मूलधन से अधिक प्यारा सूद होता है – एक पुरानी कहावत।
मैंने बहुत सारी महिलाओं को झूठे आंसू बहाते देखा है। अधिकांशतः अपने रिश्तेदारों में ही। जो जैसे ही घर में घुसो नहीं कि बस्स!! लग गए टप-टप लोर चुवाने। घर से बाहर निकलो नहीं की फिर वही “आही रे बौवा!! जा रहल छी!!” और भोकार पार कर रोना चालू। और मुझे इससे सख्त नफरत है। थोड़ा मुंहफट भी हूँ, सो एक-दो बार टोक दिया ऐसा ही था तो उस समय वैसा क्यों बोल या कर रही थी, सो अब कम से कम मेरे सामने कोई झूठा लोर नहीं चुवाता है। पता नहीं यह जन्मजात गुण होता है या फिर सीखने वाली कला, कि जब चाहो तब आँख में आंसू भरकर रो लो!! लेकिन भाभी को मैंने देखा कार में चुपचाप अकेले में रोते हुए। बगल में सिर्फ मैं बैठा हुआ था, और वो झूठी कोशिश कर रही थी अपने आंसू छुपाने की। कोई दिखावटीपन नहीं, कोई आवाज भी नहीं, आवाज करने से कार के बंद सीसे में सभी सुन लेंगे शायद। मैंने भी कुछ टोका-टाकी नहीं किया। बस ये सोच रहा था कि कितनी बहु होती है जो अपने सास-ससुर के लिए रोती हैं? जवाब भी पता था कि जब बहु को बेटी जैसा प्यार मिले तो ऐसा हर घर में होगा।
सूद के अधिक प्यारे होने का कारण अब समझ में आ रहा है। अपने बच्चे के समय लोग दुनियादारी-कामकाज में उलझे रहते हैं। बच्चों से प्यार रहने के बावजूद उतना समय नहीं दे पाते हैं। ऊपर से कभी कभार बच्चों से सख्ती भी बरतनी पड़ती है, अनुशासन सीखाने के लिए। मगर पोते-पोती, नाती-नतिनी के समय लोग या तो रिटायर हो चुके होते हैं या फिर उसके करीब पहुंचे होते हैं। अब सारा समय उन्हीं बच्चों के साथ गुजरता है, लोग बाग शुरुवाती दिनों में उसी बच्चे में अपने बच्चे का बचपना ढूंढते हैं और बाद में बुरी तरह रम जाते हैं। अपने बच्चों से भी अधिक प्रेम भाव आ जाता है। ये मोह माया कि जकड़न बेहद बुरी होती है, ये जानते हुए भी लोग उसमें जकड़ते चले जाते हैं। बच्चा पैदा होता है तो माँ-बाप, बड़ा होने पर पति-पत्नी, कुछ दिनों बाद बच्चे, फिर नाती-नतिनी और पोते-पोतियां, और अगर उम्र फिर भी बाकी हो तो उनकी शादी के सपने भी संजोना। कोई तोड़ नहीं है इस माया जाल का।
ये तो बात रही बड़ों कि माया की! उस दो-ढाई साल के बच्चे की माया भी कम नहीं थी। सुबह उठते ही सबसे पहले उसे दादा चाहिए। उस समय अपने माँ-बाप की गोद भी नहीं सुहाती थी। उस समय बालकनी से दिखने वाले सभी कारों पर सिर्फ उसका और उसके दादा का ही आधिपत्य वह समझता था, उन कारों को देखने का अधिकार वह किसी और को कभी नहीं देता था। कुछ दिन पहले तक उसके लिए ‘तू’(टू) ही सबसे बड़ी संख्या थी, बाद में उसके शब्दकोष में कुछ और इजाफा हुआ, एक नया शब्द जुड़ा ‘बिग’!! पहले उसका अपना जो कुछ भी था वह ‘वन’ था, और वन बोलना उसे आता नहीं था। ऐसे में ‘तू नई’ या फिर अपनी छोटी सी तर्जनी दिखाना भर ही उसके लिए वह होता था। अब नए नए शब्द सीखने के बाद उसके पास जो कुछ भी है वह ‘बिग’ है। अपने दादा ‘बिग दादा’, अपनी दादी ‘बिग दादी’, अपनी नानी 'बिग नानी', अपने नाना 'बिग नाना', अपने छोटे पापा ‘बिग पापा’, अपना सायकिल ‘बिग सायकिल’!! बाकी दुनिया ‘टू’! माने 'स्माल'!! अब तक वो ‘तू’ से ‘टू’ तक का सफर भी तय कर चुका था। और हर ‘बिग’ पर उसका एकाधिकार था। उसके जाने वाले दिन ही एक नया शब्द उससे सुना ‘ईरी’ माने थ्री।
