Saturday, November 14, 2009

अलग शहर के अलग रंग बरसात के

बाहर झमाझम बरखा बरस रही है.. तीन-चार दिन सुस्ताने के बाद फिर से मानो आसमान बरस पड़ा हो.. यह बारिश जब कभी देखता हूं, उसमें एक पागलपन सा मुझे नजर आता है.. ढ़ेर सारी खुशियों को मैं उनमें देखता हूं.. ढ़ेर सारी उदासी भी नजर आती है.. कई तरह के भावनाओं को समेंटे हुये एक अलग सा ही ख्याल आता है.. कुछ पुरानी बातें याद आती है.. नौस्टैल्जिक सा हो उठता हूं..

पटना की सड़कों पर मूसलाधार वर्षा में वो पुराना बूढ़ा स्कूटर लेकर निकलना, जिससे थोड़ा भींग भी सकूं..लगभग घुटने भर पानी में स्कूटर के स्केलेटर को पूरा घूमा कर धीरे-धीरे क्लच छोड़ कर आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ना, जिससे स्कूटर बंद ना हो जाये.. कुछ दूर भीगते हुये उस लड़की का रिक्सा ढ़ूंढ़ना और उस रिक्सा के मिल जाने पर पूरे स्टाईल से वहां से निकल लेना, पानी के छीटें उड़ाते हुये.. जैसे उस रिक्से से मुझे कोई मतलब ही ना हो.. घर पहूंच कर सबसे पहले मम्मी से डांट खाना और फिर दरवाजे से ही सारे भींगे कपड़े लेकर अंदर आने को कहना.. एक दो बार तो गमछा लपेट कर अंदर घुसा हूं.. आज शाम तक अगर यूं ही बरसात होती रही तो फिर से भींगते हुये घर जाऊंगा.. गाड़ी के बंद होने का डर लिये बिना, साईलेंसर बहुत ऊंचा जो है.. अकेले घर पहूंच कर भींगे बदन ही ताला खोल कर अंदर जाकर कपड़े बदलूंगा.. जहां कोई डांटने वाला नहीं होगा.. फिर कोई ख्याल रखने वाला भी नहीं.. जितने भी बूंदें घर के अंदर होंगी, उसे पोछ कर साफ करना भी मेरा ही काम होगा..



बरसात देख एक शहर याद हो आता है.. जहां एक लड़की के हाथों में हाथ डाले घूमा करता था.. बरसात होने पर कहीं छुपने की जगह उस पहाड़ी वाले शहर में मुश्किल से ही मिलती थी.. फिर आजिज आकर छुपने की जगह ढ़ूंढ़ना छोड़ खूब भींगते थे हम.. अपनी हथेलियों से उस पर गिरने वाली बूंदों को रोकने का नाकाम प्रयास करते हुये.. कुछ अपना सा लगने लगा था वह शहर.. वो जूस का दुकान, चाट-पकौड़ियों का ठेला लगाने वाले भैया, जो हमें देखते ही दो ठोंगा बढ़ा देते थे.. जानते थे कि कुछ देर बहस करने और लड़ने-झगड़ने के बाद हम क्या खायेंगे.. बरसात में शायद अब भी उन हथेलियों की गर्माहट महसूस होगी, या शायद नहीं होगी..

चलते-चलते - खुद से, "ज्यादा सेंटी होने की जरूरत नहीं है भाई.." ;-)

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9 comments:

  1. बुरा मत मानिएगा,थोड़ा भलगर संस्करण है। बीए पार्ट टू में थे हम। ऐसे ही एक दिन झमाझम बारिश हो रही थी। रांची में बारिश तो आप जानते ही है,लरछुता-लरछुता के होता है। जेवियर्स कॉलेज घुसने में आदमी एकदम से भींग जाता है। तब आगे जाकर ऑडी में सिर बचा सकते हैं। हम टेकर से भींगकर आ रहे थे कि एक मेरी क्लासमेट छतरी लगातर पैदल आ रही थी। उसने कहा कि आओ न इसी छाते में। उसके बोलने पर हम साथ हो लिए। थोड़ा सट-सट के जा रहे थे एक ही छाता में। जब ऑडी के सामने पहुंचे थे चार-पांच भाई लोग एक ही साथ गाना गा रहा था- प्यार हुआ,इकरार हुआ..आगे गाने की लाइन नहीं बल्कि दूरदर्शन का विज्ञापन..डीलक्स निरोध,पुरुषों के लिए और आगे भी यही सब। लड़की तो लजा गयी और हम...

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  2. ये बारिशे भी कमबख्त नौस्टैल्जिक कर जाती है.. इधर अपना भी यही हाल है.. दो दिनों से बहुत बारिश हो रही है.. और हम है कि नौस्टैल्जिक होते जा रहे है..

    वैसे रिक्सा लिखकर लवली को कोम्पिटीशन दे रहे हो क्या.. :)

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  3. विनीत, इस में वल्गर कुछ नहीं।
    पीडी, ऐसे में गृहरागी हो जाना स्वाभाविक है।

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  4. वाह आज तो बरसात ने खूब रंग जमाया एक पोस्ट के साथ संस्मरणों की बरसात बहुत बडिया ,बधाई

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  5. चेन्नई वालों को बधाई झमा झम बरसात के लिए

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  6. बरसात की तासीर ही ऐसी होती है....क्या करियेगा!!!

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  7. इधर भी हो रही है पिछले कई दिनों से. आज फिर बदल छाये हैं...

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  8. इधर बारिश तो नही हाँ बदली ज़रूर है लगातार..बिना मौसम...!

    और बारिश में भीगने के बाद बिलकुल यही खयाल मेरे मन में भी आते थे जब आंध्रा में थी। खूद ही ताला खोलो खुद ही टॉवेल निकाल कर बाल सुखाओ और जब ना चले तो खुद ही चाय बना कर खुद को गर्मी दो....!!!!!

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  9. उस दिन बात होने के बाद तुम्हारा ब्लौग ढूंढ़ता फिर रहा था...

    मजा आ गया। अब लिंक डाल लिया है अपने ब्लौग पर...

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