कुछ चीजें अच्छी-बुरी, सच-झूठ के परे होती है. वे या तो होनी चाहिए होती हैं अथवा नहीं होनी चाहिए होती हैं. गैंग्स ऑफ वासेपुर भी इसी कैटेगरी में आता है.. हमारे उन भारतीय दर्शकों को, जो विदेशी सिनेमा देख कर आहें भरते हैं कि ऐसा कुछ यहाँ क्यों नहीं बनता, संतुष्टि जरूर मिलेगी इसे देखकर. और वे आगे उम्मीदें भी पाल सकते हैं की आगे भी ऐसे सिनेमा बनते रहेंगे..
कहानी तेजी से बढती है, ठिठककर रूकती है, फिर बढती है, फिर रूकती है..जैसे कि जिंदगी!! जिंदगी की ही तो महागाथा है यह.
मैं कोई बहुत बड़ा सिनेमा का ज्ञानी नहीं हूँ, मगर फिर भी इतना समझ में तो जरूर आया कि सिनेमा के हर छात्र को यह जरूर देखना चाहिए. इसके अभिनेता-अभिनेत्रियों से अभिनय सिखने के लिए, कैमरामैन से कैमरे कि कला सिखने के लिए, निर्देशक से निर्देशन की बारीकियां सिखने के लिए..
हाथ के बुने हुए हाफ स्वेटर पहन कर पहलवान दोनों हाथो में मुर्गा टांग कर गली से जाते हुए दिखाना, या फिर मीट की नली वाली हड्डी सूंss कि आवाज के साथ चूसना, या फिर गोल गले के लोटे से स्नान करते हुए दिखाना, या फिर आइसक्रीम के लिए बच्चों कि शैतानी, या फिर सरदार खान का गिरिडीह के बदले गिरडी..गिरडी..गिरडी..गिरडी की आवाज लगा कर सवारी बटोरना. रात का खाना चीनी मिट्टी के प्लेट में परोसना क्योंकि मुसलमान घर आया है.. जाने कितनी ही हत्या सरदार खान कर चुका हो मगर जवान बेटे को लगी छर्रे से लगभग पागल सा हो उठना. फ्रिज के आने के बाद सब बच्चों का उचक-उचक कर उसे देखना और गृहणी का यह देखना की उसमें कोई खाली बर्तन तो नहीं रखा हुआ है!
इसे देखने से पहले मैं कोई भी रिव्यू नहीं पढ़ रहा था. किसी तरह का पूर्वाग्रह लेकर नहीं देखना चाहता था. और मुझे सबसे अधिक अचंभित "जियs हे बिहार के लाला" गीत ने किया. जिस गीत को मैं फ़िल्म के शुरुवात में देखने कि उम्मीद कर रहा था उसे जिंदगी कि खुशी में नहीं, मृत्यु के जश्न के तौर पर लाया गया!
हो सकता है कि अनुराग जी ने कई लोगों को निराश किया होगा इस सिनेमा में गाली-गोली दिखा कर, मगर हर चीज को इतनी बारीकी से उन्होंने फिल्माया है जिसको कोई भी सिने छात्र देखना-सीखना चाहेगा. थैंक्स अनुराग जी को, हमें ऐसी सिनेमा देने के लिए!!
मैं अपनी पसंद के पिछले तीन देखे हुए सिनेमा कि बात करूँ तो मुझे वाकई आश्चर्य हो रहा है कि हम कैसे समाज में जी रहे हैं? मैं यह आकलन करने में विफल हो रहा हूँ की हमारा समाज बेशर्म है या असंवेदनशील? उन तीन सिनेमा का नाम है: १. पान सिंह तोमर, २. शंघाई एवं ३. गैंग्स ऑफ वासेपुर. मेरे मन में ऐसे प्रश्न इसलिए आये क्योंकि जिन चीजों पर खुद से घिन आनी चाहिए उन चीजों पर सिनेमा हाल में हंसी के फुहारें छूट रही थी!
