये जब मैं सोयी हुई थी. मुझे ना..पापा-मम्मी ने बताया भी नहीं था की मामू आ रहे हैं, इसलिए मैं सो गई थी. सुबह-सुबह जब मैं जगी ना...तब मैंने जब उनका लाल वाला बैग देखा. मुझे तब सच्ची में लगा था कि मैं सपना देख रही हूँ. मैं दौड़ कर वापस अपने रूम में भाग गई और मम्मा को बोली कि "मम्मा, मैं सपना देख रही हूँ, आज मेरा एग्जाम है सो मुझे जल्दी से जगा देना." फिर ना...मम्मी बोली की नहीं बेटा, मामू सच में आये हैं. मैं दूसरे कमरे में देखी तो मामू सच में थे. सोये हुए! मुझे ना इतनी खुशी हुई, इतनी खुशी हुई...कि मत पूछो! लेकिन मैं स्कूल से आती उससे पहले ही मामू चले गए. :(

पता है, जब प्रछांत मामू अक्टूबर में आये थे तब दो दिन रहे. एक दिन ना, मैं उनको तंग करने के लिए उनसे एक सवाल पूछी, जो मैं सबसे पूछती हूँ. मैंने उनसे बोला, "मामू, मैं आपसे एक हार्ड वाला Question पूछूं?"
मामू ने बोला, "हाँ पूछो!"
तब मैंने उनसे पूछा, "जैसे कैट की बेबी को किटेन कहते हैं, वैसे ही क्रोकोडाईल की बेबी को क्या कहते हैं?"
अब मुझे तो पता था कि मामू को नहीं मालूम है, सो शरारत से मुस्कुराने लगी. मामू थोड़ी देर के लिए सोचने लगे. फिर वो मुझसे पूछते हैं की, "तुम्हारा नाम अदिति किसने रखा?"
मैंने कहा, "पापा-मम्मा ने!"
मामू बोले, "तो क्रोकोडाईल की बेबी को क्या कहते हैं ये क्रोकोडाईल से जाकर पूछो ना कि उसने अपनी बेबी का क्या नाम रखा है? और उसे क्या कहते हैं?"

मैं तो परेशान ही हो गई. मैं सोचने लगी की मैं क्रोकोडाईल से पूछने जाउंगी तो वो तो मुझे खा ही जाएगा!! :(

पता है, मैं इस बार क्लास में सबसे अच्छा नंबर लायी. मुझे नहीं मालूम की मैं टॉप कि या नहीं. लेकिन सबसे ज्यादा A+ मेरे ही आये हैं. प्रछांत मामू मुझे प्रॉमिस किये हैं की जब भी वो दिल्ली आयेंगे तो मुझे एक अच्छा वाला खिलौना ला देंगे.

अब ना बहुत रात हो गई है, और मुझे नींद आ रही है. मैं सोने जाती हूँ. Bye!!!



Sunday, March 25, 2012

मुट्ठी भर हवा

मुझे भरोसा था, तब भी और अब भी, कि मैं हवा को हाथों से पकड़ सकता हूँ. कई सालों से मैंने कोई कोशिश नहीं की, मगर फिर भी बचपन के उस भरोसे को नकारना नामुमकिन है. बचपन का हर भरोसा आज भी उतना ही पुख्ता लगता है, जिसे नकारने की बात सोचना भी गुनाह से कम नहीं, और उस भरोसे को साबित करने की चेष्टा भी किसी मूर्खता से कम नहीं. किसी यूनिवर्सल ट्रुथ की तरह, जो बिना सिद्ध किये ही जैसा है वैसा ही रहेगा, टाइप.

बचपन के भरोसे का भी कोई भरोसा नहीं, हर किसी बात पर यकीन हो जाता है. घर के पास वाले उस नदी में एक लंबे दांतों वाला राक्षस रहता है, किसी ने कह दिया और यकीन हो चला, ना कोई सवाल ना कुछ और, सीधा विश्वास. दादी-नानी कि कहानियों में रहने वाले हर एक पात्र पर भरोसा, चिड़िया, बाघ, शेर-चीतों से लेकर राजा-रानी और परियों पर भी. रात के अंधेरों में आने वाले भूत पर भी जो नहीं सोने वालों को खा जाता था. मयूर पंख को चूना या चौक खिलाने से वो बड़ा होता है.

