Thursday, November 19, 2009

नौस्टैल्जिक होने के बहाने कुछ गुमे से दिन

यूं तो नौस्टैल्जिक होने के कई बहाने हम-आप ढ़ूंढ़ सकते हैं, तो एक बहाना संगीत का भी सही.. आज सुबह से ही 'माचिस' फिल्म का गीत "चप्पा-चप्पा चरखा चले" का एक लाईन जबान पर चढ़ा हुआ है..


"गोरी-चटखोरी जो कटोरी से खिलाती थी,
जुम्मे के जुम्मे जो सुरमें लगाती थी..
हो कच्ची मुंडेर के तले.....
चप्पा-चप्पा चरखा चले.."


अब पता नहीं, लोग इस गाने को किस नजर से देखते हैं और किस तरह से नौस्टैल्जिक होते हैं.. मुझे तो ये गीत पटना की गलियों तक खींच लाता है.. उन पुराने बूढ़े से होते गलियों का भटकाव याद आने लगता है, जहां आवारगी के दिनों में कदमों से दूरियों को भुलाया करते थे..

जब पुरानी गलियों में भटकने के किस्से सुना ही रहा हूं तो गलियों वाला माचिस का गीत कैसे भला कोई भूल सकता ? "छोड़ आये हम, वो गलियां.." शायद यही आज के इस युवा वर्ग का यथार्थ भी बनता जा रहा है.. जाने कौन कितनी ही गलियों के विछोह का मारा-मारा अपनी जमीन से बेदखल दूसरे प्रदेशों में फिर रहा है? भले ही उस गीत में गुलजार साहब ने कुछ और तरह के विस्थापन के दर्द को दिखाने का प्रयास किया हो..

मेरे लिये नौस्टैल्जिक होने वाले कुछ अन्य गीतों में रात की आवारगी दर्शाता हुआ तेजाब का गीत "सो गया ये जहां, सो गया आसमान.." भी शामिल है.. जिसे सुनते हुये उन पुरानी यादों में चला जाता हूं जब पटना में रात के समय दोस्तों के साथ आवारागर्दी किया करता था(पटना में रात बिरात घूमना उस समय और भी बड़ी समस्या थी, गुजरात दंगों का दौर था और अक्सर अफवाहों के कुछ तूफान गुजरा करते थे) और उस पर भी तुर्रा यह की मेरी आवारगी उन्हीं इलाकों में होती थी जिसे अखबार वाले मुस्लिम बहुल इलाका कहा करते हैं(पटना सिटी)..



जब रात और दोस्तों की बात करता हूं तो एक गीत, जिसमें रात तो कहीं नहीं है, मगर फिर भी बहुत याद आता है.. 'आतिफ़' का गाया हुआ "हम किस गली जा रहे हैं".. यह गीत मुझे उन यादों में खिंचता है जब कालेज के अंतिम पड़ाव से गुजर रहा था और चेन्नई में रहकर अपना प्रोजेक्ट पूरा कर रहा था.. किसी काम से वापस कालेज जाने पर रात के समय कभी कालेज के बाहर वाले ढ़ाबे से खाना खा कर लौटते समय रास्तों पर दोस्तों के साथ कुछ गीत गला फाड़ कर गाया जाता था उसमें यह गीत प्रमुख हुआ करता था.. आस पास के राहगीर या रहने वाले लोग हमें उन निगाहों से देखते थे जैसे पागलों या अपराधियों को देखा जाता है.. हो भी क्यों ना, रात के 12-1 बजे कोई ऐसा करे तो भला और किसी से क्या उम्मीद करें? "वैसे रात की आवारगी वाले गानों में से एक हालिया प्रदर्शित गीत मुझे पसंद तो बहुत है मगर मुझे नौस्टैल्जिक नहीं कर पाता है, शायद अभी नया है इसलिये.. कुछ साल बाद शायद इसे भी किन्ही कारणों से याद करूं.."