“आत नई ऐ”, “आत आ गया”। यह उसका नया खेल था। ठंढ के इस मौसम में जब कभी वो कंबल के भीतर घुसा होता था तब अपने हाथ हो कंबल के भीतर घुसा कर यह खेल खेलता रहता था। भोली सी मुस्कान, चेहरे पर शरारत, और तोतली बोली, ऊपर से यह खेल। भैया ही सिखाएं हैं उसे ये सब। मुझे याद है, बचपन मए ठंढ के मौसम में भैया और मैं तक़रीबन ऐसा ही खेल खेला करते थे, सोने से पहले कम से कम आधे घंटे के लिए तो जरूर। उस खेल का नाम था “भूत-भूत”, इस खेल के नियम का पहला नियम यह कि कोई नियम नहीं। अचानक दोनों में से कोई भी एक बोलता “भूत आ गया” और दोनों ही रजाई के भीतर सर छिपा लेते, फिर कोई भी एक बोलता “भूत चला गया” और दोनों ही रजाई से अपना चेहरा धीरे से बाहर निकाल लेते। ‘बौवा’ ने भी पहले अपने डैडी से यही खेल सिखा और उसके लिए उस खेल का नाम “भाकौंवा-भाकौंवा” था, बाद में उसने खुद ही “आत नई ऐ” नाम का खेल इजाद कर लिया।
हमारे घर के हर कमरे में दो सफ़ेद रौशनी देने वाला बल्ब लगा हुआ है और कहीं कहीं ट्यूबलाईट भी। मगर दो बल्ब तो जरूर से जरूर है। अब ऐसे में अगर किसी कमरे में सिर्फ एक बत्ती जल रही हो तो बच्चा आकर परेशान-परेशान कर देता "तू आईत!! तू आईत" की रट लगा देता, और जब तक उसका "तू आईत" नहीं जलता तब तक "तू आईत!! तू आईत!!" रटता रहता।
जब कभी मैं ‘लाई’ (भूजे हुए चूड़े, या मुरही जैसी चीजों को गुड के साथ मिलाकर बनाया गया लड्डू जैसा खाद्य पदार्थ) खाने के लिए जाता था तब बच्चा मेरे पीछे भाग कर आता था ‘आई’ मांगने। मैं पूछता कौन सा लाई, ‘ऐ वाला’ मुरही वाले के तरफ दिखा कर बोलता था। ‘वन’ चाहिए या ‘टू’ (सनद रहे वो हर बात पर टू बोलता है), वो अपनी तर्जनी उठा कर ‘वन’ दिखाता था, उसे ‘वन’ बोलना नहीं आता ना!! मैं उसे बोलता कि मुंह से बोलो तब दूँगा, फिर वह बोलता ‘टू नई’, मतलब वन!! “बिग चाहिए या स्माल?” अब जबकि उसे हर चीज ‘बिग’ चाहिए होती थी, मगर अभी वो बोलता ‘बिग नई’! क्योंकि ‘बिग’ वाला लाई वो खा नहीं पाता था।
हमारी माया तो वो था मगर उसकी माया उसके खिलौने ही तो थे। अधिकाँश खिलौने भैया के जाने वाले सामान के साथ बंधवा दिए थे। कुछ बाक़ी थे, जिसमें से कुछ या तो जाने के हालत में नहीं थे, या फिर सामान के यहाँ से जाने के बाद ख़रीदे गए थे, या फिर मैंने रुकवा लिए थे कि पन्द्रह दिन कैसे रहेगा यह यहाँ इनके बिना – वहाँ जाकर नया ले लेगा। इसमें उसकी सबसे प्यारा तीन पहिये वाली सायकिल, जिसे वह किसी को नहीं, अपने दादा अथवा डैडी को भी नहीं, छूने देता था और दिन भर उस सायकिल पर ‘पीं...पीं...’ की आवाज मुंह से निकालते हुए दौड़ता था। अगर बदमाशी कर रहा हो, या उसका ध्यान कहीं और भटकाना हो तो बस इतना ही कह दो कि कोई उस सायकिल पर बैठ रहा है या छू भी रहा है तो बस्स!!! सब कुछ छोड़ कर अपने सायकिल की सुरक्षा में लग गया। उस दिन मेरे भतीजे प्रेम कि वाह-वाही हो रही थी, मगर अब घर भर में मुझे कोसा जा रहा है। जब जब किसी को वह सायकिल नजर आती है, एक बार मुझे मन भर कोस लिया जाता है!! "यही लड़का के कारण सायकिल यहाँ है, इसे देख कर याद अधिक आती है!!"