मैं मुट्ठी बंद करता था, और महसूस करता था, हवा की छटपटाहट. मानो हवा का दम घुट रहा हो, वह बस किसी भी हाल में निकल भागने को बेक़रार हो, किसी उम्र कैद की सजा पाए कैदी के मानिंद. मगर बच्चे कि मुट्ठी में बंद सपनों की माफिक उस बच्चे से पीछा छुडा पाना बेहद कठिन होता. बच्चे के सपनों का क्या! वो तो हर पल बदलता है. कुछ ऐसी ही सोच में हवा भी रहती हो शायद. मगर बच्चे का क्या, गर गलती से मुट्ठी खुल भी जाती तुरत वह दूसरी मुट्ठी में हवा धर लेता.

मुझे पता है कि मैं आज भी अपनी मुट्ठी बंद करूँगा तो हवा वैसे ही छटपटाएगी, बेआवाज अनुनय-विनय भी करेगी जैसे बरसों पहले करती थी. मगर फिर भी मैं मुट्ठी में हवा बंद नहीं करता. डरता हूँ, कहीं वैसा अब नहीं हुआ तो? कुछ भरोसों को शायद नहीं ही टूटना चाहिए, भले ही वह भरोसा महज एक झूठ ही हो! भरोसा भी आखिर भरोसा होता है, उसमे शक की कोई गुंजाईश नहीं होती है!!!!!

Saturday, March 03, 2012

भोरे चार बजे की चाय अब भी उधार है तुमपे दोस्त!!

दिल्ली में पहली मेट्रो यात्रा सन 2004 में किया था, सिर्फ शौकिया तौर पर.. कहीं जाना नहीं था, बस यूँ ही की दिल्ली छोड़ने से पहले मेट्रो घूम लूं.. नयी नयी मेट्रो बनी थी तब.. उसके बाद 2009 मार्च में मुन्ना भैया के घर जाते हुए, वैसे आज मुझसे उस जगह का नाम पूछेंगे तो मुझे याद नहीं, मगर दिल्ली से बाहर ही था..फिर 2011 फरवरी में फिर से काफी मेट्रो यात्रा करने का मौका मिला.. खास करके पंकज के घर जाते हुए, फिर दीदी के घर से आराधना के घर जाते हुए..

घर से निकलते समय पहले ही पंकज ने बता दिया था की दिल्ली उतर कर मेट्रो लेकर हुडा सिटी सेंटर आ जाना.. मेट्रो के रूट का अता पता ना होते भी पता लगाते हुए मेट्रो में चढ़ ही गए और वहाँ से मालिक को फोन किये.. मालिक सोये हुए थे.. मुझे बोले कि मैं आ रहा हूँ, जब मैं वहाँ स्टेशन पर उतरा तो पता चला की मालिक मुझे इंस्ट्रक्शन देकर फिर सो गए थे..खैर सेक्टर 41(शायद) मार्केट बुलाया गया और मैं वहाँ पहुँच गया.. पहले कभी मिला नहीं था इस लड़के से, फिर भी पहचानने में कोई गलती नहीं हुई.. उलटे इसी ने मुझे पहले देखा, नहीं पहचाना होता तो फिर मैं लफड़े में पड़ जाता ;).. फिर वहाँ से घर.. घर का बनावट बिलकुल मस्त.. बोले तो एकदम रापचिक टाइप.. ग्राउंड फ्लोर पर एक हॉल और अंदरग्राउंड दो कमरे बने हुए, वो भी इतने अच्छे से दिख रहा था की कोई चोरी-चपाटी करके छुपने के लिए प्रयोग ना कर सके.. हाँ मगर चोरों को भुलावे में रखने के लिए बेहद उम्दा.. अगर अंदर घर में बत्ती ना जल रही हो तो पक्के से चोर ही इनपर केस कर दे और उसका मसौदा कुछ ऐसा तैयार होगा "इनके घर में चोरी करने जैसे ही घुसा तो अंदर घर में घुप्प अँधेरा था.. और बत्ती जलाने के लिए स्विच ढूँढने के लिए दीवाल पर हाथ से टटोलते हुए जैसे ही दो कदम आगे बढ़ा वैसे ही मानो मेरे पैरों टेल जमीन ही खिसक गई.. और मैं नीचे जाने वाली सीढियों से लुढकते हुए सीधा नीचे जा गिरा.. अब आप ही कहिये जज साहब, ये कोई तरीका है? ऐसा घर इन्होंने किराए पर क्यों लिया? मेरे टूटे हाथ-पैर के साथ मानसिक तकलीफ का हर्जाना भी इन्हें देना होगा."

