Tuesday, January 18, 2011

सिगरेट का नशा

जिंदगी का पहला कश,
नतीजा बेदम करने वाली खांसी!
दूसरा कश,
हल्का सा चक्कर
हल्की सी खांसी!
तीसरा कश,
दिमाग में एक जोरदार झटका!
अजब सा नशा!!
क्लोरोफार्म सुंघाने पर बेहोश होने से ठीक पहले सी स्थिति सा!!
दूसरी सिगरेट,
उसी नशे की चाह,
पर नशा हल्का सा ही!
तीसरी सिगरेट,
फिर उसी नशे की चाह,
नशा सिगरेट दर सिगरेट कम होते जाना!
उसी नशे की चाह में सिगरेट दर सिगरेट पीते जाना,
नतीजा सिफ़र...
अब वह नशा कहाँ,
और जहाँ वो बेहोशी सा आलम,
बस सिगरेट की तलब..

ये तुम सी ही नहीं है क्या?

कुछ और किस्से केशू के

हो सकता है कि आज के जमाने में किसी को यह अतिश्योक्ति लगे, मगर हमारे घर में अभी तक यह लगभग किसी नियम के तहत चलता आ रहा है कि रात में सोने से पहले माता-पिता का चरणस्पर्श करके ही हम सोने जाते हैं.. इसका सबसे बड़ा फायदा बचपन से ही मुझे यह दिखा है कि अगर किसी तरह कि अगर किसी तरह कि नाराजगी रही हो माता-पिता की तरफ से अथवा हम बच्चों कि तरफ से तो वह कभी भी अगले दिन तक नहीं खींचता था.. रात में जब आशीर्वाद लेने के लिए हम जाते थे तब वहीं उसका निपटारा हो जाया करता था.. अभी भी हम हर रात को आशीर्वाद लेने जाते हैं, मगर बच्चा 'फर्स्ट' होने के लिए सबसे पहले भागता था, सबसे पहले 'पाम'(प्रणाम) उसे ही जो करना होता था दादा-दादी को..

पापा-मम्मी के कमरे में आज भी मच्छरदानी का प्रयोग होता है.. बाकी हम लोग उसका प्रयोग करना बंद कर चुके हैं.. पापा का कहना है कि 'जो मच्छरदानी नहीं लगाता है वो हमको गंवार लगता है' और हमारा कहना है कि 'जो मच्छरदानी लगाता है वो हमें' :).. खैर जो भी हो, मगर चूंकि हमलोग उसका प्रयोग नहीं करते हैं सो बच्चे को भी उसके भीतर अजीब सा बंधन लगता है, और यह एक बहुत बड़ा कारण है कि वह रात में अपने दादा-दादी के पास कभी नहीं सोया है.. अभी एक दिन मैं मच्छरदानी में घुस कर, बच्चे को चिढा-चिढा कर पापा-मम्मी पर 'लार छिड़िया' रहा था, और बच्चा इतना अधिक स्वत्वबोधक(Possessive) कि मच्छरदानी में सब बंधा-बंधा होने के बावजूद अंदर घुस कर मुझसे कुस्ता-कुस्ती करने लगा और अंततः जब तक मैं बाहर नहीं निकल गया तब तक वह वहाँ से हटा नहीं..

बच्चे को हर दिन सुबह होने पर 'दारू' चाहिए होता था.. नहीं, यह पी कर तल्ली होने वाला दारू नहीं है, यह तो घर साफ़ करने वाला 'झाड़ू' है.. सुबह उठने पर जैसे ही उसका 'भक्क' टूटता था वैसे ही वह 'दारू-दारू' की रट लगा देता था, और जब तक 'दारू' उसके हाथ ना लगे तब तक उस बालकनी का दरवाजा पिटता रहता जिस बालकनी में 'दारू' रखा होता है.. दिन में और किसी भी समय वह 'दारू' की तलाश नहीं करता था, सिर्फ सुबह ही!! बच्चे को पता था कि सुबह के समय घर कि सफाई होती है.. हमारे यहाँ काम करने वाली को वह 'उवा' (बुवा) और उसकी बहन को 'उप्पा'(रूपा) बुलाता था.. नए जगह पर एक नयी काम वाली को देख कर बहुत देर तक परेशान रहा और फिर अपनी मम्मा से 'मम्मा उवा-उप्पा' का पता पूछता रहा..

कपड़े पहनने में उसके नखरे बड़े.. लेकिन जैसे ही किसी से सुन लिया 'तंदा-तंदा'(ठंढा), वैसे ही अपनी लाल वाली बन्दर टोपी लेकर पहुँच जाता.. अगर किसी ने 'तंदा-तंदा' नहीं बोला तो फिर कोई भी टोपी पहनाओ, तुरंत उतार फेंकता था.. उसे सबसे अधिक भय अपने छोटे पापा से ही था और अभी भी है, कि वो उसका पैंट (जो कि लगभग मेरे मोजा के बराबर आता है), उसका शर्ट, उसका 'छोक्छ'(शोक्स), उसका जैकेट, सब पहन लेंगे.. कम से कम इसी डर से चुपचाप बिना शोरगुल किये और बिना किसी को मेहनत कराये पहन लेता था.. पता नहीं भाभी अब भी उसे मेरा ही डर दिखा कर यह सब पहनाती होंगी या अब कुछ नयी बात हो चुकी होगी!!!!