फिलहाल तो उसकी सब माया धरी रह गई सी लगती है, और वो अहमदनगर पहुँच चुका है, कुछ नया सीखने, नयी दुनिया से परिचय लेने!!
पापा-मम्मी के लिए लिए तो फिलहाल वही बच्चा सबसे बड़ी माया था!!!!! आज शाम में एक कार नीचे में बैक कर रहा था, उससे निकलने वाली आवाज सुन कर बच्चा दौड कर खिडकी के पास जाकर अपने अंगूठे और तर्जनी को उसकी आवाज पर सिंक्रोनाइज करके “तार पों पों..पों पों” बोलता था, लगा जैसे कि बच्चा उधर ही कहीं खिडकी से झाँक रहा है!! जिस दिन वो गया उस दिन रात में पहली बार पापा को रोते देखा। २ जनवरी २०११!!!
ऊपर तस्वीर में पटना एअरपोर्ट पर पापा के साथ भैया-भाभी और बच्चा। बच्चा भी समझ गया है कि कुछ गडबड है, सो सहमा हुआ चुपचाप मुरझाया सा चेहरा लेकर गोद में बैठा हुआ है!!
प्रशांत, इस पोस्ट की कोई 'रेटिंग' नहीं हो सकती इसलिए बिना रेटिंग किये जा रहे हैं. क्या कहें...हम इतनी दूर हैं लेकिन फिर भी लग रहा है की बाबू चला गया :(
ReplyDeleteस्तुति की बात को ही मेरी बात समझो!!
ReplyDeleteसास बहू एक दूसरे के अकेलेपन को दूर करते हैं, यह तथ्य बड़ा उपयोगी है भावी विश्वशान्ति के लिये।
ReplyDeleteबिना बेटा सब सूना लगेगा घर।
आप का लेख पढ़ कर तो हम भी भावुक हो गये, भाई....ये बच्चे होते ही ऐसे हैं...चलिेये, जहां रहे खुश रहे, सेहत मंद रहे ....
ReplyDeleteहैलो लिटिल प्रोफेसर.
ReplyDelete...
ReplyDeleteएक बहुत-बहुत लम्बे अंतराल के बाद पढ़ रहा हूं प्रशांत प्रियदर्शी को. लग रहा है कि मैच्योरिटी का लेवल एक नयी ऊंचाई हासिल कर गया है. लेखन में गहराई भी काफ़ी है. बधाई.
ReplyDeleteबढ़िया लिखा.
कभी कभी लगता है जो बात हम लिखना चाहते थे उसे तुम, स्तुति और पूजा मिलकर पूरा कर देते हो... आज से तुम्हारा लिखा हुआ यह मेरा सबसे पसंदीदा पोस्ट हो गया :)
ReplyDeleteबड़े प्यार से लिखा है..चाचू जान ने...:)
ReplyDeleteइत्ती प्यारी प्यारी बातें लिखी हैं कि वे शब्द जैसे हम पढ़ नहीं.. सुन रहे थे.
पर अब तुम्हारी भी कुछ जिम्मेवारी बनती है,ना....भाभी चली गयीं..तो माँ का अकेलापन दूर करो.
कैसे??...पता है ना :)
आपके ब्लॉग पर आज पहली बार कमेन्ट कर रहे हैं पी.डी... फीड रीडर में तो जाने कब से ऐड है ये ब्लॉग... सारी तो नहीं पर हाँ काफ़ी पोस्ट्स पढ़ीं हैं आपकी... पर आज तो लगा की आप हैंडी कैम लिये बच्चे के पीछे पीछे ही दौड़ रहे थे पूरी पोस्ट में या यूँ कहें की पूरे घर में... ऑडियो-विडिओ सहित पूरी मूवी ही दिखा दी :) और ये आपका "बिग" भतीजा बहुत प्यारा है... उसे ढेर सारी दुआएँ और प्यार... जहाँ रहे खुश रहे और लोग ऐसे ही उसके मासूम मायाजाल में फँसते रहें...
ReplyDeleteरश्मि दी ने पते की बात की है :)
ReplyDeleteकमेन्ट बंद ही कर दो इसपर तो. ! क्या कहें हम ?
ReplyDelete@ अभिषेक ओझा - लो बंद कर दिया.. वैसे कल पोस्ट करने से पहले मैं भी सोच रहा था, मगर फिर खुला ही रख दिया कमेंट ऑप्शन..
ReplyDelete