खैर.. घर तो मैं पहुँच ही गया था.. पापा ने जो तिलकुट दिया था वह मैंने इसके हाथों में थमाया.. साला, बहुत मन कर रहा था की इसको देने से पहले दो-चार तिलकुट खा ही लें, क्या पता बाद में देखने को भी नसीब ना हो!! मगर जब दे ही दिया तो फिर क्या!! ;)

अब आते हैं इनके साथ रहने वाले मित्रों पर.. एक रवि और एक देवांशु.. रवि तो बड़े ही सीधे टाईप के लगे.. नहीं-नहीं, गाली नहीं दे रहा हूँ.. सच्ची में सीधे लगे.. :) देवांशु के बारे में अभी नहीं, वे बाद में पिक्चर में आयेंगे.. जब मैं घर में घुसा तब इनके कुछ और मित्र नीचे वाले कमरों में सोये हुए थे.. मुझसे जैसे ही परिचय कराया गया उसके पाँच मिनट के भीतर सब निकल भागे, बाद में पता चला की मुझसे डर कर नहीं भागे, दरअसल उनमें से किसी को दफ्तर और किसी को किसी इंटरव्यू में जाना था.. उनके जाने के बाद गहरी नींद में सोये रवि को पंकज ने मेरे मना करने के बावजूद जगाया, पता नहीं मन ही मन में कितनी गालियाँ मिली होगी मुझे, और पंकज खुद सो गया.. इसके पीछे एक छोटी कहानी है(लंबी नहीं), जो मैं नहीं बताने वाला हूँ.. ;)

फ्रेश होकर और मुंह हाथ धोकर नाश्ते के जुगाड़ बारे में सोचा गया और तब पता चला की रात में ही लगभग बारह अंडे ये सब मिलकर कब खा गए यह इन्हें भी नहीं पता.. खैर हम निकले नाश्ता करने.. घर के पास ही वाले मार्केट में एक आलू-पराठे वाले के यहाँ के लिए.. बीच में देवांशु के बारे में बताया गया.. कि कैसे नेट पर ही उनसे पंकज की मुलाक़ात हुई थी, और संयोग से दोनों एक ही शहर के, लखीमपुर के.. बाद में अच्छे दोस्त भी हो लिए, और अभी कहीं इंटरव्यू के लिए निकले हुए हैं.. रास्ते में ही उनसे मुलाक़ात हुई, हमने हाथ भी मिलाया.. उन्होंने "चाय" के लिए भी पूछा और हमने मना कर दिया.. यहाँ गौर किया जाए, "चाय" बहुत महत्वपूर्ण शब्द है.. इसकी महत्ता से ही यह पोस्ट भी है.. वापस लौटने पर देखा की रवि व्यायाम में लगे हुए हैं और देवांशु बड़े गौर से रजाई लपेट कर बिस्तर पर पालथी मार कर बैठे हुए हैं और लगातार उन्हें देखे जा रहे हैं.. हम दोनों(पंकज और मैं) ही सोफे पर बैठ कर कभी इनको देख रहे हैं तो कभी उनको.. थोड़ी देर बाद पंकज से रहा नहीं गया, उसने पूछ ही लिया कि क्या देख रहे हो? देवांशु बाबू का जवाब था "सोचते हैं कि हम भी एक्सरसाइज शुरू कर दें".. कहीं से एक जुमला उछला "एक्सरसाइज करने के लिए आदमी रख लो भाई"... और लगे हाथों भाईसाब(देवांशु) ने फिर से पूछ लिया "चाय पियोगे?" मैंने ना कहा, बाकि दोनों ने हाँ.. देवांशु ने मुझे थोडा दवाब देते हुए कहा कि पी लो यार, और तब उन्हें पता चला कि मैं चाय नहीं पीता हूँ.. फिर देवांशु बाबू उन दोनों की ओर मुखातिब होते हुए बोले "ठीक है तीन कप ही बनाना".. ;) अब समझ में आया की वे तभी से, सभी से चाय के लिए क्यों पूछ रहे थे?