कल रात भैया-भाभी और बच्चे के साथ मैंने Video Chatting की और सुबह पापा-मम्मी को चिढाया इस बाबत.. :) कम से कम इसी बहाने उनमें यह तकनीक सीखने की ललक तो पैदा हुई..

केशू अपने नए वाले घर में अपने बलखाती जुल्फों के साथ :)


काफी दिन हो गए पटना आये हुए, अब जाने का दिन भी नजदीक आ रहा है.. हर दिन पापा को चिढाता हूँ "अब बस चौदह दिन बचे हैं", "अब बस बारह दिन बचे हैं".. पापा कल तक बोलते थे कि "काहे याद दिलाता है, तुमको जब जाना है जाओ ना?" मगर जब आज वही बात मैंने उन्हें याद दिलाई तो बोले कि "अच्छा हुआ जो पहले से याद दिला रहा था, चोट कम लगेगी तुम्हारे जाने की.." :(

Saturday, January 15, 2011

कुछ किताबों के बहाने - नीरज रोहिल्ला द्वारा


इस लेख को पोस्ट करने के कारणों को विस्तार से जानने के इच्छुक लोगों के लिए पहले यह, फिर लेख - नीरज रोहिल्ला ने यह "कमेंट" मुझे और विनीत को इकट्ठे लिख कर मेल किया था.. फेसबुक से बात चली थी, विनीत ने कुछ बात कही और बाद में मैंने भी कुछ जोड़ दिया.. अब ऐसे में नीरज रोहिल्ला ने जो मेल किया था उसे इस श्रृंखला की तीसरी कड़ी ही माने.. यह ईमेल मुख्यतः दो भागों में बंटा हुआ है, पहला भाग विनीत को संबोधित करते हुए और दूसरा मुझे संबोधित करते हुए..



पहला भाग विनीत के लिए :
हमारे घर में साहित्यिक किताबें नाम की भी नहीं थीं। धार्मिक किताबें अवश्य थी ढेर सारी गीताप्रेस वाली, सत्यार्थ प्रकाश भी बचपन में ही पढा था तब पता चला कि हमारे नानाजी आर्यसमाजी थे । पिताजी की अंग्रेजी वाली कामर्स की भी खूब किताबें थीं जो हम हिन्दी मीडियम वालों के लिये विस्मय का विषय थीं। साहित्य का पहला चस्का हिन्दी (विषय) की किताबों से लगा, उसमें भी कविता ने कभी आकर्षित नहीं किया लेकिन गद्य ने सदैव अपनी ओर खींचा। कविता में अपनी समझ "उठो लाल अब आंखे खोलो", "कुटिल कंकडों की कर्कश रज", "सिंहासन हिल उठे" से आगे न बढ सकी।

उसके बाद भला हो उत्तर प्रदेश शिक्षा परिषद की हिन्दी/अंग्रेजी पुस्तकों का कि साहित्य का मजा तब आना शुरू हुया । बडे बडे नाम भी पहली बार ९-१२वीं के दौरान ही सुने, तब ही पता चला कि रामवृक्ष बेनीपुरी, यशपाल, सोहनलाल द्विवेदी, रामकृष्ण शुक्ल, भी कोई चीज हैं । इस समय थोडा विषयांतर जरूरी है जो विनीत की पोस्ट से सम्बन्धित है।

घर में हमारी बडी बहन हमसे २ वर्ष बडी थी तो उनकी पुस्तकें हम तक आती थीं। वो बडी थीं तो उनसे अपेक्षा थी कि किताबें पर कलम से नीला/पीला/लाल कुछ न लिखा जाये लेकिन चूंकि हमारी छोटी बहन हमसे पांच साल छोटी थी तो हम पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं था। हां, लेकिन फ़िर भी किताबों का ध्यान रखने को लेकर मोटे तौर पर उलाहने मिलते रहते थे। चूंकि गणित में दीदी का हाथ थोडा तंग था तो गणित की किताबों की बडी बहन बहुत दुर्गति कर देती थीं और हमें हर वर्ष गणित की नयी किताब मिलती थी। पिताजी के गणित प्रेम के चलते गणित का कोर्स भी गर्मियों की छुट्टियों में खतम हो जाता था और क्लास के साथ उसका रिवीजन चलता था।

हिन्दी की कहानियां समय से २ वर्ष पूर्व खत्म कर दी जाती थीं क्योंकि किताबें घर पर ही होती थीं। एक और मजेदार किस्सा याद आया। हमारे स्कूल में नकल इत्यादि रोकने के लिये परीक्षा के दौरान छठी के विद्यार्थियों को आठवीं के साथ बैठाकर परीक्षा दिलवायी जाती थी। हमें खूब याद है कि हमने छठीं में अपने आठवीं के सीनियर को हिन्दी/गणित के प्रश्नपत्र के कुछ प्रश्नों के सही उत्तर बताये थे। जय हो हमारे पिताजी और उनके कडक स्वभाव की :)

९-१२वीं में हमारा क्लास को ओपन चैलेन्ज हुआ करता था कि हिन्दी की किताब के गद्य वाले चैप्टर/कहानी की केवल एक लाईन बोल दो और हम कहानी/निबन्ध और उसके लेखक का नाम बता देंगे। चर्चा हमारे हिन्दी के अध्यापक तक पंहुची और जब उनके, "चिल्ला जाडा पड रहा था" समाप्त होने के पहले हमने उत्तर दिया, "स्मृति, लेखक शायद(उस समय पक्का पता था) रामवृक्ष बेनीपुरी", तो उन्होने आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से हमें चाकलेट देने का वायदा किया था।