अंत में अगर तिग्मांशु धुलिया की तारीफ़ नहीं करूँ तो ये नाइंसाफी होगी. जहाँ मनोज वाजपेयी अपने किरदार को मेहनत से निभाते दिखे हैं वहीं तिग्मांशु धुलिया बिना किसी एक्स्ट्रा एफर्ट के अपने किरदार को जिए चले गए हैं!!
चलते-चलते इस सिनेमा का एक डायलॉग पढते जाइए:
पुलिस एक अपराधी के बच्चे से पूछती है, जो अपने बाप के लिए खाने का टिफिन लेकर आया है - डिब्बे में क्या है?
लड़का - अब डिब्बा खोल के औंगली से छौंका लगाईयेगा का?
नोट - यह संभव है कि बिहारी परिवेश को फिल्माने कि वजह से मुझे यह सिनेमा नॉस्टैल्जिक कर रही हो..
Bahut sahi aur umda vivran hai
ReplyDeleteजो छोटी छोटी चीज़ें मेने Miss कर दी थी वो सब अब आँखों के सामने आ रही है :)
ReplyDeleteआपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है आपातकाल और हम... ब्लॉग बुलेटिन के लिए, पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
ReplyDeleteहम भी जल्दी ही देखते हैं, अभी शंघाई देखी थी, एक बेहतरीन फ़िल्म थी और "लाईफ़ की तो लग गई" भी बहुत अच्छी है, देखियेगा पसंद आयेगी ।
ReplyDeleteवतन पहुँच के पहला काम , "गैंग्स ऑफ़ वासेपुर" :)
ReplyDeletebahut dino se dekhne kee soch raha tha ab jarur dekhoonga..aapne jigyasa paida kar dee..sadar badhayee aaur amantran ke sath
ReplyDeleteरुको..हम भी देख कर आते हैं आज ;)
ReplyDeleteअबे हम भी नय देखे हैं अब तकले , लेकिन लगता है कि देखना ही पडेगा ..आखिर बिहार के लाला जियह्ह हज़ार सालाह सिलेमा न है । फ़िर जौन हिसाब से तुम चित्रण किए हो तो देखने की उत्सुकता बन गई हैं । बढियां लिखे हो एकदम जबरार
ReplyDeleteवासेपुर के पास में, है अपना आवास |
ReplyDeleteतीस साल लगभग हुवे, बात यहाँ की ख़ास |
बात यहाँ की ख़ास, मिले धन बाद रुपैया |
मौत मिले बेदाम, बड़े उस्ताद कमैया |
गया पुराना दौर, आज कुछ अलग दिखाता |
मिले श्रमिक को ठौर, मेहनती खूब कमाता ||
जाते हैं आते देख के ।
ReplyDeleteचर्चा त कर ही दिये http://chitthacharcha.blogspot.in/2012/06/blog-post_27.html
जबर लिखे हो भैया ... जय हो !
ReplyDeleteआपने इतना अच्छा लिखा है तो देखना पड़ेगा।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढी ,मन को भाई ,हमने चर्चाई , आकर देख न सकें आप , हाय इत्ते तो नहीं है हरज़ाई , इसी टीप को क्लिकिये और पहुंचिए आज के बुलेटिन पन्ने पर
ReplyDeleteअब तो निश्चय ही देखना पड़ेगा।
ReplyDeleteमेरे कालेज के परम मित्र विकास का यह कमेन्ट ईमेल से मिला. वे अभी भारत में नहीं हैं, और इस वजह से अभी तक इसे नहीं देख पाए हैं -
ReplyDeleteBadhyian likha hai dost:):)
Ye film to dekhna hi hai....man hai hall mein hi dekhne ka...dekhoo kitna sambhav ho pata hai....
jahan tak gaali ki baat aap kar rahe hain agar aap cine bahastalab-2012 men hote aur anuraag ji aur sudheer Mishra ji ki baaten sunte to shayad aap ye parwah hi nahi karte.
ReplyDeleteफिल्म तो है ही एकदम ढिंचाक...:)और आपके लेखनी के क्या कहने....|
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