Monday, March 03, 2008

अरे भैया हिंदी में कहिये ना कलेक्टेरियेट

आज-कल हिंदी में अंग्रेजी के शब्द इस तरह घुसे हुये हैं मानों वो भी हिंदी का ही एक भाग हो.. लोग-बाग गांव-कस्बों तक में इसका प्रयोग धड़ल्ले से कर रहें हैं.. इसी से जुड़ा एक संस्मरण मैं आज आपके पास लेकर आया हूं..

बात सन् 2001 की है, गोपालगंज की..गोपालगंज तीन चीजों के लिये बहुत अधिक जाना जाता है.. पहला चीनी मिल के लिये, दूसरा यहां के लोगों का काफी ज्यादा मात्रा में नौकड़ी की तलाश में खाड़ी देशों में पलायन के लिये और तीसरा लालू का गृह जिला होने के लिये.. :)

मेरे पापाजी गोपालगंज जिले में पदस्थापित थे.. मैं उस समय दिल्ली में मुनिरका में अपने भविष्य की तलाश में था और उससे पहले मैं कभी भी गोपालगंज नहीं गया था.. पटना वाले घर में कोई भी नहीं था सो मैंने पापा से पूछा की गोपालगंज में घर कहां है? उन्होंने बताया की गोपालगंज समाहरणालय के ही अंदर में दो बंगले हैं उसी में से एक वाला उनको मिला हुआ है.. मैंने पूछा की बस स्टैंड से कितना दूर होगा? उन्होंने बताया की आधा किलोमीटर दूर होगा..

अब मैं पहले दिल्ली से पटना में अपने घर आया और फिर वहां से गोपालगंज पहूंचा.. वहां सोचा रिक्सा ले लूं, तो रिक्से वाले ने नया जानकर सीधा 40-50 रूपये बताया.. मैंने सोचा चलो आधा किलोमीटर ही तो है और सामान के नाम पर पीठ पर टांगने वाला एक कालेज बैग भर ही तो है, सो पूछते-पाछते पैदल ही चला जाऊंगा..

मेरी असली यात्रा यहां से शुरू हुई.. मैं किसी से भी पूछ रहा हूं की समाहरणलय कहां है तो लोग मेरा चेहरा ऐसे देखते जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह से आया हूं.. अंततः मैंने एक बूथ से घर फोन लगाया और पूछा की पैदल कैसे रास्ता है और उसी रास्ते पर बढ चला.. थोड़ी दूर जाकर फिर एक दूकान में अपनी तसल्ली के लिये पूछा की समाहरणालय कहां है? फिर से वो भी पहले वाले की तरह मेरा चेहरा देखने लगा.. वहीं पर एक बुजुर्ग बैठे हुये थे, उन्होंने मुझे बुलाया और बड़े प्यार से पूछा.. भैया समाहरणालय में क्या होता है? मैंने बताया की जिला मुख्यालय होता है जहां डिस्ट्रीक मजिस्ट्रेट बैठते हैं..

अब वो मुझे देख कर मुस्कुराया और हंसते हुये बोला.. तो अंग्रेजी में क्यों बतियाते हैं? हिंदी में कहीये ना की कलेक्टेरियेट कहां है.. उनके सामने तो कुछ नहीं बोला मुस्कुरा भर दिया और पता पूछ कर चला आया.. पर घर आते आते हंसते-हंसते मेरा बुरा हाल हो गया.. :)


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4 comments:

  1. सही है यही हालात हैं...वैसे यकीन जानिये..आपके जाने के बाद वो दुकान वाला भी खूब हँसा होगा. :)

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  2. बिल्कुल सही बात है। एक बार मैंने रिक्शे वाले से पूछा भाई पटेल नगर दो चलोगे, वह नहीं तैयार हुआ। जब मैने पटेल नगर सेकेंड कहा तो वह चलने के लिये राजी हो गया।

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  3. bhai jee aapka aalekh padh kar mujhe apne bachpan ki ek dhatna yaad aa gai wo bhi bikul aap hi ki tarah hai. wakai aaj ke jamaane men ham "HINGLISH' BOLNE LAGE HAIN.

    dR. VIJAY KISLAY
    JABALPUR M.P. INDIA

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  4. रोचक. गोपालगंज से कई बार गुजरा हूं। पर समाहरणलय नाम कभी दिमाग में नहीं आया!

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