दूसरा भाग मेरे लिए :
बी.टेक प्रथम वर्ष में हमारे होस्टल में फ़ोटोकापी का रिवाज था। जो कुछ किताबें होती थीं परीक्षा के समय पर मजबूरीं में उनके चेप्टर फ़ाडकर ६ लोग अगल अलग चैप्टर पढते थे। ऐसे में हमारे दिल्ली के एक दोस्त आदित्य गोयल थे (हैं) से एक बार बात चल रही थी तो उन्होनें बताया कि सेमेस्टर में घरवालों का हम लोग कितना खर्चा करा देते हैं? हमने सोचकर कहा कि फ़ीस/मैस/कैंटीन वगैरह मिलाकर तकरीबन १५-१८ हजार । उन्होने पूछा कि अगर कोर्स की सभी किताबें खरीदो तो कितना खर्चा होगा? हमने कहा कि हद से हद हजार/बारह सौ । बोले बात समझे? हमने कहा, समझ गये । उस दिन के बाद से कभी फ़ोटोकापी के सहारे नहीं रहे और किताबों से पढने की जो आदत लगी वो आज तक नहीं छूटी।

बंगलौर (२००२-०४) के दौरान ५००० माहवार छात्रवृत्ति मिलती थी जो उस समय अधिकतर किताबों पर खर्च हुयी । २००४ में निकलते समय समस्या थी कि किताबों के बडे जखीरे का क्या करें? एक मित्र ने सलाह दी कि एक बडे बाक्स में बन्द करके रेलवे से पार्सल कर देते हैं, पंहुचा तो पंहुचा और नहीं तो भगवान की मर्जी। हमने कहा कि कम से कम २० हजार की किताबें हैं तो बोले रेल पर भरोसा रखो। भला हो रेलवे का १ महीने में ठोकर खाते खाते हमारा बक्सा बंगलौर से आगरा आ गया। वो किताबें अब घर की किसी अलमारी में धूल खा रही हैं। उनमें से चुनिन्दा अपने साथ ह्यूस्टन आयी लेकिन ह्यूस्टन में फ़िर से किताबों का ढेर बढता जा रहा है और पढने की आदत कम होती जा रही है। देखो आगे भविष्य में क्या होता है।

लेकिन अगर भारत की भारत में किताबें भेजनी हो तो बडे बक्से को रेलवे से भेजो और ऊपर लिख देना हम ज्ञानदत्त पांडेजी को जानते हैं ;) हा हा...फ़िर पक्का पंहुच जायेगा...

और भी कुछ है लिखने को लेकिन फ़िर कभी और..

कुछ नीरज के बारे में, यह पुराने ब्लोगरों में से आते हैं मगर अभी शुशुप्तावस्था में हैं, अभी महीनों स कुछ ना लिखते हुए भी ब्लोगों पर नजर जमाये हुए.. :) मैराथन दौड़ दौड़ने के एवं मिथुन दा कि फिल्मों के शौकीनों में से.. :) ब्लॉग जगत के मेरे कुछ बेहद पुराने मित्रों में से एक, बेहद हाजिरजवाब और हंसमुख.. फिलहाल अमेरिका में.. अब इन्हें इनके फिर कभी को आगे बढाने के लिए प्रेरित किया जाए..

Friday, January 07, 2011

बच्चा!!!

दीदी की बड़की बिटिया का जन्म हमारे यहाँ ही हुआ था, और बचपन में दीदी कि छुटकी बिटिया के मुकाबले मैं बड़की के ही अधिक संपर्क में रहा। उसके पैदा होने पर उसे हाथ में लेकर देखा था, मेरी हथेली में उसका पूरा धड़ और उसका सर मेरी अँगुलियों के सहारे से आराम से टिक जाता था। लगभग यही हाल भैया के बेटे का भी था। वो भी मेरी हथेलियों से बाहर नहीं निकल पाता था। दीदी कि बड़की बिटिया जब दो-ढाई साल कि हुई तब तक शैतानी उसकी शुरू हो चुकी थी, उसे शैतानी कम और नटखटपना अधिक कहा जाए तो ही ठीक रहेगा। इसी बीच पता नहीं कब मैं उसे अपना बेसबैट दिखा कर उसे बोल दिया कि बदमाशी करोगी तो इसी मोटा वाला डंडा से पिटाई लगेगी। मैं तो भला बोल दिया और वापस चेन्नई लौट आया, मगर घर में अब सभी उसे उसकी बदमाशी पर डराना शुरू कर दिए, "पछान्त! मोटा वाला डंडा लाना!!" मामा मुफ्त में बदनाम हुए। यूँ तो भैया का बेटा बहुत ही सीधा और बहुत ही अधिक नटखट है लेकिन इस बार मैंने देखा कि अगर उसकी कोई जिद्द पूरी ना हुई तो बस! सीधा जमीन पर 'ओंघराना' चालू। अब ठंढ के इस मौसम में उसे जमीन पर 'ओंघराने' से बेहतर उसकी जिद्द मान लेना लोगों ने भला समझा और यह देख कर वह उसे रामवाण!! फिर से मेरा वही नुस्खा काम आया, एक डंडा पास में रखना, जैसे ही ओंघराए वैसे ही वो डंडा दिखाना, फिर उसका मुंह बिसुराना, और जमीन से उठाकर मोटे से कालीन पर जाकर लेट जाना जिस पर ठंढ का कोई असर ना हो!! जिस दिन वह गया उसके अगले दिन सबसे पहले मैं वह डंडा अपनी नजर से दूर किया, बहुत याद दिलाता था उसकी!!

