Friday, November 02, 2007

यादें तरह-तरह की

कुछ याद करने पर बहुत कुछ याद आता है। यादें अच्छी भी होती हैं और बुरी भी, पर यादें तो यादें होती हैं और उसे अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं होता है। पर हां मेरी एक आदत बहुत बुरी है, मैं यादों को संजो कर रखता हूं। मुझसे कई लोग अक्सर कहते हैं, "बुरी यादों को भूल जाने में ही समझदारी होती है।" मैं कुछ कह नहीं पाता हूं डर लगता है की कोई नया तर्क सामने ना आ जाये जिसे पार पाना मेरे बस के बाहर हो। मैं बस सोच कर रह जाता हूं की यादें अच्छी हो या बुरी, हैं तो अपनी ही। तो अच्छी चीजों को याद रखना और बुरी चीजों को भूल जाना, ये कैसी बात हुई?

जब कहीं किसी बच्चे को साइकिल पर स्कूल जाते देखता हूं तो अपनी वो साइकिल याद आती है जिस पर बैठ कर मैंने उसे चलाना सीखा था, अपना वो स्कूल याद आता है जहां मैंने कई अच्छी तो कई गालियाँ भी सीखी। ये बात और है की गालियों को एक प्रवाह में देने का हुनर आज भी नहीं सीख पाया हूं।

जब कभी कहीं अमरूद बिकते देखता हूं तो वे पेड़ याद आते हैं जो हमारे सितामढी वाले घर में था। उन मीठे फलों की याद तो बहुत ही अच्छी है पर उन यादों को कैसे भूल जाऊं जो उन पेड़ों के कटने से तकलीफ पहूंचा गयी थी?

जब किसी छोटे बच्चे को अपनी माँ के साथ लाड़-दुलार करते देखता हूं तो एक अजीब सी सुखद अनुभूती होती है। पर उन दिनों को कैसे भूल जाऊं जब दिल्ली के मुनिरका गांव के एक छोटे से बंद कमरे में बैठ कर माँ को याद करते हुये पहली बार रोया था?

किसी युगल को सबसे छुप कर ठिठोली करते देखना तो अच्छा लगता ही है। पर उस दिन को कैसे भूल जाऊं जब खुद को दुनिया के सामने ठगा हुआ महसूस किया था?

ये सोचना तो अच्छा लगता है जब मैंने BCA की पांचवीं छमाही में अपने विश्विद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया था। पर उसे क्यों भूलूं जब मैं इंटर की परिक्षा में अनुत्तीर्ण हुआ था और जिसने जिंदगी के बहुत सारे सबक सिखाये थे?



ये भाग दौड़ की दुनिया कुछ भी सोचने का मौका नहीं देती है, और अगर आप अपने जीवन के पूराने पन्नों को पलटना चाहते हैं तो ऐसा लगता है जैसे ये दुनिया आपसे बहुत आगे निकल गयी है और फिर आप पूरानी चीजों को पीछे छोड़ कर आगे निकलना चाहते हैं। मगर यादें तो हमेशा ही साथ होती है।

आज मेरे मन में ये गीत चल रहा है जो यादों से जुड़ी हुई है आप लोगों को भी सुनाना चाहूंगा। मन को छू लेने वाले इस गीत को राहत फ़तेह अली खान ने अपनी आवाज से सजाया है।



मैं जहां रहूं, मैं कहीं भी रहूं..
तेरी याद साथ है..
किसी से कहूं, किसी से ना कहूं..
ये जो दिल की बात है..

कहने को साथ अपने, एक दुनिया चलती है,
पर छुप के इस दिल में तन्हाई पलती है..
बस याद साथ है, तेरी याद साथ है..

मैं जहां रहूं, मैं कहीं भी रहूं..
तेरी याद साथ है..

कहीं तो दिल में यादों की एक सूली गड़ जाती है..
कहीं हर एक तस्वीर बहुत ही धुंधली पर जाती है..
कोई नयी दुनिया के नये, रंगों में खुश रहता है..
कोई सब कुछ पा के भी, ये मन ही मन कहता है..

कहने को साथ अपने, एक दुनिया चलती है,
पर छुप के इस दिल में तन्हाई पलती है..
बस याद साथ है, तेरी याद साथ है..

कहीं तो बीते कल की जड़े दिल में ही उतर जाती है..
कहीं जो धागे टूटे तो मालाऐं बिखर जाती है..
कोई दिल में जगह नयी बातों के लिये रखता है..
कोई अपने पलकों पर यादों के दिये रखता है..

कहने को साथ अपने, एक दुनिया चलती है,
पर छुप के इस दिल में तन्हाई पलती है..
बस याद साथ है, तेरी याद साथ है..


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6 comments:

  1. अगर यादें न हों तो हम बीते हुए पलों को कैसे याद रख पायेंगे ?
    वैसे आपने बहुत ही ईमानदारी से अपनी अच्छी और बुरी यादों को सबसे बांटा है।

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  2. यादें ही तो हमारे संस्कार हैं जो भविष्य का आधार तय करते हैं।
    कविता मुझे बहुत ही अच्छी लगी…।

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  3. अपने छोटे (मैं अपने से तुलना में लिख रहा हूं) जीवन में आपने बहुत अनुभव समेट लिये हैं आपने प्रशांत। और दृष्टि भी सूक्ष्म है।
    डेडली कॉम्बिनेशन ब्लॉग पर सफलता के लिये।

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  4. कुछ खट्टी, कुछ मीठी यादें,
    भूली बिसरी कितनी बातें...

    क्या भूलूं और क्या याद करुँ मैं
    खुद से क्या क्या बात करुँ मैं...

    --यादों का ही आशियाना है जिसमें जाकर कुछ सकुन पा लेते हैं. बहुत शिद्दत से हर बात याद करते हुए बहुत प्रवाहमय लिखा है, दिल की आवाज. बधाई. पढ़कर अच्छा लगा.

    राहत फतेह अली खान की आवाज में इतना गहरा गीत सुनना अद्भुत अनुभव रहा. आभार प्रस्तुत करने का.

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  5. "मगर यादें तो हमेशा ही साथ होती है।"

    वे न केवल साथ होती हैं, बल्कि उनका साथ होना बहुत जरूरी है. यदि वे न होते तो हम अभी भी जंगलियों के समान एक दूसरे को चीरफाड कर जी रहे होते -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
    इस काम के लिये मेरा और आपका योगदान कितना है?

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  6. "ये बात और है की गालियों को एक प्रवाह में देने का हुनर आज भी नहीं सीख पाया हूं।"

    शुक्र है ईश्वर का कि कम से कम कुछ बातों में आप पीछे रह गये -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
    इस काम के लिये मेरा और आपका योगदान कितना है?

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