मेरे हिस्से का चांद
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सुंदर ! कुछ याद दिलाता हुआ.
ReplyDeleteकविता झिलायी, अब हमें भी झेलो :-)
ReplyDeleteकालेज में वोदका मार के तुम
डिपार्टमेंट की पानी की टंकी पर
सीढी से चढ तो गये थे,
लेकिन उतरने के लिये
दारू उतरने के इंतजार में,
बडी देर तक चांद को निहारा था ।
एक दम अठन्नी की माफ़िक चमक रहा था चांद।
@ नीरज जी - वाह नीरज जी.. क्या कविता सुनाई है.. :)
ReplyDeleteमैंने तो कभी इस नजरिये से सोचा ही नही था.. आगे से ऐसे भी सोचूंगा.. मेरे विचारों को नया आयाम देने के लिए धन्यवाद.. :D
@ मीत जी - बहुत बहुत धन्यवाद..
इत्ते साल बाद कौन लौटायेगा? वैसे बांटा काहे था भाई?
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता ! पढ़कर मन प्रसन्न हो गया । चाँद वापिस मत मांगिए ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
सुंदर ,मगर आपका आधा चांद है किधर्। दिल खुश हो गया आज दिन तो अच्छा गुज़रेगा।
ReplyDeleteचांद तो सबका है
ReplyDeleteउसे बांटने का अधिकार किसने दिया
क्या इतने बड़े "दादा" हो कि
खुद को मालिक समझ लिया?
भाई जो चीज एक बार बाँट दी सो बाँट दी ! भूलो यार उसको ! फ़िर नया चाँद ढूंढ़ लो ! कौन सी कमी है चांदों की ! :)
ReplyDeletebahut khu sundar ehsaas
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeletewaah ,kya baat hai..aapki kavita pehli baar padhi
ReplyDeleteवाह क्या बात है? आजकल बहुत बाँट-बटौव्व्ल हो रही है :-)
ReplyDeleteआदमी में यही दिक्कत है - बंटवारा चाहता है पूरी चीज का।
ReplyDeleteआजकल लगता है चाँद बांटने का माहौल बना हुआ है....अनुराग जी कि पोस्ट पर भी उनके हिस्से का आधा चाँद चमक रहा है! बहरहाल ....बहुत सुंदर कविता...
ReplyDeleteबहुत ही अपीलिंग है। संवेदनाएँ शेष हों तो कोई भी भावुक हो उठेगा। लेकिन यथार्थ संभवतः भावनाओं से बहुत अलग होता है।
ReplyDeleteवाह भई वाह!! क्या खूब..बहुत उम्दा!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना प्रशांत जी. लेकिन ये सब इस चाँद को बाँटने से पहले सोचना चाहिए था, अब दी हुई चीज़ कोई क्यो वापस करेगा?
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