३ जनवरी की सुबह देर से उठा। अक्सर हर रोज अधिकतम साढ़े आठ से नौ के बीच उठ जाता था, बच्चे के जागने का समय सवा आठ से साढ़े आठ के बीच का होता था, और जैसे ही भक्क टूटे, बस वो, उसका सायकिल और उसके पीछे खाने का कटोरी लेकर भागती उसकी मम्मी! इसी धमाचौकड़ी में हर दिन नींद खुलती थी, अगर इससे नींद ना खुले तो बच्चा कमरे में आकर 'पापा-पापा...मोsss' करके डराने आ जाता। उसकी समझ में उसके 'मोssss' करके डराने से दुनिया के किसी भी शख्स का डरना जरूरी है, कम से कम अभी तक उसका यह विश्वास किसी ने नहीं तोड़ा। अब कोई इतने प्यार से डराए तो भला नींद कैसे ना टूटे? अगर वो डराने नहीं आया तो उसकी मम्मी/मेरी भाभी आकर मेरा कंबल जबरदस्ती खींच ले जाती थी। ३ जनवरी को जब बिस्तर छोड़ा तब तक साढ़े दस बज चुके थे, पापा-मम्मी मिलकर बच्चे से जुडी लगभग हर चीज कहीं ऐसी जगह ठिकाने लगा चुके थे जहाँ वह सुरक्षित भी रहे और नज़रों से दूर भी।

इस बच्चे के लिए आजकल हर कोई 'पापी' है। कभी "पापा पापी ऐ?" सवाल पूछता है, तो कभी "मम्मा पापी ऐ?" का सवाल! उसके इस पापी के अंतर्गत वो हर कोई आता है जिस पर यह पूरा हक जमाता है। जैसे डैडी, दादा, दादी, बुवा, हर कोई। जो कोई भी उसका अपना हो...बच्चा 'पानी' को 'पापी' बोलता है, और बहुत मासूमियत से "पापा पापी ऐ?" का सवाल आकर पूछता था। उस समय तो मैं उसे बोलता था, "तू पापी, तेरा पूरा खानदान पापी", मगर आज बहुत दिनों बाद फोन पर उससे यही सुनकर बहुत खुशी हुई। "पापा पापी ऐ"....

उसका 'उम्मा' भी गजब का था। 'उम्मा' मतलब 'चुम्मा'। अगर कोई चाहता है कि बच्चा खुद उसे 'उम्मा' करे तो उसके लिए बेहद आसान तरीका यह है कि उसका होंठ छू कर अपने होंठ पर सटा ले, बस इतना ही काफी है। उसे लगता है कि उसका 'उम्मा' अब उसके पास नहीं है, कोई और लेकर भाग गया, अब क्या है, वो पूरे घर में दौड़ेगा पीछे-पीछे, अपना 'उम्मा' वापस लेने के लिए, और तब तक पीछा नहीं छोडेगा जब तक की वो अपने होंठ से होंठ सटा ना ले! ये उसका 'उम्मा' वापस लेने का तरीका है। ये बात सिर्फ 'उम्मा' तक ही नहीं था, 'सू-सू' करके पैंट पहनने में बहुत नखरे करता था, एक बार मैं उसका 'सू-सू' 'कुवा'(कौवा) को दे दिया तब से तुरत अपना पैंट पहन कर बताता था, 'नई ऐ'। मतलब अब आप नहीं ले सकते हो। उसका मुंह, नाक, कान, सबका यही किस्सा। हर चीज को 'कुवा' से बचाता फिरता था। इधर घर आने पर मैंने बहुत बड़े-बड़े मूंछ बढ़ा रखे थे, जिस दिन उसे काटे उस दिन बहुत देर तक ढूँढता रहा, जब मैंने उसे बताया कि मेरा मूंछ 'कुवा' ले गया, तब बहुत खुश...कि पापा का मूंछ भी कुवा ले जा सकता है, अकेला मैं ही नहीं हूँ।

हर किसी बच्चे कि तरह वो हर किसी पर सिर्फ और सिर्फ अपना ही हक समझता है। उसकी दादी, मेरी मम्मी, की गोद में जब कभी सर रखूं तो झट से आ जाता। पहले प्यार से समझाता "नई पापा, नई!" अगर मैं नहीं मानता तो मुझसे कुश्ती होती उसकी, कभी हाथ पाकर कर खींचता, कभी आकर नखरे मारता। अंत में ब्रह्मास्त्र तो था ही उसके पास, एक बार भोमियाना शुरू हुआ नहीं की अब क्या मजाल कि कोई भी वहाँ बैठा रह सकता है?

जिस दिन मैं पटना आया था उस दिन उसके मन में बैठ गया था कि छोटे पापा उसके लिए 'बौल' ला रहे हैं। मैं इधर नहाने गया, और उधर वो मेरे सारे सामान को पलटने लगा। जब कहीं बौल नहीं मिला तो भोमियाने लगा। नहाने के बाद जब मैं वापस आया और उसे लेकर जब तक बाजार से बौल खरीद ना दिया, तब तक बच्चे को तसल्ली नहीं। पता नहीं इतने दिनों बाद भी देखकर पहचान कैसे गया था, या शायद अहसास हो गया होगा कि कोई अपना ही है, पता नहीं कैसे!! आज सुबह घर की साफ़-सफाई के समय फिर घर के किसी कोने से एक बौल निकलकर बाहर आ गया!!!!