खैर चाय भी बनी, उन दोनों ने पीया भी.. पंकज की बारी के समय जब चाय नीचे गिर गई तब उसे पता चला की कप का हैंडल टूटा हुआ है.. और उसी समय पता चला की देवांशु को पहले से यह बात पता थी, और उसने कप की खूबसूरती खत्म ना हो इसलिए उसे इस तरह रख छोड़ा था कि उसका टूटा हैंडल पता भी ना चले.. स्टेटस का सवाल है आखिर, नहीं तो लोग कहेंगे की IT वालों के घर में चाय के कप तक टूटे-फूटे होते हैं. खैर अपन को क्या? अपन चाय पीते थोड़े ही ना हैं! है की नहीं? :)

शाम ढलते ना ढलते फिर से देवांशु "चाय" के लिए सबसे पूछने लगा.. इसी बीच पंकज का एक और मित्र आ गया, पवन.. देखते ही देखते कहीं चला जाए कह कर प्लान भी बन गया एम्बिएंस मॉल घूमने का.. वहाँ कुछ तफरी करके और चंद किताबें खरीद कर रात नौ बजे वापस लौटते हुए घर के पास ही खाना कर पैदल ही घर का रास्ता नापने का प्लान भी बना.. खाना भी खा लिए और वापस भी चले, मगर रात गए सभी कन्फ्यूज, की सही रास्ता कौन सा है? कोई बुजुर्ग भी आस-पास नहीं जो हम भटके हुए नौजवानों को सही रास्ता बताये!!

खैर, एक नौजवान ही मिल गया जिससे हमने रास्ते के बारे में पूछा.. उसने एक तरफ दिखाते हुए बोला की यह रास्ता आपके घर को जाता है.. फिर हमारा सवाल था, कितनी देर में हम पहुंचेंगे? अब वो भाई साहब को लगा कि इन्हें विस्तार से समझाया जाए, सो पहले धीरे-धीरे चल कर बोले "ऐसे जाओगे तो आधा घंटा लगेगा" फिर जल्दी-जल्दी चल कर दिखा कर बोले "ऐसे जाओगे तो दस मिनट में पहुँच जाओगे".. पहले तो हम हक्के-बक्के की भाईसाब कर क्या रहे हैं? फिर ठहाके लगाते हुए उसके बताये रास्ते पर चल लिए..

भाईसाब का आधा घंटा होने को था, मगर घर का तो छोडिये जनाब, घर के पास की गली का कुत्ता भी नजर नहीं आ रहा था.. हमें सब समझ में आ गया, इस नौजवान पीढ़ी से रास्ता दिखाने की उम्मीद करना ही गलत है.. सो अबकी ऑटो लेकर वापस लौटे तो वह वापस उसी रास्ते पर ले आया जहाँ से अभी-अभी गुजरे थे.. हम भी मुंह छिपा कर वहाँ से निकल लिए की कहीं कोई देख कर बेवकूफ ना समझ ले..

अब तक रात हो चुकी थी, और सुबह-सुबह दीदी के यहाँ भिवाडी जाने के लिए भी निकलना था, सो जल्दी सोना था, और बाक़ी सभी को सलीमा देखना था.. तो वे सभी गए लैपटॉप पर सलीमा देखने, और हम चले निन्नी करने.. उन लोगों को सिनेमा देखते-देखते चार बज गया, जिस वक्त मैं खर्राटे मार कर सो रहा था, ठीक उसी वक्त फिर से देवांशु को फिर से चाय का सरूर चढा.. उसने फिर सभी से पूछा की "चाय पियोगे?" सभी ने मना कर दिया. अब उसका कहना था की PD से भी पूछ लेता हूँ, शायद हाँ कह दे और बना भी लाये.. सबने उसे मना कर दिया कि अभी उसे मत उठाओ.. और मैंने भोरे चार बजे की चाय मिस कर दी..

तो दोस्त, तुम्हारी वो सुबह चार बजे की चाय अब भी उधार है!! ;-)