अपने कुछ पसंदिदा गीतों की ओर बढ़ने पर पाता हूं कि कुछ गीत मुझे दीदी की बहुत याद दिलाता है.. उन गीतों में एक भी वैसे गीत शामिल नहीं हैं जो रक्षाबंधन पर चित्रहार या रंगोली में बजा करते थे.. ये उन गीतों में से आते हैं जो दीदी को परेशान करने के इरादे से गाया गया था.. रात में दीदी किचन में रोटियां पकाने जाती थी और मैं गर्धवराग में नुसरत के चंद गीत चिल्ला-चिल्ला कर किचन में गाने पहूंच जाता था.. जिनमें से ये दो कव्वाली खास हुआ करती थी, -

"ये जो हल्का-हल्का सूरूर है,
ये जो तेरी नजर का कुसूर है,
जो शराब पीना सिखा दिया.."


और

"यादे नबी का गुलशन महका-महका लगता है..
महफ़िल में मौजूद हैं आका, ऐसा लगता है.."


वैसे अगर भाई-बहनों के ऊपर बने गीतों की बात की जाये तो मुझे 'काजल' सिनेमा का गीत "मेरे भैया, मेरे चंदा, मेरे अनमोल रतन. तेरे बदले, मैं जमाने की कोई चीज ना लूं" वाला गीत सबसे अधिक भाता है..

एक सिनेमा जो बहुचर्चित रहा, मगर किसी और कारण से उस चर्चित सिनेमा के गीत कम ही लोग जानते हैं.. जो उन गानों को आज जानते हैं उनमें भी बड़ी संख्या वैसे लोगों की है जिन्होंने इसे किसी रियैल्टी शो में सुना है और रिलीज के समय होने वाले विवाद के कारण इसके शानदार गाने कहीं गुम से हो गये थे.. मैं "बैंडिट क्वीन" की बात कर रहा हूं.. इसके गीतों में ना तो कहीं तयशुदा लंबाई है और ना ही कोई मीटर, मगर फिर भी अपने आप में यह किसी अनमोल नगीने से कम नहीं है.. इसके गानों को जब कभी भी सुनता हूं, एक अलग तरह कि ही भावनायें उमड़ती है.. सुनकर बेहद उदास भी होता हूं, मगर फिर भी बार-बार सुनता हूं.. एक अजीब सी कशिस महसूस होती है.. उस पायरेटेड वर्सन वाले प्यार की भी याद आती है जिसका लाईसेंस लेने से पहले ही वह एक्सपायर हो चुका था.. आप भी इसके एक गाने पर जरा गौर फरमायें -

सावन आया रिमझिम सांवरे
आये बादल कारे कारे मतवारे
प्‍यारे प्‍यारे मोरे अंगना झूम के
घिर घिर आई ऊदी ऊदी देखो मस्‍त घटाएं
फुरफर आज उड़ाएं आंचल मोरा सर्द हवाएं
डारी डारी पे भंवरा घूम के आये कलियों के मुखड़े चूम के
जिया मोरा जलाए हाय प्‍यारी प्‍यारी रूत सांवली..

मेरे सैंयां तो हैं परदेस मैं क्‍या करूं सावन को
सूना लगे सजन बिन देस.
मैं ढूंढूं साजन को..

देखूं राहें, चढ़के अटरिया
जाने कब जाएं सांवरिया
जब से गए मोरी ली ना खबरिया
छूटा पनघट फूटी डगरिया
सूना लागे सजन बिन देस,
मैं ढूंढूं साजन को..

क्‍यूं पहनूं मैं पग में पायल
मन तो है मुझ बिरहन का घायल
नींद से खाली मोरी अंखियां बोझल
रोते रोते बह गया काजल .
सूना लागे सजन बिन देस मैं ढूंढूं साजन को


इसका एक और गीत जो मुझे बेतरह पसंद है, वह है "सांवरे, तेरे बिना जिया जाये ना.." इस गाने की शुरूवात नुसरत के सरगम से होती है.. आजकल लोग राहत के सरगम को सुनकर मदहोशी में डूबते हैं, मगर जिन्होंने भी नुसरत के सरगम को सुना है वे जानते हैं कि नुसरत के आगे वे कितने फीके हैं.. आखिर हो भी क्यों ना, नुसरत उनके उस्ताद भी जो रह चुके हैं.. इस गीत में पीछे से आती हुई लड़की की आवाज कुछ ऐसा सुकून देता है जैसे अगरबत्ती की भीनी सी खुश्बू.. साथ ही उस आवाज में एक बिछोह का दर्द अंदर से परेशान सा कर जाता है.. इसके बोल कुछ दिये जा रहा हूं -

"सांवरे, तेरे बिना जिया जाये ना!
जलूं तेरे प्यार में,
करूं इंतजार..
किसी से कहा जाये ना!!

ढ़ूंढ़े मेरी प्रीत रे,
तू है कहां मीत रे,
असुवन गीत रे,
काहे संगीत रे.."


आज की महफिल यहीं खत्म करता हूं.. फिर कभी अपने पसंद के गीतों के साथ आता हूं.. आज का विषय यादों को लेकर था, अगली बार कुछ और होगा.. :)

5 comments:

  1. और इन गानों का क्या?
    अटरिया पे लोटन कबूतर...
    एक ऐसी लड़की थी...
    अच्छा सिला दिया...
    बाकी आगे की लिस्ट भरो... पता तो चल ही गया होगा कौन से गाने हैं :)

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  2. अच्छी महफिल सजाई इसी बहाने!

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  3. अरे प्रशांत मियां,क्या महफ़िल सजाये हो..!
    माचिस के गाने तो अपन के भी हिट-लिस्ट में रहे हैं हमेशा से...छोड़ आये वो गलियां के बारे में सही लिखा तुमने।

    राहत के अलाप के बारे में तनिक संभल के लिखा करो छोटे मियां, हम जैसे उनके फैन पीछे पड़ जायेंगे तो मुश्किल होगी तुम्हें... :-)!

    अच्छी पोस्ट।

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  4. हर गीत की अपनी याद होती है .ओर कमाल है हर आदमी की जुदा जुदा....विशाल .गुलजार का कोम्बिनेशन लीथल है .....फिर इस गीत की बात अलग है ..हॉस्टल लाइफ में रेडियो के एंटेना को सेट करके रखते थे .देर रात लाईट बुझा के तब दो गाने बड़े पसंद आते थे .एक तो यही....दूसरा बोर्डर का ......'ए जाने वाली हवा सुन "...
    बोर्डर का गाना अक्सर तब आता जब हम तैयार हो रहे होते सुबह सुबह .हम रेडियो उठा के बाहर ले जाते थे शेव करते करते ...सांवरे, तेरे बिना जिया जाये ना.....बेहद शानदार गीत है .हमारे जूनियर ने हमें नुसरत से मोहब्बत करनी सिखाई थी ............एक ओर गाना है गुलज़ार ओर आर डी जिसे आर डी ने अपनी आवाज दी है .....धन्नो की आँख में .....उसकी यादे आजकल विदेस में है ....गाने बहुतेरे है ..ससुरे सबनॉस्टेलजिक कर देते है
    .

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  5. रंग दे बसंती का लुका छुपी नौस्टैल्जिक कर देता है यार.. फिर पुरानी जींस और यारो दोस्ती ले लो.. और भी कई है..
    वैसे माचिस का गाना तो "चुन्नी लेकर सोती थी कमाल लगती थी" के लिए ज्यादा याद है..

    राहत और नुसरत का कोई कम्पेरिजन नहीं बंधू.. दोनों अपनी जगह कमाल है..

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