उसे मौसी बोलना भी नहीं आता था। उसकी मौसी हमेशा 'तार'(कार) से आती थी, और 'तार' 'पों-पों' करता है, सो उसने अपनी मौसी का नाम ही 'पों-पों' रख दिया। बच्चे के दादा एक-दो बार उसके इस मौसी को 'पों-पों' बोलने पर नापसंदगी जाहिर कर चुके थे, सो बच्चा समझता था कि दादाजी गुस्सा हो जायेंगे। अब जैसे ही उसने अपनी मौसी को 'पों-पों' बोला और देखा कि किसी ने उसकी इस बात पर ध्यान दिया है कि तुरत पलट जाता था 'तार पों-पों, ऊ नई'!! और मैं भैया-भाभी को उलाहना देता कि बच्चे ने दुनियादारी का पहला सबक सीख लिया, झूठ बोलना!!

आज मुझे सुनाया कि उसका नाम 'छाछ्वत'(शाश्वत) है और उसके डैडी का नाम 'छुछमित'(सुस्मित) है!!!

सबकी अपनी-अपनी माया!!!

लग रहा है जैसे घर भाँय भाँय कर रहा है। दिन भर घर में एक उत्पात जैसा मचाये रखने वाला लड़का!! भैया की शादी के समय वह लखनऊ में थे, और इधर शादी हुई और भैया का पोस्टिंग पटना हो गया। पापा-मम्मी भी खुश, भैया-भाभी भी खुश। देखते ही देखते साढ़े तीन साल भी निकल गए। एक बच्चा भी आ गया। पापा रिटायर भी इसी बीच हुए। मम्मी को दिन भर घर में अकेले रहने की आदत जो हो चुकी थी वह भी खत्म हो चुका था। अब कहीं भी जाओ, कोई ना कोई घर में रहता जरूर था। पापा-भैया दफ्तर गए तो मम्मी के लिए भाभी, और भाभी के लिए मम्मी। पापा रिटायर हुए तब तक बच्चे का आगमन घर में हो चुका था, सो दिन भर बच्चे के साथ लगे रहने में रिटायर होने कि तकलीफ से भी गुजरने का मौका नहीं मिला। दिन भी उड़ता ही चला गया। एक टिपिकल सास-बहु वाला तकरार पिछले तीन-साढ़े तीन साल में कभी नहीं हुआ। कुल मिलाकर एक आईडियल परिवार, जिसे देख कर जलने वाले भी खूब।
मूलधन से अधिक प्यारा सूद होता है – एक पुरानी कहावत।

मैंने बहुत सारी महिलाओं को झूठे आंसू बहाते देखा है। अधिकांशतः अपने रिश्तेदारों में ही। जो जैसे ही घर में घुसो नहीं कि बस्स!! लग गए टप-टप लोर चुवाने। घर से बाहर निकलो नहीं की फिर वही “आही रे बौवा!! जा रहल छी!!” और भोकार पार कर रोना चालू। और मुझे इससे सख्त नफरत है। थोड़ा मुंहफट भी हूँ, सो एक-दो बार टोक दिया ऐसा ही था तो उस समय वैसा क्यों बोल या कर रही थी, सो अब कम से कम मेरे सामने कोई झूठा लोर नहीं चुवाता है। पता नहीं यह जन्मजात गुण होता है या फिर सीखने वाली कला, कि जब चाहो तब आँख में आंसू भरकर रो लो!! लेकिन भाभी को मैंने देखा कार में चुपचाप अकेले में रोते हुए। बगल में सिर्फ मैं बैठा हुआ था, और वो झूठी कोशिश कर रही थी अपने आंसू छुपाने की। कोई दिखावटीपन नहीं, कोई आवाज भी नहीं, आवाज करने से कार के बंद सीसे में सभी सुन लेंगे शायद। मैंने भी कुछ टोका-टाकी नहीं किया। बस ये सोच रहा था कि कितनी बहु होती है जो अपने सास-ससुर के लिए रोती हैं? जवाब भी पता था कि जब बहु को बेटी जैसा प्यार मिले तो ऐसा हर घर में होगा।

सूद के अधिक प्यारे होने का कारण अब समझ में आ रहा है। अपने बच्चे के समय लोग दुनियादारी-कामकाज में उलझे रहते हैं। बच्चों से प्यार रहने के बावजूद उतना समय नहीं दे पाते हैं। ऊपर से कभी कभार बच्चों से सख्ती भी बरतनी पड़ती है, अनुशासन सीखाने के लिए। मगर पोते-पोती, नाती-नतिनी के समय लोग या तो रिटायर हो चुके होते हैं या फिर उसके करीब पहुंचे होते हैं। अब सारा समय उन्हीं बच्चों के साथ गुजरता है, लोग बाग शुरुवाती दिनों में उसी बच्चे में अपने बच्चे का बचपना ढूंढते हैं और बाद में बुरी तरह रम जाते हैं। अपने बच्चों से भी अधिक प्रेम भाव आ जाता है। ये मोह माया कि जकड़न बेहद बुरी होती है, ये जानते हुए भी लोग उसमें जकड़ते चले जाते हैं। बच्चा पैदा होता है तो माँ-बाप, बड़ा होने पर पति-पत्नी, कुछ दिनों बाद बच्चे, फिर नाती-नतिनी और पोते-पोतियां, और अगर उम्र फिर भी बाकी हो तो उनकी शादी के सपने भी संजोना। कोई तोड़ नहीं है इस माया जाल का।

