Sunday, November 16, 2008

कथनी और करनी का अंतर

मैं आज अपनी इस पोस्ट में अपने कुछ अनुभव को बांटते हुये अपनी कुछ बातों को साफ करना चाहूंगा क्योंकि मुझे लगता है कुछ लोग मेरे पिछले पोस्ट को दूसरे तरीके से ले लिये थे.. सबसे पहले बात करते हैं राजेश जी के कल के पोस्ट पर.. उनका कल का पोस्ट बहुत ही अनुकरणीय था और मेरा मानना है कि हर किसी को एक बार उनका पोस्ट जरूर पढ़ना चाहिये.. उन्होंने लिखा था -

"बांग्‍लादेश के ग्रामीण बैक की स्‍थापना मोहम्‍मद युनूस ने 1983 में रखी थी…नोबेल प्राईज उन्‍हें 2006 में मिला था.. एक हम हैं पोस्‍ट लिखते हैं और पेज रिफ्रेश कर तत्‍काल देखते हैं कि क्‍या कोई कमेंट आया है क्‍या?"

साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि

"2008 का नवबंर महीना, मैं पोस्‍ट लिख रहा हूं, कई लोग लिख रहे होंगे…लेकिन कई लोग ऐसा भी कुछ कर रहे होंगे जिनके बारे में 2012 में कहीं लिखा कहा जाएगा कि यह 2008 में फलां फलां कर रहे थे…"

कुछ विचार उन्होंने गांधी जी के बारे में भी दिये जिससे मैं पूर्णतः सहमत हूं.. उन्होंने लिखा था -

"आप सभी लोग उस इंसान के बारे सोचिए जिनके आप कद्रदान हैं…उनके बारे में सोचिए जिनके काम करने के तरीके का आप नकल उतारने की कोशिश करते हैं…उनमें भी कमी होगी…
मैं गांधी को संपूर्ण के करीब मानता हूं…संपूर्ण नहीं मानता क्‍योंकि गलतियां उन्‍होंने भी की है…हर कोई करता है. मैं, आप..हम सभी लोग.."


अब मैं अपने कल के पोस्ट पर आये कुछ कमेंट्स कि बात करता हूं फिर अपनी बात कहूंगा.. कल के पोस्ट पर अजित जी ने कहा -
"सही है। राजेश के वक्तव्य में कुछ हडबड़ी, जल्दबाजी के निष्कर्ष हैं,मगर गलत नहीं। तुमने सही संदर्भ दिया। अच्छा लगा। अपने प्रति ईमानदारी ज़रूरी है। किन्हीं मूल्यों के प्रति समर्पण भी होना चाहिए।"

ताऊ जी ने कहा -
"जीवन में कुछ लोग फोकट यथार्थवाद ढूंढ़ते हैं ! प्रसंशा की एक सैनिक को भी आवश्यकता होती है ! भले फोकट ही हो बिना प्रसंशा के आदमी में कुछ करने का जज्बा ही नही आ सकता !"

कुछ लोगों ने राजेश जी को भी सही ठहराया.. और अंत में डा.अनुराग जी का भी कमेंट आया -
"प्रिय प्रशांत
आपकी इस सदाशयता के लिए आभारी हूँ पर शायद कही न कही @राजेश रोशन के मर्म को समझने की भूल हुई है ..वे शायद इस समाज की असवेदंशीलता से त्रस्त है .....हमारे ब्लॉग में टिपियाने के तरीके को लेकर असहमत है......शायद वक़्त की कमी या शब्दों का सही चुनाव न होना ...कुछ भ्रम पैदा कर गया है...
इन साठ सालो की आज़ादी के बाद भी इस देश का केवल एक तबका " हाईटेक " हुआ है ....ये देश का दुर्भाग्य ही है ..यही अब्दुल कलाम जिनको पुरा देश नवाजता है जब राष्टपति पड़ के लिए दुबारा नामांकित होते है .तो राजनैतिक गलियों के गठजोड़ में उनकी सारी योग्यता अचानक गायब हो जाती है..आख़िर में चलते चलते कभी एक चिन्तक ओर विचारक रामचंद्र ओझा जी का एक लेख मैंने कही पढ़ा था जिसमे उन्होंने कहा था
"हम संवेदना से परहेज नही कर सकते क्यूंकि संवेदना हमारा मूल है ,हमारे सारे मूल्य ओर यहाँ तक की "लोजिक "की जननी भी संवेदना ही है ...बुद्दि-विवेक के साथ उत्तरदायित्व होना भी मनुष्य के लिए जरूरी है.."


अब आता हूं मैं अपनी बात पर.. सबसे पहले तो मैं यह बता देना चाहता हूं कि मैं राजेश जी कि बातों से असहमत नहीं था तो साथ ही पूर्णतया सहमती भी नहीं थी.. जैसा कि डा.अनुराग जी ने कहा, "शायद वक़्त की कमी या शब्दों का सही चुनाव न होना ...कुछ भ्रम पैदा कर गया है.." से मैं सहमत हूं.. अपने इस छोटे से जीवन में मेरा खुद का ढेरों ऐसे अनुभव हैं जिसमें मैंने पाया है कि कहने को तो लोग बरी बरी बातें करते हैं मगर जब करने कि बात आती है तो वही लोग पहले सबसे पिछले कतार में दिखते हैं और धीरे-धीरे खिसक लेते हैं.. मगर इसका मतलब यह नहीं कि जो कर रहे हैं उनके किये को भी हम सारे लोगों के साथ डाल दें..

हर व्यक्ति अपने जीवन को दो हिस्सों में जीता है.. पहला सामाजिक और दूसरा पारिवारिक.. अगर कहीं भी यह संतुलन खराब होता है तो बस वहीं से परेशानी कि शुरूवात हो जाती है.. एक उदाहरण के तौर पर मैं गांधी जी को ही लेता हूं(राजेश जी कि तर्ज पर ही).. उन्होंने अपना सामाजिक जीवन खूब जिया और उसमें बहुत सफल भी रहे, मगर मेरा प्रश्न यह है कि क्या वह अपने परिवार के लिये भी उदाहरण देने में सफल रहे? मैं तो सफल नहीं मानता, अगर मैं गलत हूं तो कृपया मुझे सही करें..

मेरा हाल का एक अनुभव-
अभी कुछ दिन पहले बिहार कोशी से जूझ रहा था, उस समय कई ऐसे लोगों से मुलाकात हुई जो बिहार के लिये कुछ करना चाहते थे.. सच बात तो यह है कि इससे पहले मैं कभी भी इस तरह के सामाजिक कार्यों से जुड़ा नहीं था.. पहली बार जुड़ा और पाया कि कुछ लोग सच में कुछ करने को तैयार हैं और वो भी पर्दे के पीछे रहकर.. तो साथ ही कुछ लोग बस बरी-बरी बातें करके चंपत हो लिये.. कुछ काम मैंने भी किये(जिनकी चर्चा मैं नहीं करना चाहता हूं) जो मेरे लिये बिलकुल नया अनुभव था, तो काफी कुछ सीखा भी.. पर्दे के पीछे रह कर काम करने वालों से भी मिला, जो बस अपना काम करना जानते हैं.. अब भले ही उनके किये हुये कार्यों का प्रचार हो या ना हो.. खासतौर पर मैं एक व्यक्ति "चंदन जी" के बारे में बताना चाहूंगा जो सब छोड़ कर पिछले तीन महिने से अभी तक जमीनी स्तर पर राहत कार्य में लगे हुये हैं.. मेरे लिये यह संभव नहीं था कि मैं भी सब छोड़कर वहां चला जाऊं और कार्य करूं मगर चेन्नई में रहते हुये जो सबसे उत्तम प्रबंध मैं कर सकता था वह मैंने किया..

मैं अपने इस पोस्ट से यह संदेश देना चाहता हूं कि सबसे जरूरी है कि सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बना कर चलना.. नहीं तो अगर हम बस सामाजिक कार्यों पर ही ध्यान देंगे तो हम अपना कार्य तो उचित तरीके से करेंगे, मगर अपने परिवार के अपनी अगली पीढ़ी के लिये ज्यादा कुछ नहीं दे पायेंगे.. हमें सारा समाज तो पूजेगा मगर अपने परिवार वालों के साथ वैसी स्तिथि नहीं होगी.. और इसके ठीक विपरीत अगर हम बस पारिवारिक जीवन में ही उलझ कर रह जाते हैं और समाज को कुछ भी नहीं देते हैं तो इस अपराध को कई नस्ल याद रखेगी..

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10 comments:

  1. परिवार के दायित्व इस तरह उठाए जाएँ कि वह भी आप के सामाजिक कामों में सहयोगी बन जाए। तभी सच्ची सफलता है।

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  2. आपने सही कहा-
    सबसे जरूरी है कि सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बना कर चलना..
    मगर यह संतुलन बनाते-बनाते अपना ही संतुलन बि‍गड़ जाता है:)
    एक अच्‍छे आलेख के लि‍ए शुक्रि‍या।

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  3. सही कहा.. संतुलन जरुरी है.. हर जगह..

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  4. संतुलन सब धर्म का मूल है! अच्छा लिखा !

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  5. भाई बिना संतुलन के तो गडबड हो जाती है, इस लिये हर कदम पर संतुलन जरुरी है, आप की बातो से सहमत हुं

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  6. "मैं अपने इस पोस्ट से यह संदेश देना चाहता हूं कि सबसे जरूरी है कि सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बना कर चलना."

    एकदम सही बात कही है आपने !! अकसर लोग यह संतुलन भूल जाते हैं

    सस्नेह -- शास्त्री

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  7. लोग बहुत जल्दी प्रसन्न और बहुत जल्दी बोर हो जाते हैं।

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  8. वैसे ये टिप्पणी राजेश जी ने हम पाठको के लिए की है जो गंभीर से गंभीर लेख ओर सवेदन शील लेख पर बधाई दे देते है की बधाई बहुत अच्छा लेख ,बधाई आपकी पोस्ट के लिए ,बधाई किस बात की ?जैसे किसी ब्लोगर ने लिखा था की उनकी माता की बरसी पर लोग दीपावली की बधाई दे रहे है .

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  9. कथनी और करनी आजके समाज में नदी के दो किनारे हो गये हैं, जो चाह कर भी मिल नहीं पाते।

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