कल जब मैं काफी पीने के लिये काफी मशीन की तरफ बढ रहा था तो मेरे कार्यालय काम करने वाले मेरे एक मित्र ने मुझे अकेला देख कर मुझे टोका, "What Prashant, everytime you are coming alone? I saw the same thing at lunch time also. Always alone!! Why it is like so?"
मैंने उससे कुछ कहा नहीं, बस एक बार मुस्कुरा भर दिया.. मगर उसकी इस बात ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया.. हां ये बात तो सच है की पहले जहां मैं कहीं भी राह चलते मित्र बना लिया करता था वहीं आज-कल अपने आस-पास अपने कार्यालय में देखता हूं की कोई नहीं है(शिवेन्द्र को छोड़ दें, उसकी तो मजबूरी है साथ रहने की).. और जहां तक घर की और पूराने दोस्तों की बात है तो वे सभी भी मजबूर हैं, इस रिश्ते को मेरे साथ ढोने की अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है.. वे सब हैं ही इतने अच्छे जो मुझ जैसे अख्खड़ आदमी का साथ भी निभाना जानते हैं..
मुझे नहीं पता की ऐसा सच में है या नहीं.. अब इसका उत्तर तो वही दे सकते हैं जो मेरे करीबी हैं और हमेशा मेरा ब्लौग पढकर किनारे से बिना कोई कमेंट किये ही निकल लेते हैं.. अगर कमेंट नहीं तो फोन पर या मेल से मुझे ये बात जरूर बताईयेगा..