ये तो बात रही बड़ों कि माया की! उस दो-ढाई साल के बच्चे की माया भी कम नहीं थी। सुबह उठते ही सबसे पहले उसे दादा चाहिए। उस समय अपने माँ-बाप की गोद भी नहीं सुहाती थी। उस समय बालकनी से दिखने वाले सभी कारों पर सिर्फ उसका और उसके दादा का ही आधिपत्य वह समझता था, उन कारों को देखने का अधिकार वह किसी और को कभी नहीं देता था। कुछ दिन पहले तक उसके लिए ‘तू’(टू) ही सबसे बड़ी संख्या थी, बाद में उसके शब्दकोष में कुछ और इजाफा हुआ, एक नया शब्द जुड़ा ‘बिग’!! पहले उसका अपना जो कुछ भी था वह ‘वन’ था, और वन बोलना उसे आता नहीं था। ऐसे में ‘तू नई’ या फिर अपनी छोटी सी तर्जनी दिखाना भर ही उसके लिए वह होता था। अब नए नए शब्द सीखने के बाद उसके पास जो कुछ भी है वह ‘बिग’ है। अपने दादा ‘बिग दादा’, अपनी दादी ‘बिग दादी’, अपनी नानी 'बिग नानी', अपने नाना 'बिग नाना', अपने छोटे पापा ‘बिग पापा’, अपना सायकिल ‘बिग सायकिल’!! बाकी दुनिया ‘टू’! माने 'स्माल'!! अब तक वो ‘तू’ से ‘टू’ तक का सफर भी तय कर चुका था। और हर ‘बिग’ पर उसका एकाधिकार था। उसके जाने वाले दिन ही एक नया शब्द उससे सुना ‘ईरी’ माने थ्री।

“आत नई ऐ”, “आत आ गया”। यह उसका नया खेल था। ठंढ के इस मौसम में जब कभी वो कंबल के भीतर घुसा होता था तब अपने हाथ हो कंबल के भीतर घुसा कर यह खेल खेलता रहता था। भोली सी मुस्कान, चेहरे पर शरारत, और तोतली बोली, ऊपर से यह खेल। भैया ही सिखाएं हैं उसे ये सब। मुझे याद है, बचपन मए ठंढ के मौसम में भैया और मैं तक़रीबन ऐसा ही खेल खेला करते थे, सोने से पहले कम से कम आधे घंटे के लिए तो जरूर। उस खेल का नाम था “भूत-भूत”, इस खेल के नियम का पहला नियम यह कि कोई नियम नहीं। अचानक दोनों में से कोई भी एक बोलता “भूत आ गया” और दोनों ही रजाई के भीतर सर छिपा लेते, फिर कोई भी एक बोलता “भूत चला गया” और दोनों ही रजाई से अपना चेहरा धीरे से बाहर निकाल लेते। ‘बौवा’ ने भी पहले अपने डैडी से यही खेल सिखा और उसके लिए उस खेल का नाम “भाकौंवा-भाकौंवा” था, बाद में उसने खुद ही “आत नई ऐ” नाम का खेल इजाद कर लिया।

हमारे घर के हर कमरे में दो सफ़ेद रौशनी देने वाला बल्ब लगा हुआ है और कहीं कहीं ट्यूबलाईट भी। मगर दो बल्ब तो जरूर से जरूर है। अब ऐसे में अगर किसी कमरे में सिर्फ एक बत्ती जल रही हो तो बच्चा आकर परेशान-परेशान कर देता "तू आईत!! तू आईत" की रट लगा देता, और जब तक उसका "तू आईत" नहीं जलता तब तक "तू आईत!! तू आईत!!" रटता रहता।

जब कभी मैं ‘लाई’ (भूजे हुए चूड़े, या मुरही जैसी चीजों को गुड के साथ मिलाकर बनाया गया लड्डू जैसा खाद्य पदार्थ) खाने के लिए जाता था तब बच्चा मेरे पीछे भाग कर आता था ‘आई’ मांगने। मैं पूछता कौन सा लाई, ‘ऐ वाला’ मुरही वाले के तरफ दिखा कर बोलता था। ‘वन’ चाहिए या ‘टू’ (सनद रहे वो हर बात पर टू बोलता है), वो अपनी तर्जनी उठा कर ‘वन’ दिखाता था, उसे ‘वन’ बोलना नहीं आता ना!! मैं उसे बोलता कि मुंह से बोलो तब दूँगा, फिर वह बोलता ‘टू नई’, मतलब वन!! “बिग चाहिए या स्माल?” अब जबकि उसे हर चीज ‘बिग’ चाहिए होती थी, मगर अभी वो बोलता ‘बिग नई’! क्योंकि ‘बिग’ वाला लाई वो खा नहीं पाता था।

हमारी माया तो वो था मगर उसकी माया उसके खिलौने ही तो थे। अधिकाँश खिलौने भैया के जाने वाले सामान के साथ बंधवा दिए थे। कुछ बाक़ी थे, जिसमें से कुछ या तो जाने के हालत में नहीं थे, या फिर सामान के यहाँ से जाने के बाद ख़रीदे गए थे, या फिर मैंने रुकवा लिए थे कि पन्द्रह दिन कैसे रहेगा यह यहाँ इनके बिना – वहाँ जाकर नया ले लेगा। इसमें उसकी सबसे प्यारा तीन पहिये वाली सायकिल, जिसे वह किसी को नहीं, अपने दादा अथवा डैडी को भी नहीं, छूने देता था और दिन भर उस सायकिल पर ‘पीं...पीं...’ की आवाज मुंह से निकालते हुए दौड़ता था। अगर बदमाशी कर रहा हो, या उसका ध्यान कहीं और भटकाना हो तो बस इतना ही कह दो कि कोई उस सायकिल पर बैठ रहा है या छू भी रहा है तो बस्स!!! सब कुछ छोड़ कर अपने सायकिल की सुरक्षा में लग गया। उस दिन मेरे भतीजे प्रेम कि वाह-वाही हो रही थी, मगर अब घर भर में मुझे कोसा जा रहा है। जब जब किसी को वह सायकिल नजर आती है, एक बार मुझे मन भर कोस लिया जाता है!! "यही लड़का के कारण सायकिल यहाँ है, इसे देख कर याद अधिक आती है!!"

फिलहाल तो उसकी सब माया धरी रह गई सी लगती है, और वो अहमदनगर पहुँच चुका है, कुछ नया सीखने, नयी दुनिया से परिचय लेने!!

पापा-मम्मी के लिए लिए तो फिलहाल वही बच्चा सबसे बड़ी माया था!!!!! आज शाम में एक कार नीचे में बैक कर रहा था, उससे निकलने वाली आवाज सुन कर बच्चा दौड कर खिडकी के पास जाकर अपने अंगूठे और तर्जनी को उसकी आवाज पर सिंक्रोनाइज करके “तार पों पों..पों पों” बोलता था, लगा जैसे कि बच्चा उधर ही कहीं खिडकी से झाँक रहा है!! जिस दिन वो गया उस दिन रात में पहली बार पापा को रोते देखा। २ जनवरी २०११!!!

ऊपर तस्वीर में पटना एअरपोर्ट पर पापा के साथ भैया-भाभी और बच्चा। बच्चा भी समझ गया है कि कुछ गडबड है, सो सहमा हुआ चुपचाप मुरझाया सा चेहरा लेकर गोद में बैठा हुआ है!!

Wednesday, January 05, 2011

किस्सा किताबों का

मैं पिछले कुछ दिनों से अपने पास रखी किताबों का चित्र खींचकर अपने फेसबुक पर चिपका रहा था.. उसमें दिखावा था या नहीं ये तो पता नहीं, साधारण मनुष्य हूँ सो दिखावे के स्वभाव से अछूता नहीं हूँ, मगर एक उत्साह जरूर था कि इसे अपने उन दोस्तों से बांटता हूँ जो पढ़ने-लिखने के शौक़ीन हैं.. अक्सर पटना से घर जाते समय बेहद पुरानी किताबें, जो कभी पापा ने खरीदी थी, लेता जाता हूँ और अगली बार वापस आते समय उसे वापस लाकर दूसरी किताबें.. एक चक्र की तरह यह चलता चला जा रहा था.. किताबें पढता था, पढ़ कर अलग से सजा कर रख देता था.. पापा को भी ठीक वैसी ही किताबें वापस चाहिए होती है, जैसी की उन्होंने दी थी.. और उन्हें वैसी ही मिलती भी है.. इसी बीच मैंने एक दिन ध्यान दिया कि जितनी भी किताबें मैं घर से लाया हूँ सभी कि सभी लगभग 1982-88 के बीच की है (मम्मी बताती है कि उसके बाद के समय में अधिक व्यस्त हो जाने कि वजह से इन सब चीजों पर पापा अधिक ध्यान नहीं दे पाए).. ख़रीदे जाने कि तारीख, जिस दिन खरीदी गई थी उस समय पापा कहाँ पोस्टेड थे उस जगह का नाम और एक सीरियल नंबर पापा के हस्ताक्षर के साथ उन किताबों पर चस्पा थी.. मैंने उसी समय उन सभी किताबों कि एक तस्वीर ली और लटका दिया अपने फेसबुक की दीवार पर इस शीर्षक के साथ "वे किताबें, जिन्होंने एक पीढ़ी तक का सफर तय किया".. मुझे अब भी युनुस जी का एक कमेंट याद है जिसमें उन्होंने कहा था "मैं चाहता हूँ कई बरस बाद जादू भी ऐसी ही एक पोस्ट लिखे.." उनके वह लिखने के बाद ही मुझे उन तस्वीरों का दोस्तों के साथ साझा करने का महत्त्व समझ आया, कि कैसे एक पिता अपनी विरासत को उनके सही उत्तराधिकारी के हाथ में सौंप कर खुश होते होंगे जो उन चीजों से उतना ही प्रेम करता हो जितना वह खुद कभी करते रहे हों..

कल यूँ ही घर में भटकते समय कुछ किताबें संग-संग दिख गई.. जिनमें गीता, कुर'आन, बाइबल, कुछ योग की पुस्तकें और कुछ साहित्य के साथ-साथ इतिहास की पुस्तकें भी दिख गई.. मुझे बेहद दिलचस्प सा लगा वह कोम्बिनेशन.. मैंने बिना एक पल गँवाए उस ताखा (आज विनीत ने एक पोस्ट लिखी जिसमें उसने तख्ता की जगह ताखा लिखी, मैं भी बचपन में उसे ताखा ही कहता था मगर फेसबुक पर सभी दोस्तों को समझ में आये इस विचार से तख्ता लिख गया) पर से सभी सामानों को हटाया, सिर्फ उसकी चाभी वहीं छोड़ दी, और उसकी तस्वीर लेकर फेसबुक पर साझा करते हुए शीर्षक लगाया "मेरे घर में किताबों का एक तख्ता.."

शुरू से ही घर में पुरानी बेकार पड़ी किताबों को बेचने कि प्रथा कभी नहीं रही.. आज भी जब किताबों से भरे आलमीरा को खोलता हूँ तो पांचवीं-छठी कक्षा से लेकर अभी तक कि लगभग सभी किताबें वहाँ सुरक्षित पाता हूँ.. नौवीं-दसवीं कक्षा कि CBSE की किताबें अभी भी किसी तरह के सरकारी नौकरी की परीक्षा में बैठूं तो शायद काम आ जाए.. ग्रैजुएशन और पोस्ट ग्रैजुएशन के दिनों में भी अपने दोस्तों के बीच सबसे अधिक किताबें मेरे पास ही रही.. मुझे अब भी याद है कि एक समय सिर्फ 'C' Language कि आठ किताबें मेरे पास थी, अलग-अलग लेखकों कि, अलग-अलग खास विषयों पर.. होस्टल छोड़ते समय अधिकतर दोस्त उन किताबों को फ़ेंक आये थे अथवा बेच आये थे, और मैं एक बेवकूफ कि तरह उन हर किताबों को ढो कर लेता चला आया जिनके बारे में पता था कि अब जीवन भर यह मेरे किसी काम का नहीं है, मैं कभी भी उन्हें पलट कर भी नहीं देखने वाला हूँ.. मगर फिर भी.. सीनियर से लिए गए वैसे कई किताब भी पास ही में हैं जो मेरे जूनियरों के किसी काम का नहीं रह गया था और मैं उसे किसी को दे नहीं पाया था.. बस किसी ऐसे विद्यार्थी को ढूँढता रहा जिसके यह काम आ सके.. सिर्फ चंद किताबें ही ऐसी हैं जिन्हें मैं अमूमन हमेशा पलट कर देखता हूँ, जिसमें 'C++ With OOPs Concept', 'DBMS', 'Networking' और 'Software Engineering' कि किताबें ही शामिल हैं.. बाकी किताबें शायद ही कभी खोलने वाला हूँ.. मगर फेंकने या बेचने का ना तो जिगर है और ना ही इच्छा.. यहाँ तक कि बचपन में पढ़ी हुई कहानी और कामिक्स भी सभी कि सभी संभाल कर रखी हुई है..

ग्रैजुएशन के दिनों तक पापा अपने सभी उपन्यास को हमें छूने भी नहीं देते थे.. उन सभी उपन्यासों का रहस्य गली के नुक्कड़ पर बिकने वाले पीली किताब से कम नहीं थी (कुछ ऐसा ही विनीत ने भी अपने घर में रखी उन बही खातों के बारे में लिख रखी है).. किताबों वाले आलमीरा को खोलने से पहले हजार बार सोचना पड़ता था.. किसी बहाने से उसे खोलता था.. सिर्फ एक झलक, जिसमें कई उपन्यास कि एक झलक दिख जाती थी.. बस!! बच्चे कोर्स कि किताबों में कामिक्स छुपकर पढते हैं, जबकि मैं उन किताबों को छुपकर पढ़ने में अपने कई रिजल्ट खराब किये हैं.. 'चंद्रकांता' अपने सातों भाग के साथ भी इसी उत्सुकता की भेंट चढ़ा..

पापा अक्सर मुझे बताते हैं कि उन्होंने मेरा नाम "प्रशान्त" रेणु जी कि "मैला आँचल" वाले डाक्टर प्रशान्त के नाम पर ही रखा था.. साथ में जब यह जोड़ते थे कि वह किताब वे चौदह-पन्द्रह साल कि उम्र में पढ़े थे तो मन में बहुत चिढ होती थी की खुद तो बचपन से ही उपन्यास पढते आ रहे हैं और मुझे रोकते रहते हैं हमेशा.. वैसे अब सोचता हूँ तो लगता है कि ठीक ही किया उन्होंने, सही समय पर सही किताब हाथ में पकड़ाई..

बस यही डर लगता है कि जब कभी चेन्नई छोड़ कर कहीं जाने कि नौबत आयी तो इन किताबों को ले जाना कितना कठिन होगा!! खैर जो भी हो, मैं तो ना ही इन बेकार पड़ी किताबों को ना तो फेंकने वाला हूँ और ना ही बेचने वाला हूँ.. किसी जरूरतमंद को कुछ समय के भले ही दे दूँ पढ़ने के लिए, मगर किसी को भी इसी शर्त पर देता हूँ कि पढ़ कर वापस कर जाए.. और अपनी किताबों को लेकर मैं हद दर्जे का जलील इंसान हूँ, अगर कोई वापस ना करे तो किसी भी हद तक जलील करके वापस ले ही लेता हूँ.. इसी तर्ज पर अगर मैं किसी कि किताब लेता हूँ पढ़ने के लिए तो हर संभव प्रयास भी करता हूँ कि एक समय सीमा के भीतर ही उसे लौटा भी दूँ.. सबूत के तौर पर हमारे ब्लॉगजगत की ही विभा जी हैं